लेज चिप्स का मशहूर नारा, “बेचा कैन्ट ईट जस्ट वन!” अर्थात “मैं शर्त लगाता हूं कि तुम सिर्फ एक ही नहीं खा पाओगे।” यह नारा यूपीएफ की नशे जैसी प्रवृत्ति और पैकेज्ड फूड उद्योग की इसे बढ़ावा देने की साहसिक स्वीकारोक्ति जैसा लगता है। यूनाइटेड किंगडम (यूके) स्थित मार्केट रिसर्च फर्म टेक नैवियो की जनवरी 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 से 2029 के बीच वैश्विक यूपीएफ बाजार 856.6 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की संभावना है। इस वृद्धि का लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा यूरोप से आएगा, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, कनाडा, चीन, फ्रांस, इटली, स्पेन, जापान और नीदरलैंड जैसे देशों में भी तेजी से बढ़ते रुझान देखे जा रहे हैं।
जनवरी 2025 में जर्नल ऑफ ओबेसिटी एंड मेटाबॉलिक सिंड्रोम में प्रकाशित अन्य अध्ययन बताता है कि अमेरिका में यूपीएफ कुल ऊर्जा सेवन का 57.5 प्रतिशत, ब्रिटेन में 56.8 प्रतिशत, कनाडा में 46.8 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया में 42 प्रतिशत योगदान देते हैं। भारत और अन्य विकासशील देशों में भी इसी तरह की वृद्धि देखी जा रही है। यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना एट चैपल हिल के ग्लोबल फूड रिसर्च प्रोग्राम द्वारा नवंबर 2023 में जारी तथ्यों के अनुसार, यूपीएफ की वृद्धि आक्रामक मार्केटिंग और हाइपरपैलेटेबिलिटी यानी चीनी, नमक, वसा और कार्बोहाइड्रेट के अत्यधिक मिश्रण से प्रेरित है। गेयरहार्ट कहती हैं कि यूपीएफ की हाइपरपैलेटेबिलिटी की जड़ें तंबाकू उद्योग से जुड़ी हैं। 2023 में मोटापा और मधुमेह से जुड़े सम्मेलन में उन्होंने कहा, “कोई भी व्यक्ति कच्चा तंबाकू नहीं पीता लेकिन जब आप उसे प्रोसेस करते हैं, सुखाते हैं फिर रोल करते हैं और जलाते हैं तो वह निकोटिन को तेजी से दिमाग तक पहुंचाता है और यही लत का कारण बनता है।” वह आगे कहती हैं, “सिगरेट केवल निकोटिन नहीं होती, उसमें 4,000 से अधिक रसायन होते हैं, जिनमें से अधिकतर एडिटिव्स हैं जैसे कोको, चीनी, मेंथॉल जो सिगरेट के स्वाद को लुभावना बनाते हैं।” इस नुस्खे ने तंबाकू कंपनियों को यूपीएफ बनाने का खाका दिया। 1960 के दशक में अमेरिका की दो सबसे बड़ी तंबाकू कंपनियां आरजे रेनॉल्ड्स और फिलिप मोरिस ने सॉफ्ट ड्रिंक ब्रांडों का अधिग्रहण शुरू किया और हवाई पुंच, कूल एड और टैंग जैसे पेय बच्चों के लिए विकसित किए। आगे वे डेल मांट, जनरल फूड्स, क्राफ्ट और 7अप जैसी कंपनियों का अधिग्रहण कर यूपीएफ के सबसे बड़े उत्पादक बन गए।
भारत की आईटीसी लिमिटेड इसका उदाहरण है। यह समूह तंबाकू उत्पादों के साथ-साथ यूपीएफ का भी बड़ा निर्माता है। तंबाकू से खाद्य क्षेत्र में संक्रमण के दौरान कई कंपनियों ने खाद्य इंजीनियरों को नियुक्त किया ताकि “खाने की लालसा या तलब का कोड” तोड़ा जा सके। यानी ऐसे खाद्य पदार्थ बनाए जाएं जो बार-बार खाने की इच्छा जगाएं। अमेरिकी मार्केट शोधकर्ता और साइको-फिजिसिस्ट हॉवर्ड मॉस्कोविट्ज ने 1990 के दशक में “ब्लिस पॉइंट” शब्द गढ़ा, जिसे उन्होंने कुछ इस तरह परिभाषित किया, “वह स्वाद-प्रोफाइल जहां आप भोजन को सबसे अधिक पसंद करते हैं।”
