खान-पान

खास खबर: प्राकृतिक आपदाओं के चलते खतरे में पड़ी खेती

ऐसे समय में जब एक औसत भारतीय परिवार अपनी कमाई का लगभग 50 प्रतिशत और गरीब 60 प्रतिशत से अधिक भोजना पर खर्च करते हैं, तब मूल्य वृद्धि देश में सबसे बुरे संकट को जन्म देगी

Richard Mahapatra, Shagun

बेमौसमी घटनाओं के चलते एक ओर जहां फसल बर्बाद हो रही है, वहीं खाने-पीने के चीजों के दाम बढ़े हैं। दुनिया भर में यही ट्रेंड दिख रहा है। डाउन टू अर्थ की इस खास सीरीज में इसे गहराई से समझने का प्रयास किया गया है। इस सीरीज की पहली कड़ी में आपने पढ़ा - फसल की बर्बादी ने बढ़ाई खाने की थाली की कीमत । पढ़ें अगली कड़ी - 

चरम मौसम की घटनाओं और आपदाओं से कृषि अब तक सबसे बुरी तरह प्रभावित क्षेत्र रहा है। पिछले दो दशकों में इस नुकसान में काफी इजाफा हुआ है। एफएओ के अनुसार, 1970 के दशक में एक वर्ष में केवल 100 आपदाएं आईं। 2000 के दशक में उनकी संख्या बढ़कर 360 और 2010 के दशक में 440 हो गई। सबसे कम विकसित देश (एलडीसी) और निम्न और मध्यम आय वाले देशों (एलएमआईसी) को इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ा। एफएओ के अनुसार, 2008-18 में फसल और पशुधन उत्पादन में आपदा से गिरावट के कारण इन देशों को 108.5 बिलियन डॉलर (8.2 लाख करोड़ रुपए) का नुकसान हुआ (देखें, नुकसान का पैमाना)।

भारत में आपदा से हुई फसल क्षति के कारण मौद्रिक नुकसान पर कोई व्यापक डेटा उपलब्ध नहीं है। हालांकि, हाल के वर्षों में फसल के नुकसान पर संसद में सरकारी उत्तरों से एकत्रित आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 से भारी बारिश और बाढ़ सहित मौसम संबंधी आपदाओं के कारण 36 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई है। 2016 में 6.65 मिलियन हेक्टेयर, 2017 में 5.08 मिलियन हेक्टेयर, 2018 में 1.70 मिलियन हेक्टयेर, 2019 में 11.42 मिलियन हेक्टेयर, 2020 में 6.65 मिलियन हेक्टेयर और 2021 में 5.04 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है।

केंद्र सरकार ने 17 सितंबर, 2020 को लोकसभा को बताया कि 2016 में 6.65 मिलियन हेक्टेयर पर फसलों को पहुंचे नुकसान का अनुमान 4,052.72 करोड़ रुपए था। यदि इसे 2016 से 36 मिलियन हेक्टेयर फसली क्षेत्र पर लागू कर दिया जाए तो यह 29,939 करोड़ रुपए के भारी नुकसान के रूप में परिलक्षित होता है। हालांकि, यह महज सांकेतिक आंकड़ा होगा। 2017 में 2016 की तुलना में कम फसल क्षति का क्षेत्र प्रभावित था, लेकिन नुकसान दोगुने से अधिक 8,761.39 करोड़ रुपए था। वर्षा की प्रकृति में बदलाव वर्षा आधारित कृषि के लिए बड़ा जोखिम है। इस खेती पर भारत की बड़ी गरीब आबादी जीवनयापन के लिए निर्भर है। यह खेती वैश्विक खाद्य उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाती है।

हाल ही में यूरोपीय सेंट्रल बैंक (ईसीबी) के वरिष्ठ प्रमुख अर्थशास्त्री माइल्स पार्कर और ईसीबी के उप महानिदेशक लिवियो स्ट्रैका ने 48 उन्नत और उभरते देशों में कीमतों पर मौसम के प्रभावों, विशेष रूप से तापमान के उतार-चढ़ाव का अध्ययन किया। उन्होंने पाया है कि तेज गर्मी के दौरान खाद्य कीमतों में 0.38 प्रतिशत की वृद्धि होती है। ज्यूरिक में स्थित पुनर्बीमा कंपनी स्विस रे का अनुमान है कि बढ़ते तापमान से कृषि उत्पादन में गिरावट आएगी। अप्रैल 2021 में जारी बयान में उसने कहा, “उच्च तापमान और चरम सूखे की घटनाएं श्रम उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं। ये घटनाएं हीट स्ट्रेस का कारण बनेंगी और स्वास्थ्य पर बुरा असर डालेंगी।”

जलवायु का दुष्चक्र

एफएओ का कहना है कि आपदाओं के कारण दुनिया पहले ही 4 प्रतिशत संभावित फसल और पशुधन उत्पादन गवां चुकी है। यह नुकसान प्रतिवर्ष 6.9 ट्रिलियन किलो कैलोरी अथवा 70 लाख वयस्कों की वार्षिक कैलोरी सेवन के बराबर है। अगर इस नुकसान की व्याख्या गरीब, निम्न और मध्यम आय वाले देशों के संदर्भ में की जाए तो यह रोजाना 22 फीसदी कैलोरी की कमी है। इस लिहाज से देखें तों जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आपदाएं न केवल किसानों की आय को प्रभावित करती हैं, बल्कि भोजन की उपलब्धता भी कम करती हैं। उत्पादन में कमी से कीमतों में वृद्धि होती है, जो अंतत: लोगों के भोजन ग्रहण की क्षमता पर असर डालती है।

यह जलवायु का ऐसा दुष्चक्र है जो हर किसी को अपनी जद में ले लेता है।2001-10 के दौरान 63 देशों में एशियाई विकास बैंक (एडीबी) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि खाद्य मुद्रास्फीति में 1 प्रतिशत की वृद्धि से शिशु व बाल मृत्यु दर में 0.3 प्रतिशत और कुपोषण में 0.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। गरीब देशों में ये प्रभाव गंभीर हैं। ऐसे समय में जब एक औसत भारतीय परिवार अपनी कमाई का लगभग 50 प्रतिशत भोजन पर खर्च करता है और गरीब 60 प्रतिशत से अधिक खर्च करते हैं, तब मूल्य वृद्धि देश में सबसे बुरे संकट को जन्म देगी। गरीबों को दोहरी मार का सामना करना पड़ेगा। एक, वे भोजन पर अधिक खर्च करने के लिए मजबूर होंगे और दूसरा, उनका स्वास्थ्य और खराब होगा।

भारत में गरीबी का स्तर तेजी से बढ़ सकता है और देश बाल मृत्यु दर और कुपोषण के खिलाफ अपनी लड़ाई में विफल हो सकता है। एडीबी के सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि जन स्वास्थ्य पर खाद्य मुद्रास्फीति का प्रभाव उन देशों में कम है, जहां सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का अधिक योगदान है। ऐसे में समझदारी भरे उपायों की जरूरत जो कृषि को इन बदले हालात में अनुकूल बनाने में मदद कर सकते हैं। पहला उपाय कृषि विज्ञान की सलाह पर फसल पैटर्न को नए रास्तों पर ले जाना है। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि किसानों को मौसम संबंधी सलाह देने से उनकी आय पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। यह सर्वेक्षण राष्ट्रीय मॉनसून मिशन (एनएमएम) और हाई परफॉर्मेंस कंप्यूटिंग सुविधाओं (एचपीसी) पर भारत के निवेश के आर्थिक प्रभाव को मापने के लिए किया गया था। किसानों को मौसम संबंधी सलाहों के आधार पर नौ महत्वपूर्ण कृषि पद्धतियों में संशोधन करने को कहा गया था।

एनसीएईआर के अनुमानों के अनुसार, जिस किसान परिवार ने कृषि पद्धतियों में बदलाव नहीं किया उसकी औसत वार्षिक आय 1.98 लाख रुपए लाख थी। लेकिन एक किसान जिसने 1-4 बदलाव किए, उसकी आय बढ़कर 2.43 लाख रुपए हो गई। पांच से आठ बदलावों के साथ किसानों की आय बढ़कर 2.45 लाख रुपए प्रतिवर्ष हो गई। जिन लोगों ने सभी नौ परिवर्तनों को अपनाया उनकी सालाना आय 3.02 लाख रुपए थी। रिपोर्ट में कहा गया है, “बीपीएल व मछली पालन करने वाले परिवारों द्वारा एनएमएम और एचपीसी सुविधाओं में 1 रुपए का निवेश 50 गुना वृद्धि आर्थिक लाभ देता है।”

इस तरह के उपायों के बावजूद अप्रत्याशित मौसम की घटनाएं जैसे चक्रवाती तूफान, अचानक बारिश या भीषण गर्मी कृषि पर कहर बरपा सकती हैं। यहां फसल बीमा नुकसान की भरपाई में मददगार साबित हो सकता है और किसान को अगली फसल के लिए तैयार कर सकता है। लेकिन यह भी तभी कारगर है, जब नीतियां मजबूत हों।