पिछले महीने कूड़े का पहाड़ ढहने से दिल्ली में दो लोगों की मौत हो गई। कूड़े के ढेर को लैंडफिल (भराव क्षेत्र) नामक बेहतर शब्द दे दिया गया है। दिल्ली का यह भराव क्षेत्र 50 मीटर ऊंचा है। यह शहर के तीन भराव क्षेत्रों में एक है जो अपनी क्षमता काफी पहले ही पूरी कर चुका है। सब जानते थे कि यह कभी भी हादसे का सबब बन सकता है।
आखिर ऐसा हो ही गया। इन सबके बीच बड़ा सवाल यह है कि शहर अपने कूड़े के पहाड़ों का क्या करे? हादसे के एक दिन बाद ही निगम अधिकारियों ने ऐसे नए स्थान की तलाश शुरू कर दी जहां कूड़ा डाला जा सके। एक नया स्थान चिन्हित भी कर लिया गया। लेकिन रानी खेडा के ग्रामीणों ने अपने गांव में कूड़ा डालने का विरोध किया। “हमारी लाश पर”, “हमारे घर के पास नहीं” जैसे नारों के साथ ग्रामीणों ने निगम के इस कदम के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।
आखिर इस विरोध में क्या बुराई है? क्या कोई अपने घर के पास कूड़े का ढेर चाहेगा? यह हमारा कचरा है और इसे हमारे पास ही होना चाहिए।
यह तथ्य है कि “नॉट इन माई बैकयार्ड” (निंबी) अर्थात मेरे घर के पास नहीं जैसा विरोध कचरा प्रबंधन में मील का पत्थर साबित हो सकता है। कचरा प्रबंधन का वैश्विक इतिहास इसका गवाह है। 1980 की शुरुआत में अमेरिका और यूरोपीय देशों ने कचरे से भरे पानी के जहाजों को अफ्रीका पहुंचाया था। तब यह एक वैश्विक कलंक बन गया। इस वजह से ही विश्व बासेल सम्मेलन पर सहमत हुआ था। यह सम्मेलन खतरनाक कचरे को दूसरी जगह भेजने के खिलाफ और उसके निपटान पर केंद्रित था।
यह न्यूयॉर्क के उन अमीर लोगों को कचरा था जो इसे अपने पास नहीं रखना चाहते थे या उसका निस्तारण नहीं करना चाहते थे। उन्होंने अपने कचरे को अफ्रीका के गरीब लोगों के पास भेज दिया था। लेकिन जब गरीब इसके विरोध में खड़े हुए तो अमीरों को अपना कचरा वापस लेना पड़ा और उन्हें इसके निपटान के तरीकों पर गौर करना पड़ा। मजबूरी में ऐसा इसलिए करना पड़ा ताकि उन्हें कूड़े की बदबू से दो चार न होना पड़े। इस तरह पश्चिम ने कूड़े का प्रबंधन शुरू किया। उनके पास अपने कचरे के पुनः उपयोग, पुनर्चक्रण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
यही वजह है कि भारत को भी अपने निंबी का जश्न मनाना चाहिए। लंबे समय तक हमने अपने शहर के बैकयार्ड जहां गरीब रहते हैं, का इस्तेमाल किया है। जैसे-जैसे शिक्षा, राजनीतिक समझ और सामाजिक जागरुकता बढ़ रही है, गरीब पड़ोसी और ग्रामीण भी कहने लगे हैं कि अब बहुत हुआ “आपका कचरा हमारे घर के पास नहीं डाला जाएगा।” यह अलग बात है कि उनका विरोध नजरअंदाज किया जा रहा है (देखें मानचित्र पेज 35)। सरकारों और न्यायपालिका ने भी ऐसे विरोध के खिलाफ आदेश सुनाया है। ऐसा इसलिए क्योंकि कचरे का निस्तारण निगमों का महत्वपूर्ण काम है। यही वजह है कि भराव क्षेत्रों के निर्माण, कंपोस्ट इकाई या कचरे से ऊर्जा उत्पन्न करने के प्लांट से जुड़े प्रदर्शनों को अनावश्यक मान लिया जाता है।
विरोध प्रदर्शनों के अलग नतीजे निकलते हैं। नतीजे इस बात पर निर्भर करते हैं कि प्रदर्शन करने वाले कौन हैं- गरीब या अमीर। यही वजह है कि गरीब का “मेरे घर के पास नहीं” अमीर से अलग है। मध्यम वर्ग का प्रदर्शन समस्या को दूसरे के घर की ओर में धकेल देता है और यह मान लिया जाता है कि वहां कोई नहीं रहता। लेकिन इसी जगह गरीब रहते हैं। वे प्रदर्शन की हिम्मत नहीं जुटा पाते। जब गरीब पड़ोसी शांत रहना बंद कर देते हैं तो कचरे को उनके पास फेंकना आसान नहीं होता।
फिर इसका प्रबंधन अलग तरीके से करना पड़ता है। गरीब के “मेरे घर के पास नहीं” में वह क्षमता है जो कचरा पर क्रांति ला सकती है। तब वह कचरा नहीं बल्कि संसाधन बन जाएगा। भारत के कई अग्रणी शहरों में ऐसा हो भी रहा है। इन शहरों ने ठोस कचरा प्रबंधन के उपायों की खोज कर ली है क्योंकि उनके पास इसके अलावा अन्य विकल्प नहीं था।
विलप्पीसाला गांव ने तिरुअनंतपुरम के कचरे को गांव में डालने से रोकने का प्रयास किया था। हालांकि गांव सुप्रीम कोर्ट में केस हार गया लेकिन ग्रामीणों ने हार नहीं मानी और संघर्ष करते रहे। इसी का नतीजा है कि शहर को अपने कचरे से निपटने के लिए वैकल्पिक उपाय करने पड़े। नगरपालिका ने साफ कह दिया है उसके पास कूड़ा डालने की जगह नहीं है, इसलिए वह कूड़ा नहीं उठाएगी। शहर के लोगों को या तो बदबूदार कूड़े के साथ रहना होगा या इसे अलग-अलग, प्रसंस्कृत और पुनर्चक्रण करना सीखना होगा। भराव क्षेत्र रोकने का ऐसा ही विरोध केरल के शहर अलप्पुझा में भी देखने को मिला।
