पर्यावरण

मिलिए 'गोल्डमैन' प्रफुल्ल समांतरा से

Priya Ranjan Sahu

इस वर्ष एशिया के प्रतिष्ठित गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार विजेता प्रफुल्ल सामंतरा हाशिए के लोगों की एक शक्तिशाली आवाज हैं। पर्यावरण के लिए दुनिया का सर्वोच्च पुरस्कार, जिसे “ग्रीन नोबेल” के नाम से भी जाना जाता है, को प्राप्त करने वाले 65 वर्षीय सामंतरा छठे भारतीय हैं। उन्हें यह पुरस्कार ओडिशा में नियमगिरि पहाड़ियों को बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा बॉक्साइट खनन से बचाने और वहां रहने वाले कमजोर आदिवासी डोंगरिया कोंध के अधिकारों के लिए 12 वर्षों तक अथक कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए दिया गया है। सामंतरा और उनके दोस्तों की याचिकाओं और राज्य संचालित ओडिशा माइनिंग कॉरपोरेशन (ओएमसी) या वेदांता की हर दूसरी कानूनी लड़ाई में इनके हस्तक्षेप के कारण आखिरकार 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने नियामगिरि के ऊपर के गांवों में ग्राम सभा की 12 बैठकें आयोजित करने के लिए आदेश पारित कर दिया। ग्राम परिषद की बैठकों में सर्वसम्मति से वेदांता रिसोर्सेस द्वारा खनन प्रस्तावों को खारिज कर दिया गया। प्रिय रंजन साहू ने हाल ही में भारत में पर्यावरणवाद की स्थिति पर उनसे बात की। साक्षात्कार के अंश:

क्या आपको लगता है कि गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार 2017 के लिए चुने जाने से पर्यावरण और लोगों के प्रति आपकी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है?

मैंने अपने जीवन में कभी भी किसी पुरस्कार की अपेक्षा नहीं रखी, और पुरस्कार पाने की चाहत में मैंने लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए काम नहीं किया। लेकिन जब मुझे सैन फ्रांसिस्को के गोल्डमैन पर्यावरण फाउंडेशन द्वारा सूचित किया गया कि मैं एशिया से एक उम्मीदवार हूं, तो मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि तब तक मैं पुरस्कार या संस्था के बारे में जानता भी नहीं था।

जब फाउंडेशन की महिला ने मुझे टेलीफोन पर कहा कि मुझे इस पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है, क्योंकि प्रकृति की रक्षा के लिए मेरा संघर्ष, विशेष तौर पर नियमगिरि पहाड़ियों के प्राकृतिक संसाधनों पर डोंगरिया कोंध आदिवासियों को अधिकार दिलाने में मेरी भूमिका उल्लेखनीय है, तब मुझे एहसास हुआ कि राज्य की दमनकारी नीतियों और संसाधनों पर कॉर्पोरेट कब्जे के खिलाफ इस लोकतांत्रिक प्रतिरोध को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है।

इसलिए, अब मैं मातृभूमि को वैश्विक पूंजीवाद के शोषण से बचाने का अभियान जारी रखने के लिए और भी प्रोत्साहित महसूस करता हूं। हमारे देश में, राज्य और कॉर्पोरेटाईजेशन की वकालत करने वाले हमें विकास विरोधी के तौर पर देखते हैं। यह पुरस्कार उनलोगों के लिए मुंहतोड़ जवाब है। वैकल्पिक स्थायी विकास के लिए हमारे कदम को अब वैश्विक समर्थन मिलने लगा है।

आप ओडिशा में जमीनी स्तर पर कई संघर्ष के साथ जुड़े हुए हैं। नियामगिरी पहाड़ियों में बॉक्साइट खनन के खिलाफ संघर्ष में आप कब शामिल हुए?

