खान-पान

आहार संस्कृति: पहाड़ों का अनोखा उपहार है चुलु

खुबानी के पेड़ में फल गर्मी के मौसम में लगते हैं, जिसे सुखाकर पूरे साल व्यंजन बनाने में इस्तेमाल किया जाता है

Chandra Prakash Kala

गर्मी के दिनों में पहाड़ी क्षेत्र स्वादिष्ट वन्य फलों से जीवंत हो उठते हैं। काफल, किंगोद, करोंदा और हिसार पहाड़ों पर फलने वाले पेड़ों में से कुछ जाने-पहचाने नाम हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में गर्मी के मौसम में एक ऐसा फल भी होता है, जिसके बारे में आमतौर पर कम ही लोग जानते हैं। इस फल का नाम है-चुलु। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के गांवों के लोग चुलु या एप्रीकॉट को अपने घर के बगीचों में उगाते हैं। चुलु का वानस्पतिक नाम प्रूनस अमेरिकाना है। इस फल के पेड़ औसत ऊंचाई के होते हैं, जिस पर मार्च में फूल लगते हैं। वसंत के मौसम में जब पेड़ पर नई कोंपलें फूटती हैं, उससे ठीक पहले पेड़ गुलाबी आभा लिए हुए सफेद फूलों से आच्छादित हो जाते हैं।

यह महज एक संयोग ही है कि चुलु के पेड़ पर उसी वक्त फूल लगते हैं, जब गढ़वाल क्षेत्र में एक स्थानीय बाल उत्सव फुलदेई मनाया जाता है। इस उत्सव में अल सुबह बच्चे फूल चुनने निकलते हैं और वे इन फूलों को हर घर के दरवाजे पर सजाते हैं। बदले में उन बच्चों को घर के लोग कुछ उपहार देते हैं। यह उत्सव आज भी हिन्दू कैलेंडर के पहले महीने चैत्र (अप्रैल) में मनाया जाता है। मई और जून के महीने में जब गर्मी चरम पर होती है, तब चुलु पकने लगते हैं। हालांकि यह पहाड़ों की ऊंचाई पर भी निर्भर करता है। कम ऊंचाई पर लगे पेड़ों पर फल पहले पकना शुरू हो जाते हैं। हरे फल जैसे-जैसे पकते हैं, उनका रंग पहले पीला फिर नारंगी हो जाता है और स्वाद खट्टा से मीठा होने लगता है।

फलों को पेड़ से तोड़ने का काम हाथ से ही किया जाता है। हमारे गांव के बुजुर्ग हमें सूरज के सीधे प्रकाश के संपर्क वाले फलों को खाने से मना करते थे। वे कहते थे कि ऐसे फल स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। फलों को अमूमन सुबह के वक्त तोड़ा जाता है, ताकि इसका इस्तेमाल अलग-अलग कामों के लिए किया जा सके। इसकी गूदेदार बाहरी परत को सीधे या फिर नमक के साथ खाया जाता है। कुछ लोग इसे हरी मिर्च और लहसुन के साथ मिलाकर खाना पसंद करते हैं। अधपके फल से चटनी बनाई जाती है। यह भूख के साथ ही रोजमर्रा के भोजन का स्वाद बढ़ाने का काम भी करता है। मौसमी फल होने और अत्यधिक उत्पादन होने के कारण अधिकतर फल एक साथ पक जाते हैं। गढ़वाल क्षेत्र के लोग चुलु के गूदे से बीज को अलग कर देते हैं और इसे धूप या छांव में सुखाकर रख लेते हैं, जिसका इस्तेमाल साल के बाकी महीनों में चटनी या अन्य स्थानीय व्यंजनों का स्वाद बढ़ाने में किया जाता है।

गूदे की तरह ही चुलु के बीज भी औषधीय गुणों के भंडार हैं। चुलु के बीज कड़वे और मीठे, दोनों तरह के स्वाद वाले होते हैं। मीठे बीज का स्वाद बादाम की तरह होता है। बीज का आकार पानी की बूंद की तरह होता है। लाल-भूरे बीजों को धूप में सुखाकर तेल निकाला जाता है, जिसका इस्तेमाल पारंपरिक तौर पर बदन और जोड़ों के दर्द के उपचार में किया जाता है। चुलु के बीज का तेल आयुर्वेदिक दवाओं की दुकानों से खरीदा जा सकता है।

उत्तरकाशी के पुरोला गांव निवासी आशाराम बंगवाल बताते हैं कि टिहरी और उत्तरकाशी के लोग बीज के तेल का इस्तेमाल अधकपारी के दर्द के उपचार के लिए करते हैं। चुलु के बीज का तेल ठंड के मौसम में राहत प्रदान करते हैं। चुलु को सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। शुरुआती वर्षों में इसकी छंटाई की जरूरत नहीं होती, लेकिन जैसे-जैसे पौधा बढ़ने लगता है, लम्बी टहनियों की छंटाई करने से पौधे का विकास बेहतर तरीके से होता है। एक पौधा चार-पांच साल में फल देने लगता है और एक वयस्क पेड़ में एक मौसम में करीब 70 किलो तक फल लगते हैं।

भारत के अलावा दुनिया के अन्य देशों में भी चुलु उगाया जाता है। टर्की, ग्रीस, स्पेन, इटली, यूएस और फ्रांस चुलु के प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत में यह उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में समुद्र तल से 1,200-2,500 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जाता है। चुलु विटामिन ए और सी का प्रमुख स्रोत है। साथ ही इसमें कैल्शियम, आयरन और फॉस्फोरस भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। ब्राजीलियन जर्नल ऑफ मेडिकल एंड बायोलॉजिकल रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, चुलु के बीज में जीवाणुओं के प्रतिरोध की क्षमता मौजूद है।

चुलु में प्रचुर मात्रा में पोषक तत्वों की मौजूदगी और इसमें समाहित औषधीय गुणों के बावजूद इसकी वानिकी के वाणिज्यीकरण के प्रयास आवश्यक्तानुरूप नहीं किये गए हैं। गाेपेश्वर स्थित हर्बल रिसर्च एंड डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिक सीपी कुनियाल के अनुसार, चुलु का उत्पादन पिछले कुछ वर्षों में तेजी से घटा है। वह बताते हैं कि नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड में काम करने के दौरान एक बार मेरी मुलाकात चिपको आंदोलन के नामचीन नेता और पर्यवारणविद चंडी प्रसाद भट्ट से हुई। वह गढ़वाल में चुलु के पौधरोपण को प्रोत्साहित करने को लेकर काफी उत्साहित थे। उन्होंने कहा, “चुलु की वानिकी न सिर्फ स्थानीय लोगों की आजीविका का साधन बन सकते हैं, बल्कि औषधीय गुणों की वजह से यह वहां के लोगों का स्वास्थ्यवर्धन भी करेगा।”

व्यंजन

चुलु चटनी

सामग्री:

खुबानी/चुलु : 6-8
लहसुन : 20 ग्राम
हरे प्याज का पत्ता या प्याज : 50 ग्राम
सूखी लाल मिर्च : 1-2
पुदीना : 5 पत्ते
नमक : स्वादानुसार
विधि: सभी सामग्रियों को अच्छी तरह से सिलबट्टे पर पीस लें। लीजिये तैयार है चुलु चटनी।

खुबानी का जैम

सामग्री:
खुबानी/चुलु : 1 किलो
पानी : 1/4 कप
चीनी : 2 कप
नीबू का रस : 2 चम्मच
विधि: खुबानी से बीज निकलकर बारीक काट लें। अब इसमें पानी, नीबू का रस और चीनी मिलाकर उबालें। खुबानी जब पक जाए तो उसे मिश्रण में ही मसल लें। जब मिश्रण गाढ़ा हो जाए तो उसे आंच से उतारकर ठंडा करें और कांच की बोतल में रखें।

पुस्तक

फॉर द लव ऑफ एप्रीकॉट

लेखक: लीजा प्रिंस न्यूमन प्रकाशक: प्रिंस ऑफ द ऑर्चर्ड्स मूल्य: 29.95 अमेरिकी डॉलर
इस पुस्तक में खुबानी से बनने वाले 60 से भी अधिक व्यंजनों का समावेश किया गया है, जिसमें खाने से लेकर पेय पदार्थ शामिल हैं।