कचरे के विरुद्ध विद्रोह बढ़ रहे हैं। पुणे में उरूली देवाची पंचायत के गांव ने लगातार कहा कि उसने शहर का कचरा काफी बर्दाश्त कर लिया है। बैंगलुरू में ग्रामीण कन्नाहाली और बिंगीपुरा कूड़ा भराव क्षेत्र का विरोध कर रहे हैं। वेल्लोर में भी सदुपेरी साइट के आसपास 18 गांवों के ग्रामीण कूड़े के विरोध में खड़े हैं। विरोध का दायरा बढ़ता जा रहा है। यह अपने तरीके से आगे बढ़ेगा।
अभी दिल्ली जैसे शहरों के प्रबंधक कूड़े के लिए जमीन तलाश रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि वे विरोध को शांत कर देंगे या किसी तरह न्यायालय से अपने पक्ष में आदेश पारित करवा लेंगे। जब तक ऐसा नहीं होता वे कूड़ा डालते रहेंगे और उम्मीद करेंगे कि कूड़े का पहाड़ न धसके। यह टिकाऊ तरीका नहीं है। अब यह मानने का वक्त है कि ये विरोध न केवल जायज हैं बल्कि आवश्यक भी हैं।
इस विरोध से ही मांग उठेगी कि दिल्ली किसी अन्य भराव क्षेत्र की ओर न देखे। शहर को अपने कूड़े को अपने पास ही रखना होगा, गरीब के यहां नहीं। इसके लिए कचरा प्रबंधन के तमाम उपाय करने होंगे। भले ही वह कंपोस्टिंग हो या कचरे से ऊर्जा उत्पादन अथवा पुनर्चक्रण। आखिर यह हमारा कूड़ा है। इसे हमारे पास ही होना चाहिए।
धीरे-धीरे ही सही लेकिन पूरे देश में शहर के कचरे के खिलाफ ग्रामीण एकजुट हो रहे हैं। इसे कचरा क्रांति कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु व गुजरात से अनिल अश्विनी शर्मा, दिल्ली-एनसीआर से स्वाति सिंह व भागीरथ, ओडिशा से प्रिय रंजन साहू, उत्तर प्रदेश से नचिकेता शर्मा, बिहार से प्रेरणा, झारखंड से आशुतोष, उत्तराखंड से त्रिलोचन भट्ट और आंध्र प्रदेश से रितेश रंजन की रिपोर्ट
ये वे नामालूम से विद्रोही हैं जिन्हें सबसे ज्यादा उपेक्षित किया गया है। अपनी राह पर चले ये जीते भी हैं और खतरे की घंटी भी हैं। जीते इसलिए कि ये शहरी ठोस कचरे के खतरे के खिलाफ युद्धरत हैं। ये भारतीय शहरों को अपना कचरा ठिकाने लगाने के लिए अपना तरीका इजाद करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। खतरे की घंटी इसलिए कि अगर शहर कचरा प्रबंधन में नाकाम रहे तो ये उपेक्षित विद्रोही बड़े संघर्ष को पैदा कर सकते हैं।
दिल्ली के रानीखेड़ा गांव से लेकर भोपाल के भानपुरा गांव, अहमदाबाद के पिराना गांव और चेन्नई के पेरंगइगुड़ी सबदूर बस एक ही आवाज बुलंद हो रही है। यह आवाज है “हम अपने गांव में शहरी कूड़ा नहीं डालने देंगे।” इस विरोध की जद में ग्रामीणों की यह भी मांग की है कि शहरी जनता अपने कचरा का स्वयं प्रबंधन करे। ग्रामीणों का विरोध कोई अचानक नहीं फूटा। उनका संघर्ष कई सालों से चल रहा है लेकिन उनकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही है।
खंती हटने का इंतजार
भोपाल के भानपुरा गांव के मुहाने पर बनी पुलिया पर कपार(सिर) थामे बैठी 68 वर्षीय सुंदर बाई बताती हैं, “भानपुरा खंती (कचरे का गड्ढा) तो कातिल कचरा है। सालों से शहरियों की गंदगी हम ही ढो रहे हैं। यह अब तक न जाने कितनों को लील गया और न मालूम और कितनों की जिंदगी मिटाएगा।”
भानपुरा खंती की दुर्गंध से आसपास रहने वाले हजारों ग्रामीण त्रस्त हैं। खंती के आसपास कुल 13 गांव बसे हैं। भानपुर के ही एक परेशान हाल ग्रामीण अजब सिंह ने कहा,“भोपाल और आसपास के सात जिलों के लिए अब कचरे का एक नया पर्यायवाची शब्द “भानपुरा” बन चुका है। पिछले 43 साल से इस गांव में बनी खंती में भोपालवासियों की गंदगी समा रही है। हालांकि अब यह गड्ढा न होकर लगभग 65 फीट ऊंचे पहाड़ (लगभग छह मंजिली इमारत) का रूप धारण कर चुका है, जिसमें प्रतिदिन भोपाल नगर निगम लगभग 700 मीट्रिक टन कचरा डालकर और ऊंचा करता जा रहा है।” सुंदर बाई इस ऊंचे होते पहाड़ की ओर आश्चर्य से देखते हुए बताती हैं, “हमें क्या मालूम था कि हमारी खेती की जमीन (1974 में भोपाल नगर निगम का अधिग्रहण) इस कचरे के पहाड़ को बनाने के लिए ली जा रही है।
इसे देखकर तो आदमी अघमरा हो जाए। कितने बरस बीत गए दुर्गंध सहते-सहते, लगता है मेरे जीते जी तो यहां की बदबू जाने से रही।” सुंदर बाई की बात को आगे बढ़ाते हुए गांव के ही युवक नंदकिशोर ने कहा, “मैं तो जब पांचवीं में पढ़ता था तब से इस खंती को हटाने की बात सुनते आ रहा हूं और अब तो मैं बारवीं कक्षा में हूं और कानों में बस वही सुन रहा हूं कि शीघ्र ही हटेगी।”
भानपुर खंती ने गांव के लगभग हर दूसरे घर में एक को बीमार बना दिया है। बीमार होने वालों में अधिकांशत: औरतें, बच्चे व बूढ़े शामिल हैं। हालांकि इसी गांव के आईटीआई करने वाले नरेंद्रनाथ बताते हैं, “हम तो अभी जवान हैं लेकिन फलांग भर साइकिल चलाई नहीं कि सांस फूल जाती है। हममें से अधिकांश को सांस फूलने, खांसी, सिर व पेट दर्द की शिकायत सदा बनी रहती है। कितना भी हम इलाज कराएं लेकिन यह जाती नहीं।”