व्यावहारिक रूप से हम 1990 के बाद से वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। लोक शक्ति अभियान (एलएसए) का गठन महान समाजवादी नेता और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष रबी राय के नेतृत्व में किया गया था, जिसके तहत देशभर में भ्रष्टाचार, कॉर्पोरेटाईजेशन और सांप्रदायिकता के खिलाफ अभियान चलाया गया था।

मैंने उन कॉर्पोरेट हाउसों के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लिया, जो हमारे प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करने और लोगों को उनके खेतों और जंगलों से विस्थापित करने आए थे। मेरे लिए पहली चुनौती थी गोपालपुर (ओडिशा के गंजम जिले में) में टाटा का प्रस्तावित इस्पात संयंत्र। फिर मैं 1997 में रायगढ़ जिले के काशीपुर में बॉक्साइट खनन और उत्कल एलुमिना के एल्यूमिनियम संयंत्र के खिलाफ आंदोलन में आदिवासियों का साथ देने पहुंचा।

2003 में, जब वेदांता नियामगिरि में आया, सबसे पहले मैंने पर्यावरण मंजूरी के लिए सार्वजनिक सुनवाई का विरोध किया, क्योंकि यह अलोकतांत्रिक और अवैध थी। फिर मैं खनन और कालाहांडी जिले के लांजीगढ़ में वेदांता के एल्यूमिनियम संयंत्र (नियमगिरि की तलहटी में) जैसे सर्वोच्च प्रदूषणकारी उद्योगों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय की केंद्रीय अधिकारिता समिति का प्रमुख याचिकाकर्ता बन गया। मेरे साथ सह-याचिकाकर्ता बने विश्वजीत मोहंती और आर श्रीधर।

मैं एल्यूमिनियम संयंत्र के लिए जबर्दस्ती भूमि अधिग्रहण के खिलाफ स्थानीय लोगों के आंदोलन का एक हिस्सा बन गया, बाद में नियमगिरि में खनन के खिलाफ डोंगरिया कोंध आदिवासियों को संगठित किया। मैंने खनन के खिलाफ विभिन्न चरणों में कानूनी लड़ाई सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अप्रैल 2013 में नियमगिरि में ग्राम सभा आयोजित करने का फैसला देने तक जारी रखी। इन ग्रामसभाओं में खनन प्रस्ताव को सर्वसम्मति से खारिज कर दिया गया।

कई वर्षों के संघर्ष के बाद, पॉस्को ने अंततः ओडिशा परियोजना छोड़ दी। नियामगिरि में यह सफलता क्यों नहीं दोहराई जा सकी? ऐसा लगता है कि सरकार का दृष्टिकोण अलग-अलग है।

मुझे नहीं लगता कि सरकार का दृष्टिकोण अलग है। दृष्टिकोण समान है और रणनीति भी एक जैसी है—कारपोरेट हित में संसाधनों पर से लोगों के अधिकारों को विरत करना।

लेकिन नियामगिरि और जगतसिंहपुर (प्रस्तावित पोस्को परियोजना के लिए क्षेत्र) में लोगों के आंदोलनों की प्रकृति अलग-अलग है, क्योंकि पहले से आदिवासी और दूसरे से गैर-आदिवासी लोग जुड़े हैं। और नियमगिरि में संसाधनों पर पहचान, आत्मीयता और उनके संवैधानिक अधिकार अधिक गहरे हैं।
जगतसिंहपुर के मामले में, जिन लोगों की जमीनें जबरदस्ती पास्को के लिए ले ली गई थीं, वे अभी भी वन अधिकार अधिनियम 2006 के अनुसार भूमि के कानूनी मालिक हैं। अभी तक वन को कानूनी रूप से नहीं हटाया गया है। मीना गुप्ता समिति की सिफारिशों ने वन अधिकार अधिनियम के तहत अन्य वन निवासी के रूप में जमीन पर उनके अधिकार को न्यायोचित ठहराया है। तो  अब भूमि के पट्टे वापस उनके नामों पर जारी  किया जाना चाहिए।

ऐसा लगता है कि पर्यावरण आंदोलन दोराहे पर खड़ा है। पर्यावरण पर बहस का ध्रुवीकरण किया गया है। पर्यावरण के बारे में बोलने वाला व्यक्ति विकास-विरोधी करार दे दिया जाता है। ऐसा क्यों है?

इसका कारण है कि यह हमारे प्राकृतिक संसाधनों को कब्जे में लेना कॉर्पोरेट के लिए एक चुनौती है। यह मुनाफे और लोगों के बीच एक लड़ाई है कि किसे प्राथमिकता मिलनी चाहिए। खनन को आसान बनाने के लिए केंद्र सरकार ने पहले ही कानूनों को कमजोर कर दिया है। और अब केंद्र सरकार उद्योगों को तेजी से मंजूरी देने के लिए आक्रामक रूप से मौजूदा पर्यावरण कानूनों को कमजोर बना रही है। यह पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों के लिए एक  चुनौती है।

लेकिन जब लोग अन्य प्रासंगिक मुद्दों पर एकजुट होने लगते हैं, तो पर्यावरण की लड़ाई उस तरह से आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही है?

