वैश्विक तापमान दशकों से हिमालय ग्लेशियरों (हिमनद) को प्रभावित कर रहा है, लेकिन इसके प्रभाव पर अनुसंधान हाल ही में शुरू हुआ है। 2013 में नेशनल सेंटर फॉर अंटार्कटिक एंड ओसियन रिसर्च (एनसीएओआर) के एक वैज्ञानिक परमानंद शर्मा ने ग्लेशियरों के बेसिन वार फील्ड रिसर्च के लिए एक महत्वाकांक्षी काम शुरू किया। उन्होंने अस्थायी तंबू की जगह स्पीति के चंद्रा नदी बेसिन में एक शिविर स्थापित किया, जो कोमिक से 100 किमी दूर है। इसका उद्देश्य बेसिन के ग्लेशियर का अध्ययन करना था। ये ग्लेशियर पिछले हिम युग से भी पहले के यानि लगभग 25 लाख वर्ष पहले के हैं। हिम युग के चरम पर, ये माना जाता है कि एक ग्लेशियर 100 किलोमीटर से भी अधिक तक फैला। अभी, हिमालयन ग्लेशियर की लंबाई कम से कम 30 किमी से अधिक है और यह भारत की कुछ मुख्य नदी प्रणालियों के अस्तित्व की वजह है।
शर्मा सुतरी ढाका ग्लेशियर से दो किलोमीटर दूर खड़े हैं, जो बेसिन के 146 ग्लेशियर में से एक है। शर्मा कहते हैं, “आप इन चट्टानों को देखिए, अब भी इसके नीचे बर्फ है। लेकिन यह बर्फ मर चुकी है। ग्लेशियर से कट रही है। इतिहास में कभी यह एक सक्रिय ग्लेशियर का हिस्सा रहा होगा।” जलवायु परिवर्तन की जो पहेली है, उसमें हिमालय लापता है। हिमालयी ग्लेशियरों के बारे में बहुत सारी अनिश्चितता इस तथ्य से पैदा होती है कि उपग्रह छवियों से बने निष्कर्ष की पुष्टि करने के लिए आवश्यक फील्ड रिसर्च मौजूद नहीं हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरमेंटल साइंसेज के डीन ए. एल. रामनाथन कहते हैं, “भारतीय हिमनदों से जुड़े अधिकतर आंकड़े रिमोट सेंसिंग से मिलते हैं, जो हिमनदों के पीछे हटने की महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं। हालांकि, यह मात्रा में परिवर्तन की गणना करने के लिए अपर्याप्त है। यह काम केवल ग्राउंड डेटा के माध्यम से किया जा सकता है।”
जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) द्वारा सूचीबद्ध भारतीय हिमालय के 9,575 ग्लेशियरों में से केवल 25 के ग्राउंड डेटा उपलब्ध है। क्रायोस्फियर रिसर्च, एनसीएओआर के प्रमुख थंबन मेलोत कहते हैं, “हम नदी प्रणाली में ग्लेशियर के योगदान के बारे में भी निश्चित नहीं हैं। यही कारण है कि जितना संभव हो उतने फील्ड अनुसंधान परियोजनाओं को शुरू किया जाए। हमने अभी हाल ही में यह काम शुरू किया है।” पिछले साल, एनसीएओआर ने हिमांश की स्थापना की जो भारत की पहली ऊंची फैसिलिटी (सुविधा) है। ये स्पीति के सुतरी ढाका ग्लेशियर से 3 किमी नीचे है। यह समुद्र तल से 4,503 मीटर की ऊंचाई पर है। शर्मा के नेतृत्व में छह शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा इसकी निगरानी की जा रही है। यहां दो आवास इकाई और एक प्रयोगशाला है। टीम वर्तमान में बेसिन के छह ग्लेशियर्स का अध्ययन कर रही है।
शर्मा कहते हैं, “यहां पर हमें विभिन्न आकारों और स्थिति के हिमनदों का अच्छा मिश्रण मिला है, जिसका हम अध्ययन कर सकते हैं। एक ग्लेशियर का आकार उसके व्यवहार और प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करता है।” देश के सभी ग्लेशियरों के लगभग 70 प्रतिशत छोटे ग्लेशियर हैं, लेकिन कुल हिमनद क्षेत्र का 10 प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं और प्रमुख नदी प्रणालियों में इसका योगदान होता है।
