खान-पान

फोर्टिफाइड चावल के एनीमिया और कुपोषण दूर करने के सरकारी दावों पर क्यों उठ रहे हैं सवाल

Rohin Kumar

भारत की आजादी के 75वें वर्षगांठ पर, लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुपोषण दूर करने के लिए हर एक गरीब आदमी, महिलाओं और बच्चों तक जरूरी पोषण पहुंचाने के लिए फोर्टिफाइड चावल पहुंचाने की घोषणा की।

उन्होंने कहा कि महिलाओं और बच्चों के विकास में  ज़रूरी पोषण की कमी विकास के रास्ते में एक बड़ी रुकावट है। इसलिए राशन की दुकान, मीड-डे मिल और वर्ष 2024 तक हर योजना के माध्यम से मिलने वाला चावल फोर्टिफाइड कर दिया जाएगा।

नीति आयोग के अनुसार, चावल को फोर्टिफाई न सिर्फ सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है बल्कि वैज्ञानिक और टिकाऊ भी है। हालांकि आयोग यह भी मानता है कि फोर्टिफाइड चावल ‘शॉर्ट टर्म’ (तात्कालिक) व्यवस्था होनी चाहिए। लंबे समय में हर नागरिक तक विविध आहार पहुंचाने से ही समावेशी तरीका साबित होगा। 

देश के पंद्रह राज्यों (एक जिला प्रति राज्य) में 174.64 करोड़ रुपये की पायलट योजना साल 2019-20 में शुरू हो चुकी है। पूरी योजना का खर्च 2700 करोड़ प्रति वर्ष आने का अनुमान है।

योजना के मुख्य लक्ष्यों में एनीमिया के मामलों को कम करना बताया गया है। इसके लिए चावल में आयरन मिलाने की योजना है, लेकिन विशेषज्ञों को संशय है कि फोर्टिफिकेशन से एनीमिया पर कुछ खासा प्रभाव पड़ेगा। उनके संशय को राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण 2016-18 से बल मिलता है। सर्वेक्षण के मुताबिक आयरन की कमी एनीमिया के आधे से भी कम मामलों के लिए जिम्मेदार थी। जबकि एनीमिया की रोकथाम के लिए आहार में विटामिन, प्रोटीन जैसे पौष्टिक तत्वों को शामिल किए जाने की बात कही गई थी। 

फोर्टिफिकेशन का वैज्ञानिक आधार?

ग्रीनपीस इंडिया ने इन कुछ सवालों को केंद्र सरकार की अलग-अलग एजेंसियों से सूचना के अधिकार, 2005 (आरटीआई) के अंतर्गत कुछ सवालों के जवाब मांगे।

फोर्टिफिकेशन के पायलट प्रॉजेक्ट को मंज़ूरी देने का आधार क्या रहा? उपभोक्ता एवं खाद्य मंत्रालय ने जवाब दिया, “नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे- 4 को ध्यान में रखते हुए इस योजना को तीन सालों के लिए मंजूरी दी गई है, जिसकी शुरुआत साल 2019-20 से हुई है।”

बताया गया कि इस पायलट स्कीम के तीसरे साल यानि 2021-22 में थर्ड पार्टी द्वारा इसका मूल्यांकन किया जाएगा। साथ ही, चावल के फोर्टिफिकेशन की योजना जिन राज्यों द्वारा लागू (पायलट) की गई है उन्हें अपने स्वास्थ्य विभाग के साथ मिलकर अध्ययन करना होगा। हालांकि अब तक कोई भी सर्वेक्षण या आंकड़ा उपलब्ध सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है।

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च को भेजे गए आरटीआई में पूछा गया कि क्या उन्होंने केमिकली फोर्टिफाइड फूड का लोगों पर ख़ासकर गर्भवती महिलाओं, नई मांओं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों, कुपोषित और कमज़ोर बच्चों पर होने वाले असर से संबंधित कोई अध्ययन किया है। इस बाबत आईसीएमआर ने स्पष्ट कहा कि उन्होंने इस संबंध में कोई अध्ययन नहीं किया है।

