खान-पान

आहार संस्कृति: बच जाए खाना तो फेंकने की बजाय करें यह काम, स्वाद के साथ होगी बचत

Vibha Varshney

हाल ही में एक पारिवारिक शादी में बहुत सारी चर्चाओं के बीच एक चर्चा यह थी कि ऐसे आयोजनों में भोजन की बहुत बर्बादी होती है। शादी में आई एक महिला रिश्तेदार ने बताया कि कैसे परंपरागत तरीके से भोजन की बर्बादी से बचा जा सकता है।

उसने उदाहरण देकर समझाया कि बनिया समाज की शादी में अनिवार्य रूप से बनने वाली आलू की सब्जी का कैसे इष्टतम इस्तेमाल किया जा सकता है। उसके अनुसार, इसका सबसे सहज तरीका तो यह था कि मेहमान भोजन को बांटकर अगले दिन खाने के लिए घर ले जाते थे।

अगर इसके बाद भी सब्जी बच जाए तो उसे किण्वित (फरमेंटेशन) कर एक या दो अतिरिक्त दिनों के लिए संरक्षित किया जाता है। इसे आम बोलचाल में "खट्टा डालना" भी कहा जाता है। ऐसा करने के लिए सब्जी को पानी और लाल सरसों या राई के साथ मिलाया जाता है और मसाले डाले जाते हैं।

इसके दो से तीन दिन बाद आप इस चटपटे पेय का आनंद ले सकते हैं (देखें रेसिपी)। यदि आप थोड़ा कम पानी मिलाते हैं तो किण्वित सब्जी को गर्म चावल के साथ खाकर पूर्ण भोजन का आनंद ले सकते हैं।

फलों और सब्जियों की किण्वन प्रक्रिया में स्टार्च को लैक्टिक एसिड में बदलने के लिए लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (एलएबी) का उपयोग किया जाता है। यह एसिड एक प्राकृतिक प्रिजरवेटिव है और भोजन को खराब करने वाले बैक्टीरिया और कवक के विकास को रोकता है।

क्योंकि सब्जी पानी से ढंकी होती है इसलिए स्थितियां यह सुनिश्चित करती हैं कि केवल एलएबी सदस्य ही बढ़ें। इसमें केवल लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया ऑक्सीजन के बिना भी गुणात्मक रूप से अपनी संख्या बढ़ा सकते हैं। इस प्रक्रिया को लैक्टोफेरमेंटेशन कहा जाता है।

लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया के समूह में लैक्टोबैसिलस और स्ट्रेप्टोकोकस जैसे कई जीनस होते हैं। एलएबी अध्ययन किए गए पहले बैक्टीरिया में शामिल थे। 1873 में जब ब्रिटिश सर्जन जोसेफ लिस्टर ने पहली बार एक बैक्टीरिया को अलग करके उसका विकास किया।

उन्होंने उसे बैक्टेरियम लैक्टिस कहा पर अब इस लैक्टिक एसिड जीवाणु को लैक्टोकोकस लैक्टिस कहा जाता है। इसका उपयोग सैकड़ों डेयरी उत्पादों का उत्पादन करने के लिए दूध को किण्वित करने में किया जाता है। अब तक एलएबी समूह में 16 जीनस हैं, जिनमें से 12 हमारे भोजन से जुड़े हैं।

विविध उपयोग

किण्वन प्रक्रिया का उपयोग दुनिया के अन्य हिस्सों में सॉओरक्राट और किमची जैसे पारंपरिक व्यंजन तैयार करने में किया जाता है। भारतीय घरों में दही तैयार करने में रोजाना इसका इस्तेमाल होता है। इसके कई क्षेत्रीय उपयोग भी हैं, जैसे पश्चिम बंगाल में मसालेदार सरसों की चटनी कासुंडी और उत्तराखंड में दाल वड़ियां बनाने में किण्वन प्रकिया अपनाई जाती है। इस प्रक्रिया का उपयोग करके इडली और डोसा बैटर भी तैयार किया जाता है। यहां तक की खमीरी रोटी और जलेबी के बैटर को भी किण्वित किया जाता है। कच्चे खाने में पहले ही सूक्ष्मजीव मौजूद होते हैं और बस ठीक स्थिति में ये गुणात्मक ढंग से बढ़ जाते हैं। कई बार जैसे दही जमाने में जामन लगाना पड़ता है जिससे सूक्ष्मजीव आ जाते हैं।

किण्वन उपयोग अब चलन में है क्योंकि ये सूक्ष्मीजीव प्रोबायोटिक हैं और विभिन्न बीमारियों से बचाने के साथ-साथ आंत के स्वास्थ्य में सुधार कर सकते हैं। पारंपरिक भोजन को विशिष्ट स्वाद प्रदान करने वाले लाभकारी रोगाणुओं की पहचान के प्रयास हो रहे हैं। उदाहरण के लिए उत्तर भारत में सर्दियों के दौरान काली गाजर से तैयार कांजी का सेवन किया जाता है। इसके लिए गाजर को काटकर एक बर्तन में रखा जाता है और नमक व राई मिलाकर पानी भर दिया जाता है। एक दो दिन में खट्टी कांजी तैयार हो जाती है। दिल्ली के शोधकर्ताओं ने पाया था कि लैक्टोबिसिलस प्लांटेरम ने इसे अनोखा स्वाद प्रदान किया।

हालांकि, ज्यादातर मामलों में घर के किण्वित खाद्य पदार्थों को प्रोबायोटिक भोजन के रूप में मान्यता नहीं है क्योंकि ये इंटरनेशनल साइंटिफिक एसोसिएशन फॉर प्रोबायोटिक्स एंड प्रीबायोटिक्स (आईएसएपीपी), संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की परिभाषा पर खरे नहीं उतरते क्योंकि इनमें सटीक सूक्ष्मजीवों का पता नहीं होता और न ही उनके चिकित्सीय गुणों की जानकारी होती है। इन संस्थानों के मुताबिक, केवल उस खाने को प्रोबायोटिक माना जाता है जिसे फैक्टरी में निर्धारित सूक्ष्मजीवों और किण्वन प्रक्रिया से तैयार किया गया हो।

परिभाषा की कसौटी पर खरा न उतरने पर भी घर में किण्वित खाद्य पदार्थों की लोकप्रियता को कम नहीं हुई है। और न ही लोगों को इसका लाभ उठाने से रोका है। आयरलैंड के शोधकर्ताओं ने जून 2020 में जर्नल न्यूट्रिएंट्स में किण्वित खाद्य पदार्थों के लाभों पर शोधों की समीक्षा की। उन्होंने पाया कि विभिन्न अध्ययनों से संकेत मिलता है कि किण्वित उत्पादों का उपयोग हृदय रोग और टाइप 2 मधुमेह के विकास की आशंका को कम कर सकता है। किमची जैसे किण्वित खाद्य पदार्थों में मोटापा-रोधी और मधुमेह-रोधी प्रभाव होते हैं।

किण्वित खाद्य पदार्थ इन्फ्लेमेटरी बाउल डिसीज (आईबीडी) यानी आंतों की बीमारी को भी दूर करने में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं ने इन एलएबी से जुड़े दूध के कॉलेस्ट्रॉल कम करने और एंटी-कैंसर गुणों का भी अध्ययन किया है। हाल के कई अध्ययनों ने संकेत दिया है कि किण्वित खाद्य पदार्थों के सेवन से मानसिक स्वास्थ्य बेहतर हो सकता है।

किण्वन प्रक्रिया के दौरान लैक्टिक एसिड का बनना भोजन को खट्टापन प्रदान करता है और इसे अधिक स्वादिष्ट बनाता है। किण्वित खाद्य पदार्थों में औषधीय गुण होते हैं और ये पाचन क्रिया के लिए अच्छे होते हैं। इसका सेवन आपकी मदद करेगा, खासकर तब जब आप शादी में जरूरत से अधिक भोजन कर लेते हैं।

व्यंजन : आलू की सब्जी

सामग्री
  • आलू (उबले हुए) : 2
  • हींग : ¼ चम्मच
  • जीरा : आधा चम्मच
  • धनिया पाउडर : आधा चम्मच
  • हल्दी पाउडर : आधा चम्मच
  • मिर्च पाउडर : आधा चम्मच
  • देसी घी : एक चम्मच
  • नमक : स्वादानुसार

विधि: एक लोहे ही कड़ाही को गर्म कर उसमें घी, हींग और जीरा डालकर उसे चटकने तक पकाएं। इसमें छिले व मसलू हुए आलू को हल्दी, धनिया, मिर्च पाउडर, नमक के साथ अच्छे से मिलाकर डाल दें। अब अपने हिसाब से एक या दो कप पानी मिलाकर सब्जी तैयार कर लें।

किण्वित पेय

सामग्री
  • बची हुई आलू की सब्जी : 1 कटोरी
  • राई : एक चम्मच
  • पानी : 5 गिलास
  • नमक : स्वादानुसार

विधि: आलू की सब्जी को एक कांच के जार में निकालकर पानी मिला दें। पानी को अच्छे से मिलाएं और नमक डाल दें। इसमें अब राई डालकर दोबारा मिलाएं। फिर जार को बंद करें और हल्की धूप वाली जगह पर रख दें। दो दिनों के बाद इसे देखें और यदि स्वाद पर्याप्त खट्टा है तो पेय सेवन के लिए तैयार है।

पुस्तक

यह किताब दक्षिण एशिया खासकर मुगलकालीन भारत के भूले-बिसरे भोजन का दस्तावेज है।

इतिहासकारों, विद्वानों, वनस्पति विज्ञानी, खानसामों और लेखकों आदि ने इन किताब में मध्यकालीन भारत के व्यंजनों की विस्तृत जानकारी साझा की है।