पर्यावरण

“तटीय भाषाएं चुका रही हैं परिवर्तन की कीमत”

भाषाविद गणेश देवी ने ऐसे अनूठे भाषा सर्वेक्षण का नया खंड प्रकाशित किया है, जो भूगोल और लोगों के स्थानीय दावों पर आधारित है।

Rajat Ghai

सर्वेक्षण के दौरान, ऐतिहासिक भाषा विज्ञान या भाषा परिवार की जटिलताओं के बजाय, आपकी टीम ने भौगोलिक भेदों और लोगों के दावों पर ध्यान केंद्रित किया। ऐसा क्यों?

भारत का लोक भाषाई सर्वे, लोगों पर केंद्रित है। यह भाषाविदों के किसी समूह द्वारा शुरु की गई कोई अकादमिक परियोजना नहीं है। यह उन समुदायों की गहरी चिंता से पैदा होता है, जिनके अस्तित्व को नकारा जा रहा है। अध्ययन के लिए आवश्यक परिप्रेक्ष्य के रूप में भूगोल मुझे उचित लगा। ऐतिहासिक भाषा विज्ञान द्वारा अनुमोदित ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से बाहर निकलने की आवश्यकता थी।

आपने भाषाओं पर लोगों के दावों को स्वीकार किया? क्या आपने बोलियों और भाषाओं के बीच भेद किया? क्या ऐसे सर्वेक्षण को भाषा विज्ञान द्वारा सही माना जाएगा?

आपके प्रश्न में यह धारणा है कि जो लोग अपनी भाषा के रूप में किसी भाषा पर दावा करते हैं, उनके पास बहुत ही संकीर्ण दृष्टिकोण होता है। इसके परिणामस्वरूप, एक बड़ी भाषा का कई अन्य स्वतंत्र भाषाओं में विघटन नहीं हो पाता है। हालांकि, यह धारणा तब नहीं काम करती जब भाषाओं के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को बारीकी से देखते हैं। विशेषकर एक ऐसे देश में, जो सांस्कृतिक रूप से एकभाषावाद को पसंद नहीं करता है। यदि कोई क्षेत्रीय भाषा विज्ञान प्रथा से उत्पन्न होने वाली धारणा की जांच करे, तो पेशेवर विद्वानों द्वारा अलग तरीके से भाषाओं के बीच सीमाएं खींचने की एक अस्वाभाविक प्रवृत्ति का पता चलेगा। असल में, एक मानक भाषा का भौगोलिक प्रसार, इससे संबंधित बोलियां, पड़ोसी भाषाओं से इसकी भिन्नता, ऐसे विषय हैं जिसे लेकर सांस्कृतिक भूगोलवेत्ता और भाषाविदों को दुनिया के सभी भागों के आंकड़ों की जांच करने के बाद पता लगाना चाहिए। इसमें समय लगेगा। मैंने प्रस्ताव दिया है कि बोलियां, मानक भाषा के ऐतिहासिक अवशेष नहीं हैं, लेकिन ऐसे नए विचार है जो नई शाब्दिक संभावनाओं की खोज करते हैं।  

भारतीय तट के पास की भाषा नष्ट हो सकती है। क्या यह पहाड़ों, रेगिस्तान, जंगलों और द्वीपों में बोली जाने वाली भाषाओं पर भी लागू होता है?

तटीय भाषाएं सिर्फ भौगोलिक कारणों की वजह से नहीं, बल्कि आर्थिक परिवर्तनों की भी कीमत चुका रही हैं। चूंकि समुदायों ने मछली पकड़ने के अपने अधिकार पर नियंत्रण खो दिया है, उनके पारंपरिक आजीविका के स्त्रोत तबाह हो गए हैं। संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों के मुताबिक, वैश्विक पलायन दर 35 प्रतिशत है। यह दर 1960 और 1970 के दशक में भारत के तटीय समुदायों में देखी गई थी। अब कम से कम दो पीढ़ी अपने पारंपरिक “भाषा-लोकाचार” से विस्थापित हो चुकी है। पलायन से अलग कारक में एक आर्थिक निराशा भी है जो किसी भाषा को आगे ले जाने के साथ जुड़ी होती है। मसलन, किसी भाषाई समुदाय के साथ जुड़ा सामाजिक कलंक, जैसा कि घुमंतु समुदाय के साथ है, जिनकी भाषा के लिए औपचारिक संरक्षण की कमी है, उदासीन शैक्षिक नीति है और आधुनिक जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए भाषा का अभाव है।  