हालांकि, आईसीएमआर ने एक रोचक जानकारी दी कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों में 5-11 साल के बच्चों पर एक नियंत्रित अध्ययन (डबल ब्लाइंड रैंडमाइज्‍ड सर्वे) जरूर किया था, जिसमें बच्चों को मिड-डे मील के तहत फोर्टिफाइड चावल दिया गया था। अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि आयरन फोर्टिफाइड चावल का एनीमिया में सुधार पर मिड-डे मील जैसा ही असर पड़ता है। इससे सरकार की इस धारणा पर जरूर सवाल उठते हैं कि फोर्टिफाइड चावल एनीमिया को खत्म करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन की पूर्व डिप्टी डायरेक्टर डॉ. वीणा शत्रुघ्ना के मुताबिक़ सरकार ने फोर्टिफिकेशन की योजना में मेडिकल साइंस को तवज्जो नहीं दिया है। उनके अनुसार, “कोई भी एक अनाज या आहार सभी पोषक तत्वों का स्रोत नहीं हो सकता। केंद्र की फोर्टिफिकेशन योजना के तहत चावल में विटामिन बी12, आयरन और फोलिक एसिड मिलाया जाना है। यह फोर्टिफिकेशन इस सोच के साथ किया जा रहा है कि सबको एक ही तरह के पोषण की ज़रूरत है जो कि वैज्ञानिक रूप से गलत है। हर किसी को एक ही मात्रा में माइक्रोन्यूट्रिएंट (सूक्ष्म पोषक तत्वों) की ज़रूरत नहीं होती है। शरीर में किन पोषक तत्वों की कमी है, उसे चिन्हित कर शरीर में जरूरी पोषक तत्वों की कमी को पूरा किया जाता है।”

उन्होंने बताया कि एनीमिया, भुखमरी और कुपोषण का समाधान केवल पोषक तत्व जैसे अलग-अलग तरह के आहार – दाल, फल, अनाज और मांस से मिलने वाले पोषक तत्वों को शामिल कर किया जा सकता है न कि फोर्टिफिकेशन जैसी योजना के ज़रिये। फोर्टिफिकेशन के ज़रिये चावल में आयरन मिलाए जाने से शरीर के अंदर ज़रूरत से ज्यादा आयरन की मात्रा पहुंच सकती है जो कि किसी के स्वास्थ्य के हानिकारक साबित हो सकता है।

पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट डॉ. सिल्विया कारपगम कहती हैं, “फोर्टिफिकेशन से भारत में कुपोषण की समस्या का हल नहीं होगा। स्वदेशी फसलों और आहार में विविधता को बढ़ाने के लिए बाजरे और अंडें और मांस को भी मीड डे डील और दूसरे लोक कल्याण की योजनाओं में शामिल करने पर विचार करना चाहिए।” कारपगम ने चेताया कि चावल को फोर्टिफाई करने से सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि बाहरी उद्योगपतियों के लिए भी मुनाफे का बाज़ार खोलने जैसा है। 

जैव विविधता है विकल्प

फोर्टिफिकेशन के विकल्प के तौर पर सरकारें क्या कर सकती हैं? ग्रीनपीस इंडिया के सीनियर कैंपेनर इश्तियाक अहमद कहते हैं, “कुपोषण और एनीमिया जैसी समस्या का सही इलाज आहार विविधता है। चावल और गेहूं पर पूरी निर्भरता की जगह मिलेट्स, दालें, मौसमी और स्थानीय फल-सब्ज़ियां और कंद मूल को भोजन श्रृंखला में शामिल करना एक स्थाई समाधान है।” 

मोहन चंद्र बोरा पूर्वोत्तर क्षेत्र में धान की किस्मों को सरंक्षित करने का काम करते हैं। वे “अन्नपूर्णा” नाम की लाइब्रेरी के संस्थापक और संरक्षक भी हैं। इस लाइब्रेरी का लक्ष्य स्थानीय बीजों को संरक्षित कर उनका प्रचार करना है। आज मोहन चंद्र बोरा के पास 250 से अधिक अलग-अलग किस्म के बीज मौजूद हैं, जिनमें से ज्यादातर उत्तर-पूर्व के ही हैं।

वह बताते हैं कि हाइब्रिड बीजों के अधिक इस्तेमाल से स्थानीय बीजों का इस्तेमाल न के बराबर रह गया है। चावल के फोर्टिफिकेशन की योजना से कुपोषण से लड़ने में कोई मदद मिलेगी इसकी संभावना कम है। हमारे देश में चावल की हजारों वैरायटी है। उन चावलों में अलग-अलग पोषण तत्व हैं। वे हमारे जलवायु के लिए भी अच्छे हैं। हमारे पूर्वोत्तर में धान की ऐसी किस्में भी हैं जो बाढ़ झेल जाती हैं। सूखे में भी फसल खड़ी रहती है। उन धानों का प्राकृतिक चरित्र ही ऐसा है। सरकारों को इन चीजों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर सेमी एरिड टॉपिक्स (ICRISAT), यूनिसेफ, ऑर्गनाइज़ेशन ऑर अडवांस्ड इंटिग्रेटेड रिसर्च, कोब यूनिवर्सिटी जापान और अक्षय पात्रा, बंगलुरु द्वारा मिड-डे मील पर मिलकर की गई एक सामूहिक  स्टडी भी जैव विविधता के महत्व पर जोर देती है। इस अध्ययन के अनुसार, “चावल के मुकाबले अगर मिड-डे मील में अगर जौ, बाजरा, जुआर अगर शामिल किया जाए तो यह स्कूल जानेवाले बच्चों को मिल रहे पोषण की गुणवत्ता को बहुत बेहतर कर सकता है।”