खान-पान

रोटी हो या चावल, सेतु का काम करती है दाल

दाल पर बने अनेक मुहावरे भारतीय जनमानस में दाल की अहमियत उजागर करते हैं। बता रहे हैं पुष्पेश पंत

Pushpesh Pant

 यह दावा करना अतिश्योक्ति नहीं कि बिना दाल के हिंदुस्तान के खाने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। दाल-रोटी या दाल-भात रोजमर्रा के भोजन का पर्याय है। उत्तर भारत और दक्षिणी भारत के निवासी चाहे गेहूं पसंद करते हों या चावल दोनों के बीच दाल सेतु का काम करती है। दाल न गलना, छाती पर मूंग दलना, यह मुंह और मसूर की दाल, आटे दाल का भाव पता चलना जैसे मुहावरे दाल की अहमियत उजागर करते हैं। एक विद्वान ने देश के भौगौलिक नक्शे को “दाल रेखा” के अनुसार विभाजित किया है। पश्चिम से पूरब और उत्तर से दक्षिण एक खास दाल की लोकप्रियता के आधार पर। इस मत के अनुसार कानपुर के आसपास काली दाल का साम्राज्य सिमट जाता है और पीली दाल का प्रभुत्व साफ नजर आता है। नर्मदा के उत्तरी किनारे के बाद दाल सिर्फ दाल नहीं रहती सांबर में बदलने लगती है। यह विश्लेषण दिलचस्प तथा विचारोत्तेजक तो है पर इसे पूरी तरह सही नहीं माना जा सकता। काली छिलके वाली दाल जो आजकल दाल मखनी, दाल बुखारा, दाल महारानी नाम से भी पहचानी जाती है और पंजाबी ढाबों की वह सौगात है जो पांच तारा छाप होटलों की चहेती बन चुकी है।

पर पीली दाल का क्या अर्थ निकालें? अरहर, मूंग, चना, मलका, धुली उड़द यह सब पीले रंग की ही दालें हैं। रेस्तरां में इन सभी को “दाल फ्राय” का लेबल चस्पां कर खिलाया जाता है। तड़का या बघार तो हर दाल में लगाने का रिवाज है। दाल को फ्राय करने या तलने वाली प्रक्रिया असमंजस ही पैदा करती है। अंकुरित दालें अधिक पौष्टिक समझी जाती हैं और गुजरात-महाराष्ट्र में “ऊसल” तथा “मिसल” के रूप में इनका उपयोग पारंपरिक है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार में चने को अंकुरित कर गरीब परिवार नाश्ता तैयार होता है। यहीं सत्तू का जिक्र भी जरूरी है जिसे आमतौर पर चने को भूनकर तैयार किया जाता है और जिसे संपूर्ण आहार समझा जाता है। साधन हों तो इससे “मखुनी” नामक पराठा भी बनाया जा सकता है और गुड़ मिलाकर शरबत भी। चने की दाल से निर्मित बेसन से बनाए जाने वाले व्यंजनों की सूची बहुत लंबी है, जैसे कढ़ी, गट्टों, ढोकला, धोखा, लड्डू, बर्फी बगैरह। क्या आप पापड़, बड़ी, मंगोडी की कल्पना दाल को भुलाकर कर सकते हैं? दालमोठ हो या तली मूंग या चने की दाल यह सभी दर्शाते हैं कि दाल से बने पदार्थ हमारे भोजन का अभिन्न अंग रहे हैं।

अलबरूनी ने हजार साल पहले जब भारत का लंबा दौरा किया था यह पाया कि औसत भारतीय का दैनिक आहार दलियानुमा खिचड़ी ही था। इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालिए कि खिचड़ी मजबूरी में नीरस आहार है। बंगाल की भुनी खिचुड़ी हो या मकर संक्रांति के पर्व पर पकाई जाने वाली माष की खिचड़ी अथवा दक्षिण भारतीय पोंगल, इन सभी में दाल ही जान डालती है। एक मजेदार बात यह है कि देश के विभिन्न सूबों में अलग-अलग दालें लोकप्रिय हैं। कहीं अकेली तो कहीं मिलीजुली। अरहर अथवा तुअर उत्तर दक्षिण में लगभग समान रूप से चाव से खाई जाती है पर राजस्थान में बाटी का साथ निबाहती है पंचमेल दाल। बंगाल में भुनी सोनार मूंग की दाल तथा छोलार (चना) दाल आम है जिसे लौकी, नारियल, किशमिश डाल कर पकाते हैं। उत्तराखंड में भट (काले सोयाबीन) की चुटकाणी लोहे की कढ़ाई में पकाई जाती है जिसे असाधारण रूप से पौष्टिक समझा जाता है। अवध में धुली उरद की “खिलवां” दाल सूखी नफासत का प्रतीक है तो मिट्टी के शिकोरे में फिरनी की तरह जमी मसूर की दाल ठंडी ही खमीरी रोटी के साथ पेश की जाती है। इसी भूभाग में पालक के सात पकाई दाल को “सगपैता” कहते हैं। अरहर की दाल कभी अमिया के साथ तो कभी गुड़ के साथ पकाई जाती है। रुहिलखंड में मुरादाबादी दाल प्रकट होती है जो मूंग की दाल को घोटकर तैयार की जाती है। हैदराबाद के निजामी दस्तरखान में मिली “केवटी” दाल सात बार अलग-अलग बघार लगाकर मेहमानों को चकित करती थी। वहीं गोश्त या कद्दू-लौकी के साथ “दालचा” भी बस्तों की पसंद है। हिमाचल प्रदेश में धाम नामक पारंपरिक सात्विक भोज में लगभग सभी व्यंजन दालों से तैयार होते हैं- राजमा, काबुली चने प्रमुख स्थान पाते हैं।

दालों के उपयोग की यह सूची बहुत लंबी है। कुछ दालें मौसम के अनुसार पचने में हल्की या भारी समझी जाती हैं। दो पीढ़ी पहले तक घर में गृहणियां इस पारंपरिक ज्ञान के अनुसार ही दालें पकाती थीं। आज विज्ञापनों के दबाव में हम उन दालों की तरफ लपकने लगे हैं जिन्हें अतिरिक्त पोषक तत्व से समृद्ध किया गया है। कुछ दालों को पकाने के पहले कुछ समय तक भिगोना जरूरी है। इससे ईंधन की बचत तो होती ही है, कुदरती स्वाद भी बरकरार रहता है।

(लेखक खाद्य समीक्षक व पारंपरिक भोजन के विशेषज्ञ हैं)