सर्वेक्षण में कहा गया है कि आदिवासी भाषाओं जैसे संताली, गोंडी, भिली, मिजो, गारो, खासी और कोकबोरोक में बेहतरी दिखती रही है, क्योंकि इन समुदायों के शिक्षित लोगों ने इन भाषाओं में लेखन शुरू कर दिया है।  

सौभाग्य से,  इस देश में कई आदिवासी भाषाओं ने भाषा से संबंधित या सांस्कृतिक आंदोलनों को देखा है। ये रचनात्मक आंदोलन रहे हैं और इससे स्थानीय लेखन, अपने इतिहास के बारे में पुस्तक लेखन, संस्कृति, साहित्य और पारिस्थितिकी के बारे में लिखा गया है।  

लोगों के बीच ये भी जागरुकता रही है कि भाषा उनकी पहचान की पारिभाषित विशेषताओं में से एक है। जहां भी इस तरह के आंदोलन हुए, वहां उस क्षेत्र या समुदाय से जुड़े भाषा को समुदायों के भीतर अपेक्षाकृत अधिक स्वीकार्यता मिली। यदि हम 1991 और 2001 की जनगणना आंकड़ों की तुलना करते हैं, तो आदिवासी भाषाओं का रूझान बेहतर पाते हैं। ये भाषाएं आगे बढ़ रही हैं।  

भाषा विविधता के संदर्भ में, आपने भारत को नाइजीरिया, इंडोनेशिया और पापुआ न्यू गिनी जैसी देशों की श्रेणी में रखा है, जो दुनिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में हैं और जैव विविधता के मामले में समृद्ध हैं। क्या भाषाई विविधता और जैव विविधता के बीच कोई संबंध है?

जैव विविधता और सांस्कृतिक विविधता एक दूसरे पर निर्भर है। विविधता चाहे वह धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई हो, प्राकृतिक विकास प्रक्रिया से गहराई से जुड़ा हुआ है। जब भी विकास की प्रक्रिया में बाधा आती है, विविधीकरण घट जाता है। मुझे नहीं पता है कि किसी भी वैज्ञानिक ने प्राकृतिक स्थिति में विविधता का आकलन करने के लिए किसी वैज्ञानिक उपाय को अपनाया है या नहीं?

क्या भाषाएं, स्थानीय पारिस्थितिकी और जैव विविधता के लिए भंडार गृह है?

दुनिया में कोई भी ऐसी भाषा नहीं है, जो व्यक्तियों के सभी संवेदी धारणाओं को संग्रहित नहीं करता है। सचमुच, किसी भाषा का हर एक शब्द प्रकृति को लेकर महसूस किए गए मानव अनुभव और भाषा उपयोगकर्ताओं के आस-पास की वस्तुओं का एक संचयी परिणाम है। इस अर्थ में, हर एक शब्द इतिहास की एक पूरी पुस्तक है या कहें कि अपने आप में एक पूर्ण शब्दकोश है।  

कुछ ऐसे उदाहरण दें, जहां नष्ट होते माहौल ने भारत की किसी भाषा को बर्बाद करने में योगदान दिया।  

मेघालय और दक्षिण गुजरात में कोयला खनन क्षेत्र और गोवा में मैंगनीज और बॉक्साइट खनन ने स्थानीय आबादी को काफी प्रभावित किया है। वे अपनी जड़ से उखड़ रहे हैं और अब अपनी भाषा को भी भूल रहे हैं।  

आपने आगे एक बड़ी परियोजना “ग्लोबल लैंग्वेज सर्वे” की घोषणा की है। इसके तहत दुनिया में बोली जाने वाली 6000 से अधिक भाषाओं का सर्वेक्षण और दस्तावेजीकरण होगा। क्या यह सर्वे भी पीपल्स लिंगुस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया की तर्ज पर होगा? अमेरिका, अफ्रीका, एशिया और ओशिनिया की आदिवासी भाषाओं के बारे में क्या कहना है?

हां और नहीं। हां, क्योंकि उन समुदायों की भाषा जिनकी आबादी बहुत कम है, उनकी संख्या ऐसे भाषाई समुदाय से अधिक है, जिनकी जनसंख्या अधिक है। दुनिया की 97 प्रतिशत भाषाओं को दुनिया की आबादी का 3 प्रतिशत लोग ही बोलते हैं। मैंने अपनी शुरुआत इसी तीन प्रतिशत जनसंख्या के साथ की है, जो अफ्रीका, पापुआ न्यूगिनी, दक्षिण अमेरिका और पूर्वी एशिया में रहते हैं।