मॉस्कोविट्ज ने डॉक्टर पेपर सोडा और प्रेगो स्पेगेटी सॉस जैसे कई लोकप्रिय उत्पादों का आविष्कार किया, जो अब भारत सहित अन्य देशों में प्रसिद्ध हैं। रेट्रो रिपोर्ट के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि निर्माता स्वाद परीक्षणों के माध्यम से यह पता लगाते थे कि मिठास का कौन-सा स्तर सबसे अधिक पसंद आता है। यही “ब्लिस पॉइंट” कहलाता है। उन्होंने यह भी पाया कि लोगों का एक ही ब्लिस पॉइंट नहीं होता, बल्कि अलग-अलग समूहों के लिए अलग-अलग स्तर होते हैं, जिससे कंपनियों को उत्पादों के विभिन्न संस्करण बनाने और अधिक ग्राहकों को आकर्षित करने का मौका मिलता है।
पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार और लेखक माइकल मॉस, जिन्होंने यूपीएफ उद्योग की दशकों तक जांच की है, इसी रणनीति की ओर संकेत करते हैं। वह डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “कुछ लोगों के लिए ब्लिस पॉइंट चीनी है, कुछ के लिए नमक और कुछ के लिए तला हुआ। सस्ता होना, रंग या गंध जैसे इन सभी तत्वों का प्रोसेस्ड फूड उद्योग उपयोग करता है ताकि केवल एक उत्पाद की इच्छा नहीं, बल्कि और अधिक की चाह पैदा हो।” वह आगे कहते हैं, “कंपनियां हॉवर्ड जैसे लोगों को सुपरमार्केट भेजती हैं ताकि वे उन उत्पादों में भी चीनी जोड़ें जो पहले मीठे नहीं होते थे। जैसे ब्रेड या दही और उनका ब्लिस पॉइंट तैयार करें। इससे यह अपेक्षा बनती है कि हर चीज मीठी होनी चाहिए।” मॉस बताते हैं कि उन्होंने “फ्लेवर लैब्स” देखी हैं जहां रासायनिक स्वादों को मिलाकर असली भोजन जैसा स्वाद तैयार किया जाता है और नए सस्ते फॉर्मूले खोजे जाते हैं। यह हाइपरपैलेटेबल फूड्स तैयार करने का आम औद्योगिक तरीका है। इसका उदाहरण है “लंचेबल्स।” यह एक पहले से पैक की गई भोजन ट्रे है जो बच्चों के लिए बनाई गई थी और अमेरिकी कंपनी क्राफ्ट हेंज द्वारा ऑस्कर मेयर ब्रांड के तहत बेची जाती है।
मॉस अपनी 2013 की पुस्तक साल्ट सुगर फैट में बताते हैं कि 1980 के दशक में प्रोसेस्ड मीट बनाने वाली ऑस्कर मेयर को बिक्री में गिरावट का सामना करना पड़ा क्योंकि लोग वसा और कोलेस्ट्रॉल को लेकर चिंतित हो गए थे। कंपनी ने कामकाजी माताओं को लक्ष्य किया जो बच्चों के लिए त्वरित लंच विकल्प चाहती थीं और इस तरह लंचेबल्स का जन्म हुआ, जिसमें प्रोसेस्ड मीट, क्रैकर और चीज शामिल थे। बाद में कंपनी ने “लंचेबल्स विद डीजर्ट” लॉन्च किया, जिसमें स्निकर्स, एमएंडएम और मीठे पेय शामिल किए गए ताकि बच्चों की मिठाई की लालसा को भुनाया जा सके।
मॉस कहते हैं, “इसके बाद उन्होंने पिज्जा लंचेबल्स बनाए फिर ठंडे टैको लंचेबल्स लेकिन यह असली भोजन नहीं है।” वह ऐसे यूपीएफ को “तंबाकू या शराब से भी बदतर” कहते हैं क्योंकि वे हर जगह “भोजन” के रूप में मौजूद हैं। भारत जैसे देशों में भी ऐसा ही बदलाव देखा गया है। मिसाल के तौर पर यहां केलोग्स कॉर्नफ्लेक्स जैसे अनाज (सीरियल्स) का चलन बढ़ रहा है, जिन्हें त्वरित और स्वास्थ्यवर्धक नाश्ते के रूप में पेश किया जाता है। डब्ल्यूएचओ और भारतीय आर्थिक अनुसंधान परिषद (आईसीआरआईईआर) के 2023 विश्लेषण के मुताबिक, भारत में नाश्ते के लिए सीरियल बाजार आकार में छोटा है, लेकिन 2011-21 के दौरान खुदरा बिक्री की मात्रा में 15.8 प्रतिशत की तेज वृद्धि हुई है। मॉस कहते हैं, “जब नियामक और लोग धूम्रपान को लेकर चिंतित हुए तो बड़ी तंबाकू कंपनियों ने प्रयास अन्य देशों की ओर मोड़ दिए। अब कंपनियां ब्राजील, यूरोप और भारत जैसे देशों को निशाना बना रही हैं।”