भानपुरा गांव निवासी सुमेश गंगेल सवाल उठाते हैं, “शहर का कचरा हमारे ही ऊपर क्यों डाल रहे हो? क्या हम इंसान नहीं है। शहरी कचरे का प्रबंधन तो कायदे से स्वयं शहरियों को ही करना चाहिए।” खंती से एक अन्य प्रभावित गांव पिपलिया के बुजुर्ग राजकुमार अहिरवार कहते हैं “यह हमारे लिए कितने शर्म की बात है जिस इलाके (भानपुरा) में हमने अपनी पूरी जिंदगी बिता दी है, उसी जगह पर निगम ने शहर में बसे झुग्गीवासियों के लिए घर बनाए हैं लेकिन झुग्गीवालों ने यहां आने से मना कर दिया है।”
भानपुरा गांव में बने कचरे की खंती के एक ओर भोपाल-दिल्ली रेलवे लाइन, तो दूसरी ओर भोपाल-इंदौर राजमार्ग और तीसरी ओर पात्रा नदी बहती है। पिछले 23 सालों से इस खंती को हटाने के लिए संघर्षरत “भानपुरा खंती हटाओ अभियान संघर्ष समिति” के संयोजक अशफाक अहमद बताते हैं, “भानपुरा खंती पर बना यह विशालकाय पहाड़ यदि चौबीसों घंटे व्यस्त रेलवे लाइन या राजमार्ग की ओर धसक गया तो क्या होगा।” भोपाल में दो सितंबर से 15 सितंबर 2017 तक लगातार बारिश हुई है। इससे कचरा राजमार्ग पर पसर जाता है।
अहमद ने बताया कि गत पांच सितंबर, 2017 को यहां भारी बरसात के कारण खंती का कचरा राजमार्ग पर फैल गया था। इसके कारण लगभग 6 घंटे से अधिक समय तक रास्ता बंद रहा। कचरे का पहाड़ केवल राजमार्ग या रेललाइन को ही नहीं प्रभावित कर रहा है बल्कि सीधी बहती पात्रा नदी को सर्पीली बना देने पर आमदा है। अहमद कचरे के पहाड़ से सटी नदी की ओर इशारे करते हुए बताते हैं “कचरे के पहाड़ ने नदी की धारा को लगभग 90 अंश तक मोड़ दिया है। आशंका है कि यह नदी आने वाले समय में 45 अंश तक भी मुड़ सकती है।”
भानपुरा खंती के आसपास बसे अकेले तेरह गांव ही प्रभावित नहीं हैं। बल्कि इससे बड़ी संख्या में भोपाल के कई मोहल्ले भी प्रभावित हो रहे हैं। इस संबंध में भोपाल में पर्यावरणीय विषयों पर लगातार लिखने वाले स्वतंत्र पत्रकार देवेंद्रे शर्मा बताते हैं “खंती में शहर के आवारा पशुओं की लाशों को ऐसे ही फेंक दिया जाता है। यही नहीं इस खंती में यूनियन कार्बाइड कांड (2-3 दिसंबर, 1984) से निकली जहरीली गैस से मरे जानवरों को भी गाड़ दिया गया था। उस समय कई इंसानी लाशों को भी यहीं दफनाया गया था। हालांकि प्रशासन का दावा था कि वे इसे होशंगाबाद ले जाकर दफन कर रहे हैं।”
पत्रकार विजय एस. गौर बताते हैं “इस खंती में जब तब निगम कर्मी आग लगा देते हैं ताकि कचरा और कम हो जाए। लेकिन इस जहरीले धुएं से भोपाल के ग्रामीण व शहरी इलाकों की लगभग 2 लाख 40 हजार की आबादी प्रभावित हो रही है। इस खंती के आसपास लगभग बीस किलोमीटर दूर तक लोगों की आंखों में जलन शुरू हो जाती है। यह जलन कम से कम पांच से छह घंटे तक बनी रहती है। इस धुएं की वजह से आसपास के इलाके में धुंध छा जाती है।”
भानपुरा गांव में 1974 में भोपाल के तत्कालीन नगर निगम आयुक्त एम.एन.बुच ने गांव के ही किसानों की जमीन अधिग्रहण करके एक खंती खुदवा कर यहां कचरा डलवाना शुरू करवाया था। जिनकी जमीनें अधिग्रहण की गईं थीं, उनमें से कम से कम आधे दर्जन किसानों को अब तक अपनी जमीन का मुआवजा नहीं मिल पाया है। इस संबंध में विजय एस. गौर बताते हैं “यह खंती जब खुदवाई गई थी तब तो इसका क्षेत्रफल बहुत छोटा था लेकिन अब यह 84 एकड़ तक फैल चुका है। निगम इस खंती को हटाने की घोषणा पिछले चार सालों में चार बार कर चुका है।”
भानुपरा खंती को हटाने के लिए अक्टूबर, 2013 में जनहित याचिका दायर करने वाले पर्यावरणविद सुरेश पांडे ने बताया, “राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने 2005 के बाद के पदस्थ सभी नौ नगर निगम आयुक्तों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के आदेश जारी किए थे। साथ ही पांच-पांच करोड़ रुपए की पेनाल्टी लगाई थी। वह कहते हैं, “यह हमारा दुर्भाग्य है कि इस खंती के आसपास रहने वाली आबादी के 90 फीसदी लोग किसी न किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हैं। यह आंकड़े सरकारी हैं और वहां लगे स्वास्थ्य शिविरों के माध्यम से निकलकर आए हैं।” नगर निगम की अदालत में रखी रिपोर्ट में बताया गया है कि खंती के आसपास के 5 किलोमीटर के दायरे की जमीन के नीचे लगभग 300 फीट नीचे तक 2400 गुना अधिक कोलीफॉर्म (सूक्ष्म बैक्टीरिया) हो चुकी है।
इससे आसपास के लोग डायरिया व पेट की गंभीर बीमारी से पीड़ित होते हैं। यह कल्पना की जा सकती है कि इस इलाके के खेतों में उगाई जाने वाली साग-सब्जियों में कितना जहर है। यही नहीं दिसंबर, 2016 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की जांच के बाद यह बात सामने आई है कि सब्जियों में भारी मात्रा में हैवी मेटल के अंश मिले हैं। इससे लोगों के दिमाग कुंद हो जाते हैं। इसके अलावा हाथ हिलने शुरू हो जाते हैं।
