पिलखन के पेड़ दिल्ली के स्थानीय पेड़ों में एक है और यह शहर की शुष्क और कठोर स्थितियों में भी आसानी से विकसित हो जाता है। दक्षिण दिल्ली के नेहरू प्लेस के करीब स्थित आसफ अली पार्क, अरावली रेंज पर बना हुआ है और यहां इस इलाके कि असली जैवविविधता के निशान अब भी मौजूद हैं। इस पार्क में पिलखन का एक विशाल पेड़ है, जो घास की ढलानों और चट्टानी पत्थरों के बीच शान से खड़ा है। यह सुबह की सैर करने वालों के लिए स्वर्ग बन गया है। कई लोग पेड़ की छांव में बेंचों पर आराम करते हुए मिल जाते हैं। पर ये लोग इस बात से बेखबर है कि इस पेड़ की पत्तियां संभावित भोजन हैं।
पिलखन (फाइकस वायरेंस) एक पर्णपाती पेड़ है। फरवरी के आसपास इसकी पत्तियां झड़ जाती हैं और अप्रैल के करीब इसमें नई पत्तियां उग आती हैं। पेड़ की बंद नई पत्तियां थोड़ी खट्टी होती हैं और इसका इस्तेमाल पौष्टिक सब्जी के रूप में किया जा सकता है या इसका अचार बनाया जा सकता है (व्यंजन देखें)। हालांकि, देश के कई आदिवासी समुदाय इसे खाते हैं, मगर लिखित में इसके बारे में बहुत अधिक दर्ज नहीं किया गया है।
भारत के अलावा दक्षिण पूर्वी एशियाई क्षेत्र के अन्य देशों में भी इसकी पत्तियों का उपयोग भोजन के रूप में किया जाता है। म्यांमार में इसका उपयोग मटर और बींस के साथ सूप बनाने में या फिर आलू का सूप तैयार करने में किया जाता है। नई कोपलों को थाईलैंड में फाक लुएट कहा जाता है और उन्हें उबाल कर करी में उपयोग किया जाता है। ये पत्तियां इतने कम समय के लिए उपलब्ध होती हैं कि साल में सिर्फ एक या दो बार ही इसका सेवन किया जा सकता है। हालांकि, बाद में इस्तेमाल करने के लिए पत्तियों को सुखाकर रखा जा सकता है, लेकिन ऐसा होता नहीं है। इस पेड़ को सफेद अंजीर, पाकड़ (हिंदी) बसारी (मराठी), कुरुगट्टी (तमिल), चेराला (मलयालम) और पेपरी (गुजराती) के नाम से भी जाना जाता है। इन पत्तों में फिनोल और फ्लेवोनोइड भारी मात्रा में पाए जाते हैं।
जर्नल बायोकेटलाइसिस एंड एग्रीक्लचरल बायोटेक्नोलॉजि में सितंबर 2022 में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि पिलखन के पत्तों के सेवन से ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस के कारण होने वाली डीएनए क्षति को रोका जा सकता है। जर्नल फूड एंड केमिकल टॉक्सीकोलॉजी के दिसंबर 2017 अंक में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि इसकी पत्तियों, फूलों और तनों में प्रोएंथोस्यानिडिन मौजूद होते हैं, जो एनिमल मॉडल में स्तन कैंसर को घटा सकते हैं। उसी तरह जर्नल ऑफ फार्माकोग्नॉसी एंड फाइटोकेमेस्ट्री जो मई 2016 में प्रकाशित हुआ था, इसमें बताया गया है कि पत्तों से अलग किए गए यौगिक, कॉक्साकी बी4 और हेपेटाइटिस-ए जैसे वायरस को रोक सकते है। यह पत्ते डायबिटीज में भी लाभकारी हैं।
खाने के रूप में इसके पत्तों के इस्तेमाल के बारे में नहीं के बराबर जानकारियां हैं और ऐसा तब है जब ये पेड़ दुनियाभर में फैले हुए हैं। फाइकस, मोरेसी परिवार की सबसे बड़ी प्रजाति है। इस परिवार में 40 वंश और 1,100 प्रजातियां पाई जाती हैं जो विश्व भर में फैली हुई हैं। इनमें से 91 प्रजातियां सिर्फ भारत में पाई जाती हैं। इस पेड़ की प्रजातियों में सबसे अधिक विविधता पूर्वोत्तर और प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में दिखती है। अकेले मेघालय में इसकी 43 प्रजातियां मौजूद हैं। ये पेड़ पक्षियों, चमगादड़ और वानरों को भोजन और ठिकाना मुहैया कराते हैं, इसलिए इन्हें कीस्टोन जीनस माना जाता है। इस तरह ये जैवविविधता के संरक्षण में मदद करते हैं। कई हिस्सों में इसकी कई प्रजातियों का धार्मिक महत्व भी है और इसी वजह से उन्हें सुरक्षित रखा जाता है। इनमें पीपल और बरगद भी शामिल है, जिसे हिन्दू और बौद्ध धर्म में पवित्र माना जाता है।