सुतरी ढाका ग्लेशियर से तीन किलोमीटर की दूरी पर, टीम द्वारा स्थापित एक स्टेक (ग्लेशियर को मापने का एक यंत्र) दिखाने के लिए शर्मा रुकते हैं। वह कहते हैं, “जब हमने 2014 में इस स्टेक को यहां लगाया था, तो यह 12 मीटर की गहराई तक गया था, अब यह बर्फ के नीचे सिर्फ 2 मीटर रह गया है।” शर्मा की टीम ने ग्लेशियर को मापने के लिए 20 वर्ग किलोमीटर ग्लेशियर में 40 स्टेक लगाए हैं। पत्थर, हिमोढ़ और बर्फ से गुजरते हुए छह घंटे की मुश्किल यात्रा के बाद टीम 7 किलोमीटर दूर ग्लेशियर में स्थापित शिविर तक पहुंचती है, जहां से नीला आकाश भूरा होना शुरू
हो जाता है।
मिनट भर के अंदर साफ आकाश की जगह हिमपात शुरू हो जाता है, तब ये तंबू ठंडी हवाओं और हिमपात से राहत प्रदान करते हैं। लेकिन जहां तंबू लगाए गए थे, वहां की चट्टानों के नीचे ठोस बर्फ से निकलने वाली ठंड से बचने का कोई रास्ता नहीं था। अगले दो दिनों में, टीम दो मौसम स्टेशन से रीडिंग लेती है। एक शिविर के पास स्थित है और दूसरा और सात किलोमीटर दूर ग्लेशियर में स्थित है। जैविक और रासायनिक गुण का विश्लेषण करने के लिए ये टीम बर्फ के नमूने भी एकत्र करती है। शर्मा कहते हैं कि ये इस बात को समझने के लिए महत्वपूर्ण है कि ग्लेशियर कैसे व्यवहार करते हैं और अलग-अलग कारकों का क्या प्रभाव होता है।
टीम की प्राथमिक चिंता ग्लेशियरों में मास बैलेंस को लेकर है, जो चन्द्रा नदी बेसिन के लिए जिम्मेवार है। शर्मा कहते हैं, “वर्तमान में हमारे पास इस बात का सीमित अनुमान है कि हम किस दर से कितनी बर्फ खो रहे हैं और नदी के लिए यह कितना रास्ता निकल पा रहा है। हम पाते हैं कि मौसम संबंधी और भूभौतिकीय कारक एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसलिए, हम बेसिन के विभिन्न बिंदुओं पर बर्फ की मोटाई और डिस्चार्ज स्तर में परिवर्तन का विश्लेषण कर रहे हैं और इसे मौसम संबंधी निरीक्षण से जोड़ रहे हैं।” टीम ने अब तक आइस कवर की मोटाई और गहराई मापने के लिए बर्फ ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार और स्टेक पर भरोसा किया है। लेकिन, इस साल पहली बार शर्मा स्थलीय लेजर स्कैनर का इस्तेमाल करेंगे, जो भौगोलिक स्थिति का वृहद 3डी जानकारी प्रदान करता है। वह कहते हैं कि यह ग्लेशियर और माउंटेन फेस का सर्वेक्षण करने में लगने वाले समय को कम कर देगा।
टीम आसपास के दो ग्लेशियर झीलों का निरीक्षण कर रही है। एक है समुद्र ताल और दूसरा गेपांग गथ। 1970 के दशक के उत्तरार्ध में उपग्रह से मिले चित्रों से इसकी तुलना करते हुए, (हाल ही में अमेरिकी खुफिया एजेंसी द्वारा इसे विवर्गीकृत किया गया है) शर्मा की टीम के सदस्य लवकुश पटेल दिखाते हैं कि कैसे पिछले 40 वर्षों में दोनों झीलों में अविश्वसनीय विस्तार हुआ है। पटेल कहते हैं, “दोनों झीलों का विस्तार स्पष्ट है। 2014 से मैंने ग्लेशियर से भारी मात्रा में बर्फ को गेपांग गथ झील में जाते देखा है। इस प्रकार की घटना ध्रुवीय क्षेत्र के बाहर किसी ने नहीं सुना था और अब हम हिमालयी हिमनद झीलों में ऐसा होता देख रहे हैं।”