सुरेश पांडे ने बताया कि मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी कहते हैं कि भानपुरा खंती इलाके में वायु प्रदूषण का स्तर इतना अधिक है कि हमारे प्रदूषण मापक यंत्र ही काम करना बंद कर देते हैं।
भानपुर खंती स्थानांतरित करने संबंधी मामले के बारे में मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भोपाल के क्षेत्रीय अधिकारी पुष्पेंद्र एस.बुंदेला बताते हैं,“भानपुरा खंती को हटाने की प्रक्रिया चल रही है, यह प्रक्रिया एनजीटी के आदेशानुसार दिए गए दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखकर की जा रही है। नया भराव क्षेत्र भोपाल से 25 किलोमीटर दूर आदमपुर छावनी में बनाने की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं।”
एक तरफ तो सरकारी अधिकारी आदमपुर छावनी गांव में नया भराव क्षेत्र शुरू करने की अपनी पूरी तैयारी करने की बात कर रहे हैं। लेकिन हकीकत इससे परे है। जिस गांव में भराव क्षेत्र बनाने की बात तय की गई है उस गांव में अब तक एक सरकारी पत्थर नहीं लगा है। आदमपुर छावनी गांव के उप सरपंच प्रशांत कुमार बताते हैं, “2008 में निगम ने शहर से 25 किलोमीटर दूर आदमपुर छावनी ग्राम पंचायत में स्थित अर्जुन नगर गांव में नया भराव क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव पास किया था। इसकी खर्च लागत 425 करोड़ रुपए रखी गई है। अर्जुन नगर गांव में कुल 160 परिवार हैं और इसमें से 90 परिवारों को अब तक सरकार ने दूसरी जगह पर बसा दिया है। लेकिन 70 परिवार यहां से किसी भी हाल में जाने को तैयार नहीं हैं।”
गांव में बच रहे परिवार की सदस्य लीला देवी बताती हैं, “हम किसी भी हाल में शहर का कचरा यहां नहीं डालने देंगे। निगम अधिकारी समझा रहे थे कि भराव क्षेत्र से परेशानी नहीं होगी। हमने उन्हें सुझाव दिया कि जब किसी प्रकार की परेशानी नहीं होनी है तो फिर इतनी दूर क्यों कचरा ढोकर लाओगे, अच्छा है कि भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर क्यों नहीं भराव क्षेत्र बनवा देते।”
डाउन टू अर्थ के रिपोर्टरों ने जब देश के अलग-अलग राज्यों में इस मुद्दे को लेकर लोगों से बात की तो ऐसी कई कहानियां सामने आईं।
भारत की शहरी आबादी के सामने एक बड़ी चुनौती है-अपने ठोस कचरे का निस्तारण करना। भारत की शहरी आबादी प्रति वर्ष 3-3.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है और ऐसे में शहरी कचरे के प्रति वर्ष 5 प्रतिशत की दर से बढ़ने की आशंका है। लेकिन शहरों के पास इस कचरे के निस्तारण के लिए कोई जगह या साधन नहीं है।
वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली योजना आयोग की समिति ने 2014 की रिपोर्ट में यह पाया कि भारत की शहरी आबादी के लिए प्रति व्यक्ति 0.45 किग्रा. प्रतिदिन के आधार पर प्रतिवर्ष 6 करोड़ 20 लाख टन सार्वजनिक ठोस कचरा पैदा होता है। सीपीसीबी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत हर वर्ष 5 करोड़ 20 लाख टन कचरा उत्पन्न करता है, जिसमें से लगभग 23 प्रतिशत टन कचरे को भराव क्षेत्र में ले जाया जाता है अथवा विभिन्न तकनीकों का प्रयोग करके प्रसंस्कृत किया जाता है।
भारत में उत्पन्न कचरे से संबंधित आंकड़ों की समस्या यह है कि ये सभी आंकड़े सीपीसीबी की 2004-05 की 59 शहरों (35 महानगर और 24 राज्य राजधानियां) की रिपोर्टों से लिए गए हैं जिसमें नागपुर स्थित राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) ने सहायता की है। यह देश में उत्पन्न ठोस कचरे के सही आंकड़ों और अनुमानों की आखिरी रिपोर्ट थी।
अहमदाबाद का पिराना भी एक ऐसा ही गांव हैं जहां के ग्रामीण शहर की गंदगी के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। महात्मा गांधी स्वच्छता के प्रतीक थे लेकिन उनके शहर के एक हिस्से को 21वीं सदी के विकास की चमचमाती दुनिया के निवासियों ने जहन्नुम बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अहमदाबाद के बाहरी इलाके में बसे पिराना गांव में कचरे का लगभग 75 फीट (लगभग सात मंजिला इमारत) ऊंचा पहाड़ बन चुका है। इसी पहाड़ नीचे पिराना बसा है। गांव के 40 वर्षीय मोहसिन कचरे के पहाड़ की ओर अंगुली दिखाते हुए बताते हैं “जहां हम और आप खड़े हैं, यदि यह पहाड़ धसक जाए तो दिल्ली के गाजीपुर जैसी घटना को दोहराने में देर नहीं लगेगी। यहां हजारों लोग रोज ही इस डर में जीते हैं कि कभी भी यह कचरा हमें हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सुला सकता है।”