पिलखन के पत्तों के मुकाबले इसकी छाल के इस्तेमाल के संबंध में आधिकारिक दस्तावेजीकरण मिलता है। जैसे जुलाई 2014 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ फार्माक्यूटिकल साइंस रिव्यू एंड रिसर्च में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि 10 प्रतिशत छाल का अर्क घाव भरने की प्रक्रिया में तेजी ला सकता है क्योंकि इससे घाव सिकुड़ता है। छाल के अर्क का इस्तेमाल कुल्ला करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि इससे मसूड़ों की सेहत अच्छी होती है। आयुर्वेद में छाल का उपयोग नालपामारम समूह के योगों में किया जाता है, जिसका उपयोग चर्म रोगों के इलाज के लिए किया जाता है। इसमें त्वचा को बेहतर बनाने के लिए नालपामरदी तैलम और एक्जिमा जैसे त्वचा रोगों के इलाज के लिए सारिबद्यासवम बनाने की विधियां शामिल हैं। पिलखन के गोल और मटर के आकार के फूल में भी औषधीय गुण भी होते हैं। इन फूलों का इस्तेमाल जैम बनाने में किया जाता है, जो अपच और हृदय-संबंधी रोगों में मददगार होते हैं। पेड़ से निकलने वाले सफेद रंग के तरल पदार्थ को घावों पर लगाने से आराम मिलता है।
यद्यपि ये पेड़ सामान्य तौर पर वर्षाहीन क्षेत्रों में उगते हैं, लेकिन ये ठहरे पानी में भी जीवित रह सकते हैं। यह देखा गया है कि नमी वाले इलाकों में ये पेड़ ज्यादा लम्बे होते हैं। भूदृश्य बनाने के लिए इसे एक बढ़िया विकल्प माना जाता है क्योंकि यह धूप और छांव दोनों जगह विकसित हो जाता है।
पिलखन का ताल्लुक स्ट्रैंगलर फिग नामक समूह से है क्योंकि इसके बीज दूसरे पेड़ों पर अंकुरित हो सकते हैं और बड़े होकर मेजबान पेड़ को खत्म कर सकते हैं। इसकी मजबूती एक कारण है कि इस पेड़ का उपयोग बोनसाई उगाने के लिए भी किया जाता है। बरगद के पेड़ की हवाई जड़ें पेड़ को वानस्पतिक रूप से फैलने में मदद करती हैं जबकि पिलखन की हवाई जड़ें मुख्य तने के चारों ओर लिपटी रहती हैं, जो बोनसाई को एक अलग रूप देती है।
व्यंजन - पिलखन के पत्तेसामग्री
विधि: कली के सख्त हिस्से को हटाएं। कड़ाही में थोड़ा पानी लें और उसमें एक चम्मच नमक मिलाकर उबालने के लिए कड़ाही को गैस पर चढ़ाएं। इसके बाद उसमें कलियां डालकर नरम होने तक पकाएं। फिर सारा पानी निकाल दें। इसके बाद चूल्हे पर कड़ाही चढ़ाएं और उसमें तेल डाएं। तेल गर्म हो जाए, तो उसमें हींग और जीरा डाल दें तथा तब तक भूनें, जब तक चटकने न लगे। अब उबली हुई कलियां, मिर्च पाउडर, धनिया पाउडर, हल्दी और नमक डाल दें। अच्छे से मिलाएं। फिर बेसन डालें और दोबारा मिलाएं तथा पकने तक फ्राई करें। पराठा या रोटी के साथ इसे खाएं। |
पुस्तक:
द पॉवर फूड डाइट लेखक: डॉ. नील बरनार्ड पृष्ठ: 352 मूल्य: 2,520 रुपए वजन कम करना हमारी शीर्ष स्वास्थ्य चिंताओं में से एक है। कुछ खाद्य पदार्थ वजन घटाने में उपयोगी हो सकते हैं। |