खान-पान

मांसाहार छोड़ शाकाहार अपनाने से भारतीयों में बढ़ी बीमारियां: मानोशी

Rohini Krishnamurthy

समय के साथ खानपान की आदतों में आए बदलाव ने हमारे पोषण के स्तर को प्रभावित किया है। विभिन्न धर्मों के प्रभाव से भी भारतीय मांसाहार से शाकाहार की तरफ आकर्षित हुए हैं। औपनिवेशिक शासनकाल में पोषणयुक्त भोजन के स्थान पर स्वादिष्ट भोजन हमारे जीवन का हिस्सा बन गया। इस परिवर्तन के चलते अच्छी सेहत और लंबी उम्र के साथ ऊंचे कद, छरहरे बदन वाली नस्ल के तौर पर मशहूर भारतीय अब मोटापे और बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। खाद्य इतिहासकार और चिकित्सक मानोशी भट्टाचार्य ने रोहिणी कृष्णमूर्ति को बताया कि कैसे हमारी आहार संस्कृति में बदलाव आया। बातचीत के अंश - 

आपने बीते 2,000 साल के भारतीय आहार पर अध्ययन किया है। क्या अतीत में पहले कभी खाने के मुद्दे पर राजनीतिक या सार्वजनिक तौर पर गंभीरता से ध्यान दिया गया है?

हमारे पूर्वज बड़े पैमाने पर मध्यपाषाण कालीन (8,000-2,700 ईसा पूर्व) किफायती खाने की अवधारणा का पालन करते थे, जिसमें सब्जियां और मांस शामिल था। भारत में खाने की कुल खपत सीमित थी, साथ ही उपवास के भी अलग-अलग दिन थे। वनस्पतियों और पशुओं की मांग कम थी।

हालांकि, इसमें कुछ असामान्यताएं भी दिखती हैं। 500 ईसा पूर्व में जब जैन धर्म का उदय हुआ, तो इसके अनुयायी शाकाहारी हो गए। यह अमीरों और कुलीनों की पसंद थी, जो शाकाहार को अपनाकर किफायती खाना खा सकते थे। उस समय यह लोकप्रिय नहीं था।

जैन आज एक अल्पसंख्यक समुदाय में आते हैं, जबकि इनमें से अधिकतर ने हाल ही में धर्म परिवर्तन किया है। बौद्ध धर्म में भी कुछ ऐसा ही दिखता है।

बुद्ध मांस खाते थे। दुनियाभर में बौद्ध आज भी मांस खाते हैं। लेकिन जब ह्वेन त्सांग (एक चीनी बौद्ध भिक्षु और विद्वान) 630 ईसवीं में भारत आया तो वह जानकर चौंक गया कि भारतीय बौद्ध शाकाहारी हो गए हैं। वे मठों में दिन में कई बार बड़े चाव से खाना खाते थे और दिनभर चावल का माढ़ पीते रहते थे।

600 ईसा पूर्व में हरियाणा पर शासन कर रहे सम्राट हर्षवर्धन ने शाकाहार लागू करने की कोशिश की। लेकिन, वह सफल नहीं हुआ। इसी समय गांधार (अब अफगानिस्तान) के राजा मेघवाहन, जिन्होंने कश्मीर पर शासन किया, ने भी शाकाहार शुरू करने का असफल प्रयास किया।

व्यापार और प्रवासन हमारी आहार संबंधी आदतों में कैसे बदलाव ले आए?

इंसान जहां भी यात्रा करते हैं, अपना भोजन अपने साथ ले जाते हैं। वह नए-नए तरह का भोजन भी खाते हैं, जो समय के साथ उनके आहार का हिस्सा हो जाता है।

उदाहरण के लिए लगभग 80,000 साल पहले अफ्रीका के लोग भारत में आकर बस गए थे और हमारे भोजन पर इसका भी असर पड़ा। बैंगन मूल रूप से भारत का है। जब पश्चिम एशिया से मेसोपोटामिया के लोग सिंधु घाटी में हड़प्पा सभ्यता का दौरा करते थे, तब तला हुआ बैंगन खाते थे।

साथ ही इसे अपने घर ले जाते थे और इसमें दही डालकर खाते थे। आज इसे ईरानी “भुरानी बैंगन” कहा जाता है। मेसोपोटामिया के लोगों का चावल से परिचय भी शायद हड़प्पा के लोगों ने ही कराया था। मेसोपोटामिया में प्याज की खेती हुई।

बिरयानी बनाने के लिए पुलाव में प्याज डालने का काम भी हड़प्पा या मेसोपोटामिया में हुआ। जमीन के जरिए जुड़े इन लोगों ने अपनी पहचान बनाए रखते हुए अपने व्यंजनों को एक-दूसरे से साझा किया।

क्या ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का हमारे आहार पर कोई प्रभाव पड़ा?

ब्रिटिश शासन ने मांस और मछली पर टैक्स बढ़ाकर अप्रत्यक्ष तौर पर लोगों को शाकाहार के लिए मजबूर किया। उन्होंने वनों, साझी भूमि, नदियों और समुद्रों पर पूरी तरह से नियंत्रण हासिल करने के लिए 1865 का वन अधिनियम पेश किया।

इसने वनवासियों और आदिवासी समुदायों को काम की तलाश के लिए बाहर निकलने को मजबूर किया। अंग्रेजों ने उन्हें भुगतान के तौर पर अनाज दिया, जो उनके आहार का हिस्सा नहीं था। कृषि उपज और जानवरों पर भारी टैक्स लगाया जाता था, जिससे आम लोगों के लिए उन्हें हासिल करना मुश्किल हो जाता था।

लोग त्योहारों के दौरान अपने देवताओं के लिए बलि नहीं दे सकते थे। ऐसे में, उन्होंने पूरी तरह से मांस त्याग दिया। औपनिवेशिक शासन के 200 वर्षों के दौरान अनाज और जंगली पौधे चुपके से प्रमुख भोजन बन गए। अकाल स्थायी समस्या बन गया और पोषक तत्वों की कमी की भरपाई के तौर पर नए-नए मसालेदार, स्वादिष्ट व्यंजन बनाए गए। हम आज जिन प्रसिद्ध भारतीय व्यंजनों की बात करते हैं, वे सभी “अकाल के व्यंजन” हैं।

आज 70 फीसदी भारतीय मांस, मछली या अंडे खाते तो हैं, लेकिन कभी-कभार या फिर बहुत कम। यह अतीत का एक ऐसा बदलाव है, जो दिखाता है कि हम आज तक अपनी उसी उपनिवेशवादी मानसिकता के साथ जी रहे हैं।

आपके शोध से पता चलता है कि शुरुआती पैस्टोरल पीरियड में उच्च फाइबर वाला भोजन खाया जाता था, लेकिन 1947 के बाद से धीरे-धीरे इसमें बदलाव आया और कम फाइबर, कम वसा और कम प्रोटीन वाला भोजन खाया जाने लगा। यह कैसे हुआ?

खासकर हरित क्रांति के बाद हमारी फसलें अपने अधिकतर फाइबर तत्व खो चुके हैं। भोजन मुलायम और अधिक स्वादिष्ट हो गया है, यह बदलाव अभी भी जारी है। श्वेत क्रांति के बाद दूध की खपत बढ़ गई है, यह इकलौता पशु उत्पाद है, जिसमें कार्बोहाइड्रेट होता है।

अब हम पालतू जानवरों का मांस भी खाते हैं और यह काफी महंगा होता है। 1900 के दशक में आक्रामक विज्ञापन के जरिये वसा की खपत को जानबूझकर कम किया गया था। इसमें इस विचार को फैलाया गया कि वसा सेहत के लिए ठीक नहीं है और कृषि उत्पाद स्वास्थ्य के लिए बेहतर हैं।

आज भारतीय शाकाहारी लोग सब्जियां नहीं खाते हैं। वे गेहूं, चावल, दाल, दुग्ध उत्पाद, आलू और मिठाई खाते हैं। वे करेला, लौकी, बैंगन या साग नहीं खाते। ज्यादा से ज्यादा थोड़ी भिंडी खा लेते हैं। बल्कि, इनकी जगह वे फ्रुक्टोज से भरे फलों का सेवन करते हैं।

आपने आहार, डायबिटीज और ऐतिहासिक आंकड़ों के बीच संबंधों पर भी गौर किया है। क्या अतीत से कोई सुराग मिलता है?

भारत की स्वतंत्रता और उसके बाद हुईं हरित व श्वेत क्रांतियों ने बहुत कम समय में डायबिटीज में काफी बढ़ोतरी कर दी। “डायबिटीज: द बायोग्राफी” में रॉबर्ट टैटरसाल लिखते हैं, “इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि डायबिटीज भारतीय अमीरों की बीमारी है। भारतीय अनुभवों से पता चलता है कि मानसिक कार्य के साथ कार्बोहाइड्रेट और चीनी के अत्यधिक सेवन व पूरी तरह से शारीरिक श्रम रहित जिंदगी इसके बढ़ने की वजहें हैं। यह बंगाली बाबुओं (अंग्रेजी लिख सकने वाले क्लर्क) के लिए निश्चित तौर पर सही था, जिनकी कमर का घेरा उनके वेतन में बढ़ोतरी के अनुपात में साथ-साथ बढ़ता जाता था।”

चिकित्सक सीएल बोस ने 1907 में इसके ठीक विपरीत लिखा, “हिंदू विधवाओं को डायबिटीज की समस्या लगभग नहीं होती। ये सबसे अधिक उत्साहहीन जिंदगी बिताती हैं और सैकरीन या कार्बोहाइड्रेट वाले दूसरे खाद्य पदार्थों का ज्यादा सेवन नहीं करती हैं। इसीलिए इतिहास काफी महत्वपूर्ण है।”

आप सीमित मात्रा में मांसाहार की वकालत करती हैं। कई दूसरे लोग शाकाहार को बढ़ावा देते हैं। आप इस बहस को कैसे देखती हैं?

शाकाहारी होना तभी तक ठीक है, जब तक कोई किफायत के साथ भोजन करता है। शाकाहार अपनाने वाले भारतीय दिन में सिर्फ एक ही बार भोजन करते थे। वे महीने में कई दिन उपवास पर भी रहते थे और नाश्ता तक नहीं करते थे। अगर हम 100 ग्राम कच्ची दाल की तुलना 100 ग्राम कच्चे मांस से करें, तो दोनों में 20 ग्राम प्रोटीन होता है। लेकिन, 100 ग्राम कच्ची दाल में 46 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होगा, जो रक्त शर्करा में बदल जाता है और व्यक्ति को डायबिटीज का मरीज बना देता है। इसके विपरीत, 100 ग्राम कच्चे मांस में कार्बोहाड्रेट की मात्रा शून्य होती है। कार्बोहाइड्रेट की बढ़ी खपत ने भारत को दुनिया की “डायबिटीज कैपिटल” में बना दिया है।

विदेश से आने वाले यात्रियों ने अपने दस्तावेजों में अपने नागरिकों से तुलना करते हुए भारतीयों का वर्णन सेहतमंद लंबी जिंदगी के साथ ऊंचे कद और छरहरे बदन वाली नस्ल के तौर किया है, लेकिन आज हम छोटे कद वाले, डायबिटीज व मोटापे के शिकार हो गए हैं और हमारी उम्र भी घट गई है। इसके साथ ही, डायबिटीज, हृदय रोग, अल्जाइमर और दूसरे मेटाबोलिक सिंड्रोम आम हो गए हैं।