पिराना गांव में नारोदा पाटिया (2002 के दंगे) से विस्थापित हुए सैकड़ों लोगों को बसाया गया है। निराश मोहसिन कहते हैं, “अधिकांश हमारे बाशिंदे तो दंगे-फसाद में मारे गए और उससे जो बच-खुच गए हैं, वे पिछले पंद्रह-सोलह सालों से इस कचरे से होने वाली बीमारी से तिल-तिल कर मर रहे हैं।” यहां अधिकांश लोग दिहाड़ी पर काम करते हैं लेकिन फिर भी हर हफ्ते निगम कार्यालय पर जाकर अपना विरोध प्रदर्शन करने से पीछे नहीं हैं। गांव में ही सिलाई का काम करने वाले मनहर कहते हैं “गोधरा धमाल के बाद हमें इस नर्क में बसाया गया। यहां और कचरा न डाला जाए और इसे हटाने के लिए हम पिछले डेढ़ दशक से सरकार से लड़ रहे हैं।”
सन 1980 से पिराना में कचरा डाला जा रहा है। यहां क्षमता से तीन से चार गुना अधिक कचरा डाला जा रहा है। यह बात राज्य के पर्यावरण विभाग द्वारा 2015 में गठित कमेटी ने कही है। कमेटी ने राज्य सरकार को स्पष्ट रूप से सिफारिश कि यह कचरा का पहाड़ पिराना से हटाया जाए। कमेटी ने कहा कि इसके कारण भूमिगत जल तेजी से प्रदूषित हो रहा है और इसका असर अब साबरमती नदी पर भी पड़ रहा है। रिपोर्ट को 16 मार्च 2017 को गुजरात विधानसभा में रखा गया। सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात भी निकलकर आई है कि 2000 से अब तक अहमदाबाद नगर निगम की बोर्ड बैठकों में किसी भी पार्षद ने इस भराव क्षेत्र के बारे में कोई भी मामला नहीं उठाया। विधानसभा में भी चर्चा नहीं हुई है।
2015 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से आए छात्र आदिल हुसैन ने इस डंपिंग जोन का सर्वें किया। इसमें चालीस घर शमिल थे। इसमें पाया गया कि हर घर में कोई न कोई शख्स किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त है। इसमें भी किडनी की बीमारी से अधिक लोग प्रभावित थे। इस सर्वे में एक और तथ्य सामने आया कि 19 लोग किडनी खराब होने के कारण मरे।
पिराना गांव में भराव क्षेत्र बंद करने को लेकर अहमदाबाद उच्च न्यायालय में 2016 में जनहित याचिका दायर करने वाले इंसाफ फाउंडेशन के अध्यक्ष कमाल सिद्दीकी ने बताया, “अगस्त, 2017 हुई भारी बारिश में पिराना कचरे का पहाड़ धसक गया और इसकी चपेट में पांच वाहन क्षतिग्रत हो गए। किस्मत से इन वाहनों में कोई था नहीं। जनहित की सुनवाई के दौरान अदालत में नगर निगम ने यह स्वीकार किया है कि हम प्रदूषण संबंधी दिशा एवं निर्देशों का पालन ठीक ढंग से नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन जब इसे हटाने की बात सामने आई तो वे शर्तों पर आ गए और बोले कि इसे हटाने के लिए हमने राज्य सरकार से 374 करोड़ रुपए मांगे हैं।”
जनहित याचिका में मांग की गई है कि इस क्षेत्र में एक विस्तृत सरकारी स्वास्थ्य सर्वे कराया जाए। याचिका में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पिराना गांव में लगभग 16,000 परिवार सीधे तौर पर कचरे के पहाड़ से प्रभावित हो रहे हैं। इसके अलावा 25 फीसदी अहमदाबाद की आबादी पर भी सीधे तौर पर इससे होने वाले प्रदूषण का असर पड़ रहा है। इसकी जद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पूर्व विधानसभा क्षेत्र मणिनगर भी आ रहा है।
पिराना गांव में मणिनगर में 150 साल से अधिक समय से बसे 224 छारा आदिवासी परिवारों की झुग्गी तोड़कर यहां बसाने की सरकार की तैयारी थी लेकिन एक भी छारा परिवार यहां बसने को तैयार नहीं हुआ। निगम उनकी झुग्गियां 2004 से तोड़ते आ रहा है। छारा समुदाय के लिए पिछले एक दशक से संघर्ष कर रही बूधन नाट्य मंच की संस्थापक सदस्य कल्पना बेन दांगड़ेकर कहती हैं, “क्या मणिनगर केवल शहरी लोगों के लिए ही आरक्षित किया गया है। इसी के खिलाफ हम संघर्ष कर रहे हैं।”
पिराना गांव से अधिकांश अहमदाबाद निवासी दूर भागते हैं। स्थानीय टैक्सी चालक जायस कुमार कहते हैं, “भाई इस इलाके में कोई भी अहमदाबादी यदि आ जाता है और जब वह वापस जाता है तो उसे यह बताने की जरूरत नहीं होती है, वह कहां से आ रहा है। क्योंकि उसके शरीर से आ रही दुर्गंध और उसकी गाड़ी की हालत खुद-ब-खुद यह बयान कर देती हैं।”
दिल्ली में स्वच्छता के प्रतीक गांव को गंदा करने की कोशिश
और अब गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिल्ली निवास से कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही ऐसे ही कहानी दोहराने की कोशिश जारी है। पिछले 55 सालों से स्वच्छता का प्रतीक रहा दिल्ली का रानी खेड़ा गांव अब केंद्र सरकार को खटकने लगा है। गाजीपुर में जब इंसानों के घर से निकले कचरे ने इंसानों की जान ली तो केंद्र ने पूर्वी दिल्ली का कचरा गांव में डालने का फैसला किया।