शोधकर्ता यह भी देख रहे हैं कि कैसे मलबे ग्लेशियर व्यवहार को प्रभावित करते हैं। चंद्रा बेसिन के आसपास के ग्लेशियरों में अलग-अलग स्तर पर मलबा है जो इसे अध्ययन के लिए एक आदर्श स्थान बनाता है। पटेल कहते हैं, “हमने देखा कि पतला मलबा सौर विकिरण को अवशोषित करता है और बड़े पैमाने पर बर्फ पिघलने का कारण बनता है लेकिन मोटा और यूनिफॉर्म मलबा वास्तव में ग्लेशियर को इंसुलेट करके पिघलने से बचाता है।”
इस साल टीम ने ग्लेशियर के अंदर तापमान अंतर की जांच करने के लिए सतह से 15 मीटर नीचे तक थर्मिस्टॉर्स (तापमान मापने का यंत्र) स्थापित किए। अब भी ग्लेशियर की सतह 15 मीटर मानी जाती है जबकि इसकी गहराई सैकड़ों मीटर में है। ऐसे में थर्मिस्टॉर्स को स्थापित करना आसान नहीं है। इस प्रक्रिया में घंटों का धैर्य चाहिए। घंटों तक ड्रिलिंग करनी पड़ती है क्योंकि सतह के कुछ ही मीटर बाद कठोर बर्फ मिलना शुरू हो जाती है। शर्मा कहते हैं, “तापमान की प्रोफाइलिंग हमें ऊर्जा स्थानान्तरण की एक स्पष्ट तस्वीर देगी। यह हमें ऊर्जा और तापमान में बर्फ के प्रवाह में आने वाले परिवर्तन के बारे में बताएगी।”
आगे उत्तर क्षेत्र में, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (एनआईएच), रुड़की के अनुभवी ग्लेशियोलॉजिस्ट रेनोज थाययेन के नेतृत्व में एक टीम ने लद्दाख के खारदुंगला दर्रा के आसपास के ग्लेशियर में 10 मीटर तक थर्मीस्टॉर लगाए हैं। खारदुंगला दुनिया की सबसे ऊंची मोटर सड़क में से एक है। थाययेन का शोध का दायरा एनसीएओआर के अपने समकक्षों से थोड़ा अलग है। थाययेन कहते हैं, “हमने इस क्षेत्र को इसलिए चुना है क्योंकि यह पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है और इसके चारों ओर सड़कों पर भारी वाहनों का लोड है। लद्दाख में पानी का काम मुख्य रूप से ग्लेशियर से ही चलता है। इसलिए, कोई भी परिवर्तन क्षेत्र के जल बजट के लिए महत्वपूर्ण है। हम सिर्फ हिमनदों के बजाय जलग्रहण क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।”
जिस दिन डाउन टू अर्थ ने यहां दौरा किया, थाययेन की टीम खारदुंग पर एक स्वचालित मौसम स्टेशन स्थापित करने में व्यस्त थी। खारदुंग सिर्फ 0.56 वर्ग किमी का एक छोटा ग्लेशियर है, लेकिन खारदुंगला से निकटता की वजह से यह संवेदनशील था। ग्लेशियर पर सड़क का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। थाययेन की टीम खारदुंगला के निकट दो ग्लेशियर, एक छोटा ग्लेशियर खारदुंग और दूसरा बड़ा ग्लेशियर पूचे ग्लेशियर (15.7 वर्ग किमी) पर जलवायु संबंधी स्थितियों की निगरानी करेगी। फिर इस डेटा को डिस्चार्ज स्टेशनों से एकत्र मात्रात्मक और गुणात्मक डेटा के साथ जोड़ कर देखेगी। टीम पिछले कुछ सालों में दोनों ग्लेशियर के सर्दियों और गर्मियों के मास बैलेंस, सरफेस ऊर्जा संतुलन और आइसोटोप विशेषताओं की जानकारी एकत्र करने में व्यस्त रही है। थाययेन को ब्लैक कार्बन तक अपने शोध को विस्तारित करने की उम्मीद है। ब्लैक कार्बन को पिघलाव और मौसम में बदलाव के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
स्पीति और लद्दाख की दोनों परियोजनाओं का अंतिम उद्देश्य समान है: पूरे विश्व की अन्य भूभौतिकीय प्रणाली मॉडल के अनुसार, हिमालयी क्षेत्र के व्यवहार का मॉडल तैयार करने में सक्षम होना। थाययेन कहते हैं, “पहाड़ों में ग्लेशियर व्यवहार के लिए उपलब्ध मॉडल आल्प्स पहाड़ों का सबसे अच्छा है। लेकिन, इसे हिमालय पर लागू नहीं किया जा सकता।” देश के कुछ प्रशिक्षित ग्लेशियोलॉजिस्ट में से एक, मोहम्मद फारुख आजम कहते हैं, “भारतीय ग्लेशियोलॉजी अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है। आंकड़ों में बहुत अधिक अंतराल है और रिकॉर्ड बहुत खराब है। इसलिए डेटा संग्रह इस समय हमारी प्राथमिकता है।” आजम का कहना है कि हिमालय ग्लेशियर को समझने का दावा करने से पहले हमें कई बाधाएं पार करनी पड़ सकती हैं। दुर्भाग्य से, वह कहते हैं कि इनमें से ज्यादातर बाधाएं वित्तीय और नौकरशाही से जुड़ी हैं। आजम के इस दावे को दोनों टीमों के सदस्यों द्वारा पुष्टि की गई, जिनसे डाउन टू अर्थ ने बातचीत की। ये बातें दोनों परियोजनाओं में किए गए निवेश से भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थीं।
हिमांश सीधे सरकार द्वारा वित्त पोषित है। लद्दाख की एनआईएच प्रोजेक्ट को प्रति-प्रोजेक्ट आधार पर सरकार द्वारा संचालित विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड से वित्त मिलता है। जहां एनसीएओआर टीम के पास सुसज्जित स्टेशन है, वहीं एनआईएच की टीम आवास के लिए साधारण यूनिट का इस्तेमाल करती है। इसके अलावा, एनआईएच प्रोजेक्ट के पास अस्थायी पेरोल पर चार पोर्टेर (कुली) है जबकि हिमांश के पास 10 स्थायी पोर्टर्स है। ये पोर्टर अधिकांश पर्वतीय अभियानों की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जहां वित्त समस्या है, वहीं लालफीताशाही भी एक और समस्या है। शर्मा कहते हैं, “उपकरणों के लिए अनुमति प्राप्त करने में वर्षों लग सकते हैं। इसीलिए, हिमांश स्टेशन को पूरा करने में देरी हुई।” हिमांश रिसर्चर भानु प्रताप कहते हैं कि एक अन्य समस्या प्रशिक्षित पेशेवरों की कमी भी है। भानु भारत के अंटार्कटिका अभियान का हिस्सा भी रहे हैं। वह कहते हैं, “वित्त पोषण में कमी ने वास्तव में प्रशिक्षित मानव संसाधनों का भी अभाव पैदा किया है। यह धीरे-धीरे ही सही लेकिन बदल रहा है।” रामनाथन कहते हैं, “विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग, स्विस सरकार के साथ 80 ग्लेशियोलॉजिस्ट को प्रशिक्षण दे रहे हैं, जिनमें से 40 को उन्नत प्रशिक्षण मिलेगा।”
नीति निर्माण में विज्ञान को एकीकृत करने से ही देश में ग्लेशियोलॉजी को प्रोत्साहन मिलेगा। थाययेन कहते हैं, “अनुसंधान हो रहे हैं, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। शोध के निष्कर्षों का जल बजट और जल नीति में अभी तक इस्तेमाल ही नहीं हुआ। इन्हें सबसे अधिक महत्व मिलना चाहिए। अगर पहले इसे ठीक किया जाए तो दूसरी समस्याएं भी हल हो जाएंगी।”