इसका कारण यह है कि मीडिया कॉर्पोरेट के नियंत्रण में है। हमारे देश की मुख्यधारा की राजनीति का प्रबंधन भी कॉर्पोरेट के निहित स्वार्थों द्वारा किया जाता है। मध्यम वर्ग अभी भी तथाकथित विकास के भ्रम का शिकार है। ऐसी घटनाओं के विनाशकारी परिणाम को अभी तक महसूस नहीं किया गया है। लेकिन जब इस विनाशकारी विकास प्रक्रिया के खिलाफ और वैकल्पिक विकास के लिए आम लोगों और पीड़ितों ने अपनी आवाज उठाई, तो उन आवाजों को न तो मीडिया का साथ मिला, न ही मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का समर्थन। इसलिए स्थायी विकास के लिए पर्यावरण आंदोलन की आवाज उच्च मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग दोनों के लिए एक चुनौती के रूप में बनी हुई है।

गैर सरकारी संगठनों, समुदायों और कार्यकर्ताओं के बीच एक व्याकुलता देखी जा रही है। ऐसा क्यों है कि वे सभी पर्यावरण और न्याय के लिए लड़ रहे हैं?

जहां तक मेरे अनुभव का सवाल है, एक आंदोलन को जीवित रखने के लिए सामुदायिक नेतृत्व का काफी महत्व होता है। कार्यकर्ता उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। जब वे समान राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आंदोलनों से जुड़ते हैं, तो स्थानीय आंदोलन को मजबूत करते हैं। इससे पर्यावरण के लिए लड़ रहे समुदायों के बीच एकजुटता आती है। लेकिन जहां तक ​​एनजीओ का संबंध है, वे दो वर्गों में विभाजित हैं। कुछ ​​एनजीओ लोगों के हित में पर्यावरणीय न्याय के प्रति प्रतिबद्धता के साथ काम करते हैं और कुछ ऐसे एनजीओ भी हैं जो सत्ता के करीबी हैं और आंदोलनों को हानि पहुंचाते हैं।

कई लोगों का मानना ​​है कि रणनीतिक नेतृत्व स्थानीय समुदायों से निकलकर ऐसे गैर-सरकारी संगठनों/कार्यकर्ताओं में स्थानांतरित कर दिए गए हैं जो उनकी ओर से लड़ते हैं।

मुझे लगता है कि यदि नियमगिरि में जीवन और आजीविका के लिए समुदायों द्वारा एक निष्ठापूर्ण आंदोलन चलाया जा रहा है, तो यह संघर्ष अपनी मंजिल तक पहुंचेगा। व्यक्तिगत नेतृत्व के तहत मैंने भी कई अवसरों पर पाया कि ऐसे आंदोलनों को संकट का सामना करना पड़ा, जिसे समुदाय नहीं अपनाते। मेरा मानना है कि किसी भी आंदोलन का स्वामित्व किसी व्यक्ति या गैर-सरकारी संगठन या राजनीतिक दल के पास नहीं होना चाहिए, क्योंकि आंदोलन हमेशा इन सब बातों से ऊपर है और वे अपने लक्ष्यों को सामूहिक नेतृत्व के माध्यम से ही प्राप्त कर सकते हैं।

देर-सबेर, सामाजिक कार्यकर्ता और सिविल सोसाइटी के सदस्य चुनावी राजनीति में शामिल हो रहे हैं। क्या इससे मुद्दों या लोगों को बल मिलेगा?

एक सतत आंदोलन का नेता जब चुनावी राजनीति में अपने संघर्ष की स्पष्ट घोषणा के साथ जुड़ता है, तो वह लोक आंदोलन की राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार्य हो सकता है। इससे हो सकता है कि आंदोलन के हित को नुकसान न पहुंचे। लेकिन जब नेता किसी भी ऐसे राजनीतिक दल या सेना में शामिल होता है जो संघर्ष के शत्रु हों या आंदोलन के सिद्धांतों के खिलाफ हो, तो वह आंदोलन के लिए परेशानी का सबब बन जाता है।