रानी खेड़ा वही गांव है जिसने कभी दिल्ली का सबसे स्वच्छ गांव होने का तमगा हासिल किया था। यह तमगा 1962 में केंद्र सरकार में तब की स्वास्थ्य मंत्री रहीं सुशीला नैय्यर ने प्रदान किया था। लगभग 80 हजार की आबादी वाले गांव में देश के सभी हिस्से के लोग आकर रहते हैं। गांव में आजमगढ़ से आए पत्थर घिसाई का काम करने वाले रविंदर चौरसिया ने कहा, “गांव में देश के कोने-कोने से से लोग आकर किराए पर रहते हैं लेकिन हम स्वयं ही यहां की सफाई व्यवस्था का अंग बन जाते हैं।” गांव की गायत्री देवी कहती हैं, “अब केंद्र सरकार के नुमाइंदे उपराज्यपाल ने बिना आगे पीछे देखे इस गांव को कचरा पट्टी बनाने पर तुले हुए हैं। उपराज्यपाल को इतनी ही पूर्वी दिल्ली की सफाई पसंद हैं तो अपनी विशालकाय कोठी के परिसर में कचरा क्यों नहीं डंप करवा लेते। और यदि इसके बाद भी कचरा बचे तो इंडिया गेट का इतना बड़ा लॉन जो पड़ा है।”
पिछले दिनों कई बार गांव में कचरा डालने के विरोध में धरना-प्रदर्शन में शामिल रहीं कमलेश देवी बताती हैं, “इस गांव को सरकार अब तक न स्कूल दे सकी और न ही स्वास्थ्य केंद्र लेकिन अब लगता है सरकार हमें यह कचरा घर तोहफे के रूप देना चाहती है। वह कहती हैं कि हम मर जाएंगे लेकिन गांव के बाहर कचरा नहीं डालने देंगे क्योंकि हम निगम की कचरा उठाने वाले गाड़ी का भी इंतजार नहीं करते। हम अपना कचरा स्वयं ही ठिकाने लगा देते हैं। 65 वर्षीय सुशील प्रकाश का कहना है, “कचरा निस्तारण के लिए बहुत अधिक बुद्धि खरचने की जरूरत नहीं होती है। बस सोच की बात है। वैसे भी यह गांव कोई मंत्री महोदया के पुरस्कार देने मात्र से ही साफ नहीं कहलाने लगा था बल्कि इसे गांव के ही पुराने लोगों ने साफ-सफाई की जो बुनियाद रखी दी थी, उसे ही अब तक हम सब पालन कर रहे हैं।”
अब हम भारत के स्मार्ट शहरों में शामिल ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर का रुख करते हैं।
यहां दारूठेंगो गांव के पास रोज करीब 90 ट्रक भुवनेश्वर का कूड़ा डाला जाता है। आठ साल तक लगातार कूड़ा डालने की वजह से यहां कचरे का पहाड़ बन गया है। इस कचरे में जैव घुलनशील, अघुलनशील, प्लास्टिक और अस्पतालों की सिरिंज आदि रहती हैं। दारूठेंगो के ग्रामीण कालिंदी महापात्रा बताते हैं “हम भुवनेश्वर नगर निगम से उकता चुके हैं। कचरे की धूल उड़कर हमारे घर में आ जाती है। हम न खा पाते हैं, न सो पाते हैं और न ही जागे रह पाते हैं।” ओडिशा के सबसे बड़े गांव में शामिल इस गांव की आबादी करीब 18,000 है। उन्होंने बताया “कूड़े से आने वाली बदबू शाम को उस समय असहनीय हो जाती है जब कूड़े के पहाड़ से गांव की तरफ हवा चलती है।” भुवनेश्वर खंड में शामिल चुदांगा, तुलसादीपुर, भालूगांव, सिमिलीपटना और मुंदासाही गांव भी प्रभावित हैं। भराव क्षेत्र से सबसे नजदीक होने के कारण दारूठेंगो सबसे अधिक प्रभावित है।
ग्रामीणों के अनुसार, राज्य सरकार ने 2008 में गांव के नौसाही टोले में 32आदिवासी परिवारों को बसाया था। ये लोग चंदका वन से हाथी अभ्यारण्य बनाने के लिए विस्थापित हुए थे। इसी साल नौसाही से 50 मीटर दूर भराव क्षेत्र में कूड़ा डालना शुरू कर दिया गया। राधेनाथ देहुरी सवाल उठाते हैं “अगर उन्हें मेरे घर के पीछे कूड़ा ही डालना था तो उन्होंने हमें यहां विस्थापित ही क्यों किया।” ग्रामीणों की शिकायत है कि भराव क्षेत्र के गंदे पानी और धूल ने भूमिगत जल को प्रदूषित कर दिया है।
इस कारण नलकूपों का पानी पीने योग्य नहीं रह गया है। तालाबों और पास की छोटी नदी में भराव क्षेत्र की धूल की परत जमी रहती है, इस कारण उन्होंने उसमें नहाना बंद कर दिया है। इलाके में मलेरिया, त्वचा और किडनी के रोगियों की संख्या भी अचानक बढ़ गई है। इलाके में फसली जमीन की उत्पादकता भी खत्म हो रही है। मंगू सेठ की जमीन भराव क्षेत्र के बिलकुल पीछे है। उनका कहना है “सब्जियों की फसल पिछले तीन साल से घट रही थी लेकिन इस साल जहरीली गैसों के कारण पूरी तरह बर्बाद हो गई है।” उन्होंने बताया कि “खेत में गायें लगातार मर रही हैं।”
भुवनेश्वर शहर से रोज 500 मीट्रिक टन कचरा निकलता है। भुवनेश्वर नगर निगम (बीएमसी) के पास लंबे समय तक ऐसी कोई निर्धारित जगह नहीं थी जहां कूड़ा डाला जा सके। बीएमसी ने शहर के बाहर कई जगह कूड़ा डाला लेकिन हर जगह ग्रामीणों के विरोध के चलते कचरा डालना बंद करना पड़ा। उच्च न्यायालय के आदेश के बाद बीएमसी ने भुवनेश्वर से करीब 20 किलोमीटर दूर दारूठेंगो पर अपना ध्यान केंद्रित किया। हालांकि यह जगह निगम के अधीन नहीं है। जिला प्रशासन ने 61 एकड़ की यह जमीन कूड़ा डालने के लिए निगम को आवंटित की है।
बीएमसी का दावा है कि उसके पास कचरा प्रबंधन के लिए विस्तृत योजना है और इसके लिए वार्षिक बजट में 68 करोड़ रुपए का प्रावधान है।
ग्रामीण अलग-अलग मंच पर अपनी आवाज उठाते रहे लेकिन वे उस समय भड़क गए जब पिछले साल फरवरी में भराव क्षेत्र में आग लग गई और उसे जहरीले धुएं ने इलाके को घंटों घेरे रखा। उन्होंने भराव क्षेत्र में ताला लगा दिया और ट्रकों को कचरा नहीं डालने दिया। जब बीएमसी के लिए कचरा डालना मुश्किल हो गया तो अंततः पुलिस संरक्षण में कचरे के ट्रकों को लाया गया। अगस्त 2016 में पुलिस और ग्रामीणों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें सरपंच प्रसंत कुमार रोतरे के साथ 30 लोग गिरफ्तार कर लिए गए। इनमें 11 महिलाएं भी शामिल थीं।
इसके बाद ग्रामीण बीएमसी के खिलाफ इसी साल फरवरी में एनजीटी चले गए। एनजीटी के हस्तक्षेप के बाद ओडिशा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और खुर्दा जिला प्रशासन ने जन सुनवाई की जिसमें सभी ग्रामीणों ने वर्तमान भराव क्षेत्र और कूड़े से बिजली बनाने वाले प्रस्तावित संयंत्र का विरोध किया। उनकी मांग थी कि इसे मानवीय रिहाइश से दूर कम से कम 5 किलोमीटर जंगल के अंदर लगाया जाए। ग्रामीणों और बीएमसी अधिकारियों के बयान रिकार्ड किए गए और उन्हें एनजीटी में भेजा गया।
पिछले साल भराव क्षेत्र का विरोध करने पर गिरफ्तार किए गए संग्राम श्रीचंदन का कहना है “अधिकारियों ने लोगों की आवाज दबाने के लिए दारूठेंगो के बजाय चंडाका में की। फिर भी हमने अपनी बातों को बलपूर्वक रखा।”
बीएमसी महापौर अनंत नारायन जेना का कहना है कि कूड़े से बिजली बनाने वाले संयंत्र में 500 मीट्रिक कचरे से 11.5 मेगावाट बिजली प्रतिदिन बनाई जाएगी। उन्होंने कहा कि हालांकि मामला अभी एनजीटी के पास लंबित है, हम एनजीटी का आदेश मानेंगे और मामला निपटने के बाद ही संयंत्र का निर्माण शुरू करेंगे।
खत्ते ने रोजगार भी छीना
राजधानी दिल्ली के सटे गुरुग्राम में अरावली की पहाड़ियों से घिरे बंधवाड़ी गांव के बाहर बने ठोस कचरा प्रबंधन संयंत्र एवं भराव क्षेत्र (ग्रामीणों के अनुसार खत्ता) ने दर्जनों गांवों में रहने वाले लोगों का जीना दुश्वार कर रखा है। साल 2009 में भराव क्षेत्र और 2010 में ठोस कचरे का प्रसंस्करण शुरू हुआ लेकिन नवंबर 2013 में आग लगने की घटना के बाद यहां कचरे का प्रसंस्करण बंद है। फिलहाल यहां केवल कचरा डाला जा रहा है। फरीदाबाद और गुरुग्राम का करीब 1600 मीट्रिक टन कचरा रोज यहां पहुंचता है। बंधवाड़ी, मांगर, डेरा, ग्वाल पहाड़ी सहित दर्जनों गांव के लोग इस संयंत्र का विरोध कर रहे हैं। 2009 में जब इसे शुरू किया गया था तब भी ग्रामीणों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई थी। जुलाई, 2017 में ग्रामीणों ने इसके खिलाफ एनजीटी पर प्रदर्शन किया। अगस्त में ग्रामीणों ने लघु सचिवालय पर भी इसके खिलाफ अपना आक्रोश प्रकट किया।
जब नगर निगम के आयुक्त वी. उमाशंकर से भराव क्षेत्र से ग्रामीणों को हो रही परेशानियों पर बात की गई तो उनका जवाब था, “हर कोई कुछ न कुछ कहता है। तो कहां फेंकें कूड़ा। आपके घर आकर फेंकें।” उन्होंने आगे स्पष्ट करते हुए बताया कि कूड़ा डालने के लिए जहां भी भराव क्षेत्र बनाया जाएगा, वहां दिक्कत आएगी। शहर में भराव क्षेत्र बनाने से बड़ी संख्या में लोग प्रभावित होंगे, इसलिए बंधवाड़ी में संयंत्र ऐसी जगह बनाया गया है, जिससे लोग कम से कम प्रभावित हों। उनका कहना है कि निगम ने चीन की ईको ग्रीन कंपनी से समझौता कर लिया है। यह अगस्त 2019 में कूड़े से बिजली बनाने का काम शुरू कर देगी। यहां 20 मेगावाट बिजली का प्लांट लगाया जाएगा।
सीपीसीबी ने संयंत्र व भराव क्षेत्र के आसपास गांवों से लिए गए पानी के नमूने जांचने के बाद पाया है कि इसमें हानिकारक रसायन हैं और पानी पीने लायक नहीं है। पानी में कई रसायन तय मात्रा से ज्यादा पाए गए हैं। एनजीटी के आदेश के बाद सीपीसीबी ने 27 जुलाई 2017 भराव क्षेत्र का दौरा करने के बाद अपनी रिपोर्ट तैयार की थी।
संयंत्र का विरोध कर रहे और मामले को 2005 में एनजीटी में ले जाने वाले हरियाली संगठन के विवेक कंबोज सवाल उठाते हैं, “शहर की गंदगी को गांव के लोग क्यों बर्दाश्त करें? उन्होंने बताया “केंद्रीय ग्राउंड वॉटर अथॉरिटी ने अरावली क्षेत्र को भूमिगत जल का रिचार्ज जोन माना है। पर्यावरण के लिहाज से यह अति संवेदनशील क्षेत्र है, जिसे नष्ट किया जा रहा है।” उन्होंने बताया कि भराव क्षेत्र को ऊंची पहाड़ी पर बनाया गया है। उसके चारों तरफ खाइयां हैं। भरावक्षेत्र का गंदा पानी रिसकर जलस्रोतों में पहुंच रहा है।
बंधवाड़ी के ग्रामीण परसादी पहलवान ने कहा, “खत्ते की वजह से पानी न तो पीने लायक बचा है और न ही नहाने-धोने लायक।” उन्होंने बताया कि दूषित पानी पीकर लोग बीमार होकर मर रहे हैं। ऐसे ही एक परिवार के घर पहुंचने पर 35 के साल के घनश्याम बिस्तर पर लेटे मिले। पत्नी ने बताया कि दूषित पानी के कारण घनश्याम दो साल से कैंसर से जूझ रहे हैं। उनका कहता था “जिनके पास पैसा है वे बीमारियों से बचने के लिए गांव छोड़कर शहर में बस गए हैं लेकिन जो गरीब हैं वे यहां मर रहे हैं।”
ग्रामीण चैनपाल एक दूसरी समस्या की ओर इशारा करते हैं, “गांव में रोजी रोटी का मुख्य जरिया पशुपालन है। शहरों में दूध बेचकर लोग गुजर-बसर कर हैं। जब से शहर के लोगों को समाचार पत्रों के माध्यम से पता चला है कि गांव का पानी जहरीला हो गया है, तब से उन्होंने दूध लेना बंद कर दिया है। खत्ते की पॉलिथीन और कचरा खाने से गाय और भैंसें मर रही हैं। अब दूध की ब्रिकी बंद या कम होने से रोजी रोटी पर भी संकट आ गया है।” ग्रामीणों के अनुसार, खत्ते से बंधवाड़ी के अलावा मांगर, बलियावास, डेरा, ग्वाल पहाड़ी, बास, भांडई, फतेहपुर, बैरमपुर,घाटा, कूलावास, कादरपुर आदि गावों का पानी दूषित हो चुका है। ग्रामीणों ने बताया कि हाल ही में उन्होंने अनशन करने की कोशिश की तो पुलिस ने निगम चुनाव और धारा 144 का हवाला देकर उन्हें भगा दिया। उनका कहना कि अब उनके पास कोई उपाय नहीं बचा है। शांतिपूर्ण विरोध तक नहीं करने दिया जा रहा है।
संस्कारधानी भी गंदगी के ढेर पर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी का कूड़ा करसड़ा गांव में डाला जाता है। जहां के ग्रामीणों का कहना है कि कूड़े के कारण बीमारियां और हमारे खेत पॉलिथीन की पन्नियों से अटे पड़े हैं, लेकिन इसका सबसे दुखदायी पहलू यह है कि हमारे रिश्तेदारों की आवाजाही कम हो गई है। फूलपुर संसदीय क्षेत्र निवासी रमेश कुमार की बहन की शादी इस गांव में हुई लेकिन दुर्गंध के कारण वह साल-दो साल में एकाध बार मन मारकर आ पाते हैं।
कचरे के पास स्थित प्राथमिक विद्यालय में माता-पिता अपने बच्चों को भेजने से कतराते हैं। कारण जब भी बच्चा स्कूल से लौटता है तो उसे खुजली हो जाती है। एक छात्र के पिता रामशरण बताते हैं, “पिछले हफ्ते मेरा तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला लड़का प्रेम प्रकाश स्कूल से लौटा तो वह अपने हाथ-पैर तेजी से खुजला रहा था, पूछने पर बोला जब से स्कूल गया हूं तब से ही यह खुजली हो रही है। अब हमने उसे भेजना बंद कर दिया है। विद्यालय में कुल लगभग 200 छात्र पढ़ते हैं।
वाराणसी की गंदगी को ठिकाने लगाने के लिए लगभग 10 किलामीटर दूर करसड़ा गांव में भराव क्षेत्र बनाया गया है। यहां प्रतिदिन 500 से 550 मीट्रिक टन कचरा डाला जाता है। यह लगभग 70 एकड़ में फैला हुआ है। इसके कारण खेतों की जमीन खराब होने लगी है। उनके खेतों में पॉलिथीन अट जाती हैं। इसके खिलाफ गांव के लोग 2012 से ही विरोध-प्रदर्शन करते आ रहे हैं। लेकिन 2016 में यह प्रदर्शन उस समय उग्र हो गया जब ग्रामीणों ने यहां कचरा डालने वाली कंपनी एटूजेड की एक गाड़ी को आग के हवाले कर दिया। इस घटना के बाद दस से बारह दिनों तक यहां कूड़ा नहीं फेंका गया।
देहरादून से रोज निकलने वाला करीब 400 टन कूड़ा सहस्रधारा जैसे पर्यटन स्थल को गंदला रहा है। यहां कूड़े का एक पहाड़ खड़ा हो चुका है और इसकी बदबू आसपास के दस से पंद्रह किमी क्षेत्र में फैली रहती है। इसे हटाने के लिए सहस्त्रधारा निवासी विवेक श्रीवास्तव 2003 से कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।
उच्च न्यायालय में जनहित याचिका विवेक ने 2003 में डाली और इसे हटाने का अदालत ने 2005 में आदेश दिया। लेकिन इसका निगम ने अनुपालन नहीं किया। 2012 में विवेक की ओर से ही सर्वोच्च अदालत में मानहानि केस डाला गया। इस पर अदालत ने 2014 में नगर निगम को दो साल का समय दिया। यह अवधि 6 मई, 2016 को खत्म हुई है। इसके बाद भी निगम यहां कचरा डाल रहा है। ग्रामीणों ने दिसंबर, 2016 को सहस्रधारा रोड जन कल्याण संघर्ष समिति के नाम से पंजीकरण कराया। समिति के बैनर तले कूड़ा वाहनों को रोका गया तो टकराव हुआ। यह कई दिन तक चला।
समिति उच्च न्यायालय के फैसले को लेकर दिसम्बर 2016 में मानवाधिकार आयोग भी गई। मानवाधिकार आयोग ने केस को एनजीटी को भेजा। एनजीटी ने निगम को फटकार लगाई। अब एनजीटी सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम फैसले का इंतजार कर रही है। सहस्रधारा रोड जन कल्याण संघर्ष समिति के अध्यक्ष आर. के. भार्गव ने बताया, “समिति ने इस मैदान में कूड़ा डालने पर रोक लगाने के लिए उच्च न्यायालय में याचिका डाली थी।
न्यायालय ने फैसले में नगर निगम को इस मैदान में कूड़ा न डालने के आदेश दिए थे लेकिन इसके बाद भी निगम ