यह एक स्पष्ट बात है कि बच्चों में कुपोषण होने के दो कारण हो सकते हैं – पहला तो यह कि देश-समाज में गंभीर खाद्य असुरक्षा की स्थिति हो, उत्पादन न हो रहा हो और प्राकृतिक संसाधनों की कमी हो।
दूसरा कारण यह हो सकता है कि शासन व्यवस्था नीति, नैतिकता और नियत के मानकों पर कमजोर हो। मध्यप्रदेश में निश्चित रूप से भोजन-पोषण के उत्पादन और उपलब्धता में कमी नहीं है। इस वक्त मध्यप्रदेश समग्रता में देश के सबसे ज्यादा भोजन उत्पादन करने वाले तीन राज्यों में शुमार होता है।
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ऐसे में 35.7 प्रतिशत बच्चों का ठिगनापन से और 19 प्रतिशत बच्चों का अल्प पोषण से ग्रसित होना यही दर्शाता है कि शासन व्यवस्था ने आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक विकास के मानकों में बच्चों के कुपोषण को कोई खास महत्व नहीं दिया है।
मध्यप्रदेश में 6 माह से 3 वर्ष तक के बच्चों और गर्भवती-धात्री महिलाओं को राज्य सरकार द्वारा स्थापित 7 पोषण आहार उत्पादन प्लांटों से हर हफ्ते पोषण आहार के पैकेट उपलब्ध करवाए जाते हैं। इसे टेक होम राशन कहा जाता है, जबकि 3 वर्ष से 6 वर्ष की उम्र के बच्चों को स्थानीय स्तर पर यानी गांव/बस्तियों में ही महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से गरम पका हुआ पोषण आहार दिए जाने की व्यवस्था है। जमीनी अनुभव बताते हैं कि दोनों की व्यवस्थाओं में गंभीर उपेक्षा और गैर-जवाबदेहिता विराजमान है।
(कु)पोषण आहार की व्यवस्था
मध्यप्रदेश में 3 से 6 साल के बच्चों को गांवों में ही महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से गरम पका हुआ पोषण प्रदान किया जाता है। इसके लिए गेहूं और चावल का आवंटन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग द्वारा किया जाता है; लेकिन कम्प्यूटरीकरण की व्यवस्था के विकास के कारण मार्च 22 से 38 लाख बच्चों के लिए आवंटित होने वाला अनाज चार महीने जारी ही नहीं हो पाया।
बच्चों को गरम पका हुआ पोषण आहार प्रदान करने का काम ग्रामीण क्षेत्रों में 50 हजार और शहरी क्षेत्रों में 2076 स्वयं सहायता समूह कर रहे हैं। आज की स्थिति यह है कि जो महिलायें भोजन पकाने का काम करती हैं, उन्हें दिए जाने वाला 2000 हजार रुपये का मानदेय 3-4 महीने तक जारी ही नहीं होता है। इन स्थितियों में जब अनुसूचित जाति-जनजाति की महिलायें पोषण आहार उपलब्ध नहीं करा पाती हैं, तब उनके विरुद्ध संगठित दुष्प्रचार भी शासन व्यवस्था के माध्यम से ही कराया जाता है।
इस पोषण आहार पकाने वाले समूहों को खाद्य सामग्री के लिए मिलने वाली राशि 3 से 6 महीने की देरी से पहुँचती है. जिस आंगनवाड़ी केंद्र की स्थिति का जिक्र हमनें ऊपर किया है, वहां से स्वयं सहायता समूह के रसोइये को मार्च 2020 यानी कोविड-19 महामारी वाले महीने से मानदेय का भुगतान ही नहीं हुआ है।
यह मत मान लीजियेगा कि ऐसे उदाहरण इक्का-दुक्का होंगे। ऐसा होना वास्तव में नीति ही है। मध्यप्रदेश के महिला एवं बाल विकास विभाग के अनुसार राज्य में पोषण आहार कार्यक्रम में 69.44 बच्चे और 13.66 लाख महिलायें दर्ज हैं, जिन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम और उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के मुताबिक वर्ष में 300 दिन पोषण आहार प्रदान किये जाने की व्यवस्था होना चाहिए।
भारत सरकार ने मानकों के मुताबिक बच्चों के पोषण आहार के लिए 8 रुपये, महिलाओं के लिए 9.50 रुपये और अति गंभीर तीव्र कुपोषित बच्चों के लिए 12 रुपये प्रतिदिन के मान से आवंटन किया जाना चाहिए। अगर यह मानक वास्तव में लागू किया जाए तो मध्यप्रदेश में पोषण आहार के लिए 2253.87 करोड़ रुपये का आवंटन किया जाना चाहिए, लेकिन वर्ष 2021 में इसके लिए केवल 1450 करोड़ रुपये का ही आवंटन किया गया था।
वर्ष 2022-23 में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम - विशेष पोषण आहार कार्यक्रम के लिए 1272.24 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। जब सरकार की मंशा ही कुपोषित है, तब बच्चे कुपोषण से मुक्त कैसे होंगे।
उल्लेखनीय है कि अगर राज्य में उत्सवों, भीड़ जुटाने वाले कार्यक्रमों और महिला एवं बाल विकास विभाग के बजट से राजनीतिक कार्यक्रमों के आयोजनों का मोह त्यागा जा सके, तो पोषण आहार कार्यक्रम के लिए शेष एक हजार करोड़ रुपये जुटाए जा सकते हैं। वर्तमान बजट आवंटन से बच्चों और महिलाओं को 300 के स्थान पर केवल 187 दिन का ही पोषण आहार उपलब्ध करवाया जा सकता है।
आर्थिक विकास बनाम कुपोषण
रिजर्व बैंक आफ इंडिया के प्रतिवेदन के अनुसार वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश का राज्य सकल घरेलु उत्पाद प्रचलित मूल्य पर 1242 अरब रुपये था, जो वर्ष 2015-16 में लगभग चार गुना बढ़कर 5410 अरब रुपये और फिर वर्ष 2020-21 में साढ़े सात गुना बढ़कर 9175 अरब रुपये हो गया। राज्य की आर्थिक विकास दर लगभग 11.5 प्रतिशत रही है. खेती में अद्भुत चमत्कारिक विकास करने के लिए कई मर्तबा कृषि कर्मण पुरूस्कार हासिल किया गया है, लेकिन ठीक इसी अवधि में बच्चों में कुपोषण की स्थिति क्या रही?
जब आर्थिक विकास दर 11.5 प्रतिशत थी, तब वृद्धिबाधित (ठिगनापन) कुपोषण में केवल 1 प्रतिशत की दर से कमी हो रही थी. अल्प पोषण में केवल 1.1 प्रतिशत की दर से और कम वजन के बच्चों में 1.8 प्रतिशत की दर से कमी हो रही थी। इसका मतलब है कि आर्थिक विकास की नीतियों के स्वरुप और परिणामों का खाद्य असुरक्षा, आजीविका और बच्चों में कुपोषण के नजरिए से कभी भी कोई आंकलन नहीं किया गया।
यह एक चिंतनीय स्थिति है कि मध्यप्रदेश में बच्चों में एनीमिया में कमी की दर 0.1 प्रतिशत और गर्भवती महिलाओं में 0.3 प्रतिशत है. ऐसे सूचकों के सामने होने के बाद भी मध्यप्रदेश आठ में चार पहर राजनीतिक उत्सव मनाता है और लोगों को अहसास करवाता है कि कुपोषण समाप्त हो गया है। कुपोषण एक ऐसी आपदा है, जिसमें अवसर, राजनीतिक लाभ और मुनाफ़ा खोजने की पृवत्ति समाज और राज्य व्यवस्था के अनैतिक होने का प्रमाण देती है।