भारत में यूपीएफ का बढ़ता प्रभाव अब साफ दिखाई देता है। सुपरमार्केट, किराना दुकानों और 10 मिनट डिलेवरी एप्लिकेशन्स से सस्ते दामों में उपलब्ध यह उत्पाद अब ग्रामीण और शहरी दोनों बाजारों पर छा गए हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 के मुताबिक, इस विशाल व्यवसाय की नींव खाद्य पदार्थों के अत्यधिक स्वाद, उपभोक्ता व्यवहार को निशाना बनाने वाले भ्रामक विज्ञापनों और सेलिब्रिटी प्रचार जैसी मार्केटिंग रणनीतियों पर टिकी है। रिपोर्ट कहती है कि भारत में यूपीएफ की खपत 2006 में 90 करोड़ डॉलर से बढ़कर 2019 में 37.9 अरब डॉलर हो गई यानी सालाना 33 प्रतिशत से अधिक की दर से वृद्धि हुई।
“हाउसहोल्ड कंजंप्शन एक्सपेंडिचर सर्वे 2022-23” के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 9.6 और शहरी क्षेत्रों में 10.64 प्रतिशत खाद्य बजट पेय पदार्थों, रिफ्रेशमेंट और प्रोसेस्ड फूड पर खर्च होता है। डब्ल्यूएचओ-आईसीआरआईईआर के विश्लेषण के अनुसार, 2011 से 2021 के बीच भारत में यूपीएफ क्षेत्र खुदरा बिक्री मूल्य में 13.37 प्रतिशत की वार्षिक चक्रवृद्धि दर से बढ़ा। खुदरा बिक्री के लिहाज से चॉकलेट और शुगर कन्फेक्शनरी का सबसे बड़ा बाजार हिस्सा है, इसके बाद रेडीमेड और सुविधा वाले खाद्य पदार्थ, नमकीन स्नैक्स, पेय पदार्थ और नाश्ते के सीरियल आते हैं। 2021 में नमकीन स्नैक्स तेजी से बढ़ते हुए पेय पदार्थों का बाजार हिस्सा छीनने लगे। 2021 में चॉकलेट और शुगर कन्फेक्शनरी श्रेणी में स्वीट बिस्किट का हिस्सा खुदरा बिक्री मूल्य का 43 प्रतिशत से अधिक था। रिपोर्ट कहती है, “उपभोक्ता शायद स्वीट बिस्किट के हानिकारक प्रभावों से अनजान हैं। यह सस्ते होते हैं और आसानी से रखे जा सकते हैं। इनकी शेल्फ लाइफ भी लंबी होती है और अक्सर इन्हें झटपट खाने वाले स्नैक्स के रूप में खाया जाता है।” यूपीएफ की बढ़ोतरी मोटापे की बढ़ोतरी के साथ मेल खाती है। “नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे” के अनुसार, 2005-06 से 2019-20 के बीच अधिक वजन और मोटापे की दर में 10 प्रतिशत अंक से अधिक की वृद्धि हुई और यह शहरी भारत में पुरुषों में 29.8 प्रतिशत और महिलाओं में 33.2 प्रतिशत तक पहुंच गई, जबकि ग्रामीण भारत में क्रमशः 19.3 प्रतिशत और 19.7 प्रतिशत रही। बच्चों में यह वृद्धि 2005-06 से 2015-16 के बीच 19.3 प्रतिशत रही। केंद्र सरकार ने आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 में कहा है कि जंक फूड का सेवन मोटापे के बढ़ने के प्रमुख कारणों में से एक है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यूपीएफ के नशे जैसे आकर्षण से बचने की रणनीतियां वही हैं, जो एक स्वस्थ आहार के लिए अपनाई जाती हैं। अच्छा और ताजा नाश्ता करें। बिस्किट और चॉकलेट की जगह फल खरीदें और स्कूलों व दफ्तरों में “नो जंक” पेंट्री बनाएं। अब तक यूके, मेक्सिको और दक्षिण अफ्रीका जैसे 45 से अधिक देशों ने अल्ट्रा प्रोसेस्ड पेय पदार्थों, खासतौर पर शुगर-स्वीटेंड ड्रिंक्स पर टैक्स लगाया है। हालांकि द लैंसेट में प्रकाशित 2022 की नीति समीक्षा के अनुसार, केवल कुछ देशों ने अल्ट्रा प्रोसेस्ड स्नैक्स या खाद्य पदार्थों पर ऐसा टैक्स लागू किया है। चिली, इजरायल, मेक्सिको और पेरू जैसे देशों ने फ्रंट-ऑफ-पैकेज वार्निंग लेबल (एफओपीएल) अपनाए हैं और अस्वस्थ खाद्य पदार्थों, खासकर बच्चों को लक्षित विज्ञापनों पर पाबंदी लगाई है।
भारत में भी 2016 में केरल ने मोटापे की बढ़ती दर को कम करने के लिए बर्गर, पिज्जा, डोनट्स और ब्रांडेड रेस्तरां में बिकने वाले जंक फूड पर “फैट टैक्स” लगाया था। पोषण एडवोकेसी इन पब्लिक इंटरेस्ट (नैपी) के संयोजक और बाल रोग विशेषज्ञ अरुण गुप्ता कहते हैं, “खाद्य उद्योग और उनकी लॉबी अक्सर नीतिनिर्माण में हस्तक्षेप करती हैं। यह हस्तक्षेप स्टेकहोल्डर परामर्श, बंधी हुई फंडिंग जैसे तरीकों से करते है। वह अपने हित में अनुकूल शोध कराते हैं और प्रतिकूल प्रमाणों को चुनौती देते हैं।” यह भारत की एफओपीएल नीति में साफ दिखता है। नैपी की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि शक्तिशाली खाद्य कंपनियों के प्रभाव में आकर केंद्र सरकार ने 2018 में अस्वस्थ पैकेज्ड फूड पर चेतावनी लेबल लगाने का फैसला रोक दिया। इसके बजाय, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने “हेल्थ स्टार रेटिंग” लागू करने का प्रस्ताव रखा। यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है।
हाल के वर्षों में केंद्र सरकार ने लोगों से शुगर, तेल और यूपीएफ का सेवन कम करने की अपील की है और कड़े नियमों की योजना बनाई है। आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 ने यूपीएफ पर “हेल्थ टैक्स” लगाने की सिफारिश की है। लेकिन संदेश और कॉरपोरेट संबंधों में स्पष्ट विरोधाभास है। नैपी की रिपोर्ट बताती है कि 2014 में नेस्ले और कोका-कोला ने एक समिति में खाद्य और रेस्तरां संघों का प्रतिनिधित्व किया था, जिसे दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्कूलों में जंक फूड पर दिशानिर्देश और नियम बनाने का आदेश दिया था। इससे हितों का टकराव पैदा हुआ। दोनों कंपनियों ने चर्चाओं के दौरान जंक फूड की परिभाषा को चुनौती दी।
हाल ही में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने “2025 वर्ल्ड फूड इंडिया” नामक एक प्रमुख खाद्य नीति और निवेश कार्यक्रम के लिए कोका-कोला और एक प्रमुख यूपीएफ निर्माता मॉन्डेलेज के साथ साझेदारी की। नैपी विशेषज्ञों का कहना है कि इससे हानिकारक उत्पादों को वैधता और विश्वसनीयता मिल सकती है। यूपीएफ की नशे जैसी प्रवृत्ति को पहचानना ही इस उद्योग के रवैये में बदलाव लाने और सरकार की जिम्मेदारी तय करने की दिशा में पहला कदम हो सकता है। अगर इसे औपचारिक रूप से एक वर्ग के रूप में स्वीकार किया जाए, तो यह स्पष्ट लेबलिंग, विज्ञापन पर रोक, उत्पादों की पुनर्रचना और जनस्वास्थ्य अभियानों जैसी ठोस नीतिगत कार्रवाइयों का रास्ता खोल सकता है।