खान-पान

आहार संस्कृति: आइए, जानते हैं कैसे बनती है धुरचुक चाय

अंतरिक्ष यात्रियों से लेकर आम लोग तक ठंडे इलाकों में पाए जाने वाले धुरचुक के गुणों से वाकिफ हैं, आप भी जानिए

Chaitanya Chandan

इस साल गर्मियों में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जाना हुआ। वहां एक नए तरह की चाय की चुस्की लेने का मौका मिला। आम चाय से बिलकुल अलग स्वाद वाली इस चाय को वहां धुरचुक कहा जाता है। धुरचुक भारत के सबसे उच्च हिमालय वाले क्षेत्र लद्दाख में पाई जाने वाली झाड़ी में लगने वाला छोटी गोलियों के आकार का फल है। नारंगी रंग के इस फल का स्वाद अमूमन खट्टा होता है और इसे अंग्रेजी में हिमालयन बेरी अथवा सीबकथोर्न के नाम से जाना जाता है।

धुरचुक की झाड़ियां बेहद ठंडे मौसम में भी जीवित रहती हैं और समुद्र तल से 12,000 फीट की ऊंचाई पर भी इसे उगाया जा सकता है। धुरचुक की झाड़ियों का जीवन काल 100-150 वर्षों तक होता है। धुरचुक एक प्राचीन फल है। इसकी उत्पत्ति यूरोप, पाकिस्तान सहित मध्य एशिया में मानी जाती है। ग्रीस में तांग साम्राज्य (618-708 ईस्वी) के दौरान इस फल का उपयोग औषधि के तौर पर किया जाता था। इसका उल्लेख प्राचीन ग्रीक साहित्य और तिब्बती औषधि संहिता में भी मिलता है।

वर्ष 2007 में लिपिनकोट विलियम्स एंड विल्किंस द्वारा प्रकाशित पुस्तक “द हेल्थ प्रोफेशनल्स गाइड टु डायटरी सप्लीमेंट्स” के अनुसार, प्राचीन ग्रीक सभ्यता में धुरचुक का इस्तेमाल वजन की स्थिरता, त्वचा सबंधी रोगों के उपचार और शारीरिक कमजोरी को दूर करने के लिए किया जाता था। वर्तमान में इसे उत्तरी और दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस और चीन में वाणिज्यिक तौर पर उगाया जाता है। इनमें से चीन और रूस धुरचुक का सबसे बड़े उत्पादक देश हैं। भारत में धुरचुक मुख्य रूप से हिमालयी क्षेत्र लद्दाख, उत्तराखंड में कुमाऊं-गढ़वाल, हिमाचल प्रदेश में लाहौल-स्पीति, किन्नौर, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के बर्फीले जंगलों में पाया जाता है। अकेले लद्दाख में धुरचुक की झाड़ियां करीब 30,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली हैं। लद्दाख के कुछ समुदाय धुरचुक को बेचकर थोड़ी बहुत आय अर्जित कर लेते हैं। हालांकि भारत में इसके वाणिज्यिक उत्पादन और विपणन के लिए कोई खास प्रयास अभी तक नहीं किए गए हैं।

धुरचुक का वानस्पतिक नाम हिप्पोफे राम्नोइद्स है। हिप्पोफे लैटिन भाषा के दो शब्दों हिप्पो और फओस को जोड़कर बना है। हिप्पो का अर्थ घोड़ा और फओस का अर्थ चमकना होता है। धुरचुक के इस नामकरण के पीछे एक बेहद रोचक कहानी है। दरअसल, जब चंगेज खां की सेना लद्दाख से गुजर रही थी, तब उन्होंने बुरी तरह से घायल कुछ घोड़ों को वहीं छोड़ दिया। जब वह वापस लौटा, उसने उन्हीं घोड़ों को पहले से अधिक तंदुरुस्त और चमकीली त्वचा वाला पाया। चंगेज खां को स्थानीय लोगों ने बताया कि ये घोड़े जीवित रहने के लिए धुरचुक की झाड़ियां और फल खाते रहे। परिणामस्वरूप घोड़े स्वस्थ हो गए। चंगेज खां धुरचुक की इस खूबी को जानकर हैरान रह गया और अपने सैनिकों की शारीरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए धुरचुक खिलाना शुरू कर दिया।

धुरचुक की झाड़ियां प्रदूषण नियंत्रण में भी सहायक है। यह खदानों से निकले कचरे से होने वाले क्षरण से मिट्टी को बचाता है। धुरचुक की झाड़ियों में प्राकृतिक तौर पर कीड़े नहीं लगते, इसलिए इसके उत्पादन में कीटनाशकों की जरूरत नहीं पड़ती। साथ ही धुरचुक की झाड़ियों की जड़ें मिट्टी को बांधे रखती है और भू-स्खलन से बचाती है। यही वजह है कि चीन ने धुरचुक के बाग नदियों के किनारे लगाए हैं। यह भूमि को मरुस्थलीकरण से भी बचाता है।

शीत युद्ध के दौरान रूस और पूर्वी जर्मनी के बागवानी विशेषज्ञों ने धुरचुक की एक नई प्रजाति विकसित की, जो उस समय उपलब्ध धुरचुक के फल से न सिर्फ आकार में बड़ा था, बल्कि उसमें अधिक पोषक तत्व भी मौजूद थे। रूस के अंतरिक्ष यात्री धुरचुक के बीजों से निकले तेल का इस्तेमाल अपनी त्वचा को हानिकारक विकिरणों से बचाने के लिए करते हैं। वहीं 20 वर्षों के लगातार प्रयोगों ने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में भी धुरचुक की उगाने में सफलता दिला दी। धुरचुक का जूस अमेरिका के साथ ही चीन में काफी लोकप्रिय है और हेल्थ फूड स्टोर में आसानी से मिलता है। 1998 में सिओल ओलिंपिक में धुरचुक का जूस चीन की टीम के लिए आधिकारिक पेय घोषित किया गया था।

भोजन और औषधि के अलावा धुरचुक का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण में भी किया जाता है। पिछले कुछ सालों में दुनियाभर के सौंदर्य उद्योग में धुरचुक का इस्तेमाल एंटी-एजिंग क्रीम और तेल बनाने में बड़े पैमाने पर किया जाने लगा है। भारत में धुरचुक के वाणिज्यिक उत्पादन और विपणन की संभावना को देखते हुए केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के साथ मिलकर लाहौल और स्पीति में बड़े पैमाने पर धुरचुक के उत्पादन की योजना बनाई है। यह कार्यक्रम प्रधानमंत्री ग्रीन इंडिया मिशन के तहत शुरू किया गया है, जिसमें वर्ष 2020 तक धुरचुक से जूस, तेल और कैप्सूल बनाकर दुनिया के अन्य देशों में भी निर्यात करने की योजना है।

औषधीय गुण

धुरचुक को सुपर फूड के रूप में भी पहचान मिलनी शुरू हो गई है। दरअसल, धुरचुक में प्रचुर मात्रा में 190 प्रकार के बायोएक्टिव यौगिक, 60 प्रकार के एंटीऑक्सिडेंट, 20 प्रकार के खनिज, एमिनो अम्ल के साथ ही विटामिन बी, के, सी, ए और ई पाए जाते हैं। यही वजह है कि प्राचीन ग्रीक सभ्यता में धुरचुक का इस्तेमाल औषधि के तौर पर किया जाता था। तिब्बत में औषधि की प्रमुख किताब “हु सिबु यिदियां” के 158 अध्यायों में से 30 अध्याय सिर्फ धुरचुक के गुण-दोषों पर ही आधारित हैं। इससे पता चलता है कि तिब्बती धुरचुक का इस्तेमाल उपचार के लिए बड़े पैमाने पर करते थे। अप्रैल 2007 में प्रकाशित पुस्तक “इंडियन मेडिसिनल प्लांट्स” के अनुसार, धुरचुक से बने गाढ़ा पेय का उपयोग पारंपरिक तौर पर दस्त, पेट दर्द, पेट का अल्सर और त्वचा संबंधी रोगों के उपचार के लिए किया जाता रहा है।

धुरचुक के औषधीय गुणों की पुष्टि वैज्ञानिक अनुसंधानों ने भी की है। फितोतेरापिया नामक जर्नल में वर्ष 2002 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, धुरचुक के बीज और उससे निकलने वाला तेल गैस्ट्रिक अल्सर के उपचार में कारगर है। वर्ष 1999 में द जर्नल ऑफ न्यूट्रिशनल बायोकेमिस्ट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, धुरचुक का सेवन त्वचा संबंधी रोगों के उपचार में सहायक है। वहीं वर्ल्ड जर्नल ऑफ गैस्ट्रोइंट्रोलोजी में वर्ष 2003 में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि धुरचुक यकृत संबंधी रोगों के इलाज में कारगर है।

व्यंजन

  • धुरचुक चाय
  • सामग्री (1 कप के लिए )
  • धुरचुक (सूखा) : 4 चम्मच  
  • पानी : 2 कप
  • दालचीनी का टुकड़ा : 1 इंच
  • नीबू का रस : 1 छोटा चम्मच
  • शहद : 2 छोटे चम्मच

विधि: एक पैन में 2 कप पानी लेकर उसमें सूखा धुरचुक और दालचीनी का टुकड़ा डालकर तब तक उबालें, जब तक पानी सूखकर आधा यानी एक कप न हो जाए। अब इसे कप में छानकर इसमें नीबू का रस और शहद मिलाएं। लीजिए तैयार है स्वास्थ्यवर्धक धुरचुक चाय। 

पुस्तक

अरिच एंड टैंटलायजिंग ब्रू: अ हिस्ट्री ऑफ हाउ कॉफी कनेक्टेड द वर्ल्ड
लेखक: जीनेट एम फ्रेगलिया
प्रकाशक: यूनिवर्सिटी ऑफ आर्कन्सॉ प्रेस   
पृष्ठ: 193 | मूल्य: $24.95


इस किताब में कॉफी के इतिहास को इसके उत्पादन की शुरुआत से बताया गया है। किताब के अनुसार  कॉफी की खेती सबसे पहले इथियोपिया और यमन के उच्च क्षेत्रों में निजी उपभोग के लिए किया गया था। बाद में मुस्लिम देशों में सार्वजनिक उपभोग की वस्तु के तौर पर इसे कॉफी हाउस में बेचा जाने लगा। कॉफी भूमध्यसागर के रास्ते इटली, यूरोप के अन्य भागों से गुजरते हुए भारत और अमेरिका में पहुंची। इस सफर के दौरान कॉफी को हर पड़ाव पर कई प्रकार के बदलावों और आलोचनाओं से भी से दो-चार होना पड़ा।