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मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव: कितना प्रभावित करेगी एमएसपी में बढ़ोत्तरी की घोषणाएं

Rakesh Kumar Malviya

पिछले दो महीने में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में तमाम मुद्दे छाए रहे हों, लेकिन चुनाव प्रचार चरम पर आते—आते खेती-किसानी एक बड़ा मुद्दा बन गया है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के विज्ञापनों में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का बिंदु दूसरे नंबर पर नुमाया है।

इससे पहले कांग्रेस ने भी अपने वचन पत्र में किसानों को प्राथमिकता में रखा है, दोनों ही प्रमुख दल मध्यप्रदेश में कृषकों के वोट को लुभाने की कोशिश में है।

आपको याद दिला दें कि पिछले विधानसभा चुनाव में किसानों की कर्जमाफी का वचन पत्र खूब चला था, और बाद में कर्जमाफी करने और नहीं करने पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में खूब तकरार भी हुई थी।

कांग्रेस ने जहां किसानों को गेहूं पर 2600 रुपए और धान पर 2500 रुपए प्रति क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की घोषणा की है, वहीं भारतीय जनता पार्टी ने गेहूं पर 2700 रुपए और धान पर 3100 रुपए देने का वायदा किया है।

बता दें कि सरकार ने वर्ष 2023—24 के खरीफ सीजन में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2183 रुपए रखा है, जबकि गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2015 रुपए है।

प्रदेश में रबी सीजन की प्रमुख फसल गेहूं है, किसान कल्याण तथा कृषि संचालनालय से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल 2021-22 में एमपी में 9829 हजार हेक्टेयर रकबे पर गेहूं और 3441 हजार हेक्टेयर भूमि पर धान की फसल ली गई। गेहूं का उत्पादन 35669 हजार मीट्रिक टन और धान का 12502 हजार मीट्रिक टन रहा। 

सरकार ने वर्ष 2021—22 में 12816 हजार मी​ट्रिक टन गेहूं का और इससे पिछले खरीफ सीजन में 2497 हजार मीट्रिक टन समर्थन मूल्य पर खरीदी की थी। यहां यह समझना जरूरी है कि सरकार खरीद कितना रही है। देखें ग्राफ -   

आंकड़ेे बताते हैं कि सरकार अभी गेहूं की उपज का लगभग 35 प्रतिशत और धान की उपज 19 प्रतिशत ही खरीद रही है। सरकारी खरीद को लेकर पहले से ही किसान नाखुश हैं। राज्य में सहकारी समितियों के माध्यम से एमएसपी पर खरीदी करने की व्यवस्था बनाई जाती है, लेकिन इसमें कई स्तरों पर दिक्कतें आती हैं।

देर से खरीदी शुरू होना, बारदानों का पर्याप्त इंतजाम न होना, तौलाई के लिए कई​ दिनों का इंतजार, तुलाई के बाद फसल का देरी से भुगतान और भुगतान के साथ ही किसानों के ऋणों का भुगतान में से ही काट लिए जाने, सहकारी समितियों में प्रभावशाली व्यक्तियों के हस्तक्षेप के चलते किसान कई बार खुले बाजार या मंडियों में कम दाम मिलने के बाद भी फसल वहां बेच देता है।    

किसान जागृति संगठन से जुड़े इरफान जाफरी कहते हैं कि पहले मप्र में गेहूं पर सौ रुपए का बोनस दिया जा रहा था वही पिछले कई साल से बंद है, कृषकों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए लंबा संघर्ष किया है, इसके बाद भी उनकी मांगें पूरी नहीं की गई हैं, ऐसे में चुनावी समय में यह घोषणा सिर्फ एक जुमला ही दिखाई देती है, इस पर हमें यकीन नहीं है।

सतना जिले के प्रगतिशील कृषक बाबूलाल दाहिया कहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य तब क्यों नहीं बढ़ाया जब  सत्ता में थे, अब चुनावी समय में यह घोषणा केवल वोटरों को लुभाने का प्रयास ज्यादा लगती है। वह आरोप लगाते हैं कि हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य में कछुआ की चाल से वृद्धि होती है, इससे किसानों की आय दोगुनी कैसे हो सकती है? उनका कहना है कि यदि कांग्रेस अपने वचन पत्र में न्यूनतम समर्थन मूल्य का वचन नहीं देती तो इस पर अब भी कुछ नहीं कहा जाता।

किसान संघ से जुड़े शिव शर्मा कहते हैं कि मुद्दा यह है कि ऐसी व्यवस्थाएं बनाने की जरूरत है जिसमें लघु और सीमांत किसानों को फायदा मिले, इस वर्ग के किसान तो पहले ही अपनी फसल खुले बाजार में बेच चुके होते हैं और उस वक्त भाव भी कम रहते हैं, पर किसानों को रुपयों की तुरंत जरूरत होती है, बड़े किसान इतने सक्षम होते हैं कि वह अपनी फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का इंतजार कर सकते हैं, इसलिए केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा से किसानों का भला नहीं होगा, इसके लिए कुछ और भी किया जाना चाहिए, जोकि चुनावी घोषणा पत्रों में दिखाई नहीं दे रहा है।

वहीं कृषि आंदोलनों से जुड़े जसविंदर सिंह भी कहते हैं कि घोषणा पत्रों में बिंदुओं को छुआ तो है लेकिन बुनियादी सवालों को दोनों ही दलों ने अनदेखा किया है। उन्होंने कहा कि यह फौरी राहत तो हो सकती है, लेकिन स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों से यह अब भी बहुत दूर है।

सामाजिक आंदोलनों से जुड़े कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हा कहते हैं ​कि पिछले कुछ सालों से किसान आंदोलन के कारण किसानों की बदहाली राजनीति के केन्द्र में आ गया है। परन्तु किसानों को इस चुनावी घोषणा को पूरा कराने सजग और संगठित रहना होगा।

भारतीय किसान संघ के प्रदेश उपाध्यक्ष रामभरोस बसोतिया का कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को एजेंडे में शामिल करना अच्छी बात है, लेकिन यदि यह पूरा नहीं हुआ तो किसी भी पार्टी की सरकार हो, संघ उसे अपना वायदा याद दिलाता रहेगा और नहीं पूरा किया तो छोड़ेगा भी नहीं।