खान-पान

ग्राउंड रिपोर्ट, सरकारी राशन का सच: राशन कार्ड है पर फिर भी नहीं मिल रहा पूरा राशन

जिन लोगों के पास राशन कार्ड है, उन्हें भी पूरा राशन लेने के लिए राशन डिपो धारक पर निर्भर रहना पड़ रहा है

Himanshu Nitnaware

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत एक निश्चित आबादी को खाद्य सुरक्षा का अधिकार दिया गया है, लेकिन यह अधिकार क्या वाकई हकदार तक पहुंच रहा है। डाउन टू अर्थ की इस खास सीरीज में यही जानने की कोशिश की जा रही है। अब तक आप जमीनी सच्चाई कहती चार कड़ियां पढ़ चुके हैं। पहली कड़ी - ग्राउंड रिपोर्ट, सरकारी राशन का सच: सात साल से कर रहे हैं राशन का इंतजार । दूसरी कड़ी- ग्राउंड रिपोर्ट, सरकारी राशन का सच: बेस्वाद चावल से पेट भर रहे हैं आदिवासी । तीसरी कड़ी - ग्राउंड रिपोर्ट, सरकारी राशन का सच: कार्ड न होने के कारण अनाज ही नहीं, इलाज से भी वंचित हैं लोग । चौथी कड़ी - ग्राउंड रिपोर्ट, सरकारी राशन का सच: बीमार बेटी और दामाद के राशन कार्ड के लिए भटक रही है वृद्धा । पढ़ें अगली कड़ी-   

राजस्थान के जैसलमेर से लगभग 15 किमी दूर बारामसर गांव की 62 वर्षीय विधवा देवकी के पास बीपीएल कार्ड है, लेकिन उसे केवल 10 किलो राशन ही मिलता है। वह कहती है कि क्योंकि राशन डिपो में मेरे फिंगरप्रिंट का मिलान नहीं हो पाता, इसलिए मुझे 40 किलो राशन नहीं दिया जाता।

वह जैसलमेर जाकर अधिकारियों के दरवाजे भी खटखटा चुकी है, लेकिन कुछ नहीं हुआ। वह अकेले बार-बार आना-जाना नहीं कर सकती और अगर किसी से साथ चलने को कहती हूं तो वे पैसे मांगते हैं। देवकी जैसे बुजुर्ग वृद्धावस्था में बाहर जाकर मजदूरी नहीं कर सकते, इसलिए सरकार का राशन ही उनके जीने का एकमात्र जरिया बन जाता है।

वह कहती हैं,“मुझे कोई काम भी नहीं मिलता। गांव में मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है। पड़ोसी कभी-कभार राशन के लिए मदद करते हैं। जितना राशन मिलता है, उसे बचाने के लिए महीने में कम से कम चार दिन केवल एक बार खाना खाती हूं।"

बारामसर गांव के रहने वाले नरपतराम राशन लाभार्थियों में अपना नाम दर्ज कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह कहते हैं, "मैं 2016 से सरकारी राशन लेने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन संबंधित अधिकारियों का कहना है कि वे मेरी मदद के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं।

रोजाना 300 रुपये कमाने वाले दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने वाले नरपतराम कहते हैं कि जिले के अधिकारियों का जवाब होता है कि अब वे किसी और लाभार्थी को राशन सूची में नहीं जोड़ सकते। उन्होंने सरकारी वेबसाइट ई-मित्रा पर पंजीकरण भी कराया है, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि सूची में उनका नाम तभी जोड़ा जा सकता है, जब कोई अन्य बाहर हो जाए।

नरपतराम कहते हैं कि अधिकारियों का यह जवाब उन्हें मुश्किल में डाल देता है क्योंकि वह जानते हैं कि जो लोग राशन ले रहे हैं, वे सब जरूरतमंद हैं और उनके गांव से हैं। वह कहते हैं, "मैं उनकी स्थिति जानता हूं, लेकिन सरकार को कोटा बढ़ाना चाहिए ताकि हम सभी को राशन मिल सके।"

हालांकि, इस व्यवस्था में कुछ खामियां भी हैं, जिन लोगों को लाभ मिल रहा है, उनमें से कई गरीबी रेखा से ऊपर हैं और अभी भी राशन प्राप्त कर रहे हैं। उसी गांव के छत्ताराम और ग्राम पंचायत सदस्य कहते हैं, “गांव में जमीन रखने वाले लोगों को मुफ्त राशन मिल रहा है, लेकिन विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के समुदाय के सदस्य सूचीबद्ध नहीं हैं। उच्च जाति के लोगों और अधिकारियों के बीच स्पष्ट सांठगांठ है।"

इसके अलावा दस्तावेज उपलब्ध कराने में देरी करने वाले लोगों के नाम भी राशन सूची में शामिल नहीं हो पाते। छत्ताराम का कहना है कि करीब छह महीने पहले अधिकारियों ने बैठक कर कितने लोगों को लाभ नहीं मिल रहा है, इसका सर्वे कराया था। यहां तक कि स्थानीय विधायक रूपाराम ने भी शिविर के दौरान अधिकारियों से मुलाकात की। लेकिन तब से कुछ भी नहीं हुआ है और न ही कोई आश्वासन दिया गया है।

फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफईएस) के एक स्वयंसेवक माघरम का कहना है कि ऐसे ग्रामीणों के लिए मुफ्त गेहूं इन लोगों के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है। वह बताते हैं, “पश्चिमी राजस्थान और उसके सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाली 90 प्रतिशत से अधिक आबादी अपने अस्तित्व के लिए पीडीएस और अन्य सरकारी योजनाओं पर बहुत अधिक निर्भर है। इसका कारण यह है कि ये लोग मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर और अन्य दैनिक मजदूरी के रूप में भूमिहीन काम कर रहे हैं।

मघराम का कहना है कि भौगोलिक परिस्थितियों के चलते किसान साल में केवल एक फसल ही ले पाते हैं। जिसके चलते किसानों की आय कम होती है। इसके अलावा, क्षेत्र में भीषण गर्मी के कारण गर्मियों के कारण लोग मजदूरी भी नहीं कर पाते। कुछ लोग पलायन कर जाते हैं लेकिन उनके परिवार अभी भी दूर-दराज के गांवों में रहते हैं जहां रोजगार के कोई अवसर नहीं हैं।

उनके पास आमदनी का एकमात्र जरिया महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) है, मनरेगा में भी उन्हें काम नहीं मिल पा रहा है। इसलिए ऐसे लोगों को तुरंत पीडीएस की सूची से जोड़ने की जरूरत है ताकि वे कम से कम अपना पेट भर सकें।

पेट भरने के अलावा बुनियादी ज़रूरतों को भी पूरा करना होता है। एक मजदूर, तीस वर्षीय सत्ताराम का कहना है कि अगर उन्हें पीडीएस के माध्यम से मुफ्त खाद्यान्न मिलता है, तो वे अपने बच्चों की शिक्षा का ध्यान रख सकते हैं। वह कहते हैं, “मैं अपनी सारी कमाई अनाज और किराने का सामान ख़रीदने में ख़र्च कर देता हूँ। मैं एक महीने में 15,000 कमाता हूं जो नियमित आय नहीं है जिस पर छह लोगों का परिवार निर्भर करता है। जैसा कि मैं पीडीएस से लाभ लेने में असमर्थ हूं, मुझे केवल कुछ किलो गेहूं खरीदने के लिए रोजाना ज्यादा घंटे काम करना पड़ता है।

राजस्थान के विभिन्न जिलों में यात्रा के दौरान डाउन टू अर्थ ने पाया कि जो ग्रामीण सरकारी राशन नहीं ले रहे हैं और अपना नाम जुड़ने का इंतजार कर रहे हैं, उन्हें दही या प्याज के साथ गेहूं या बाजरे की रोटी खाकर पेट भरना पड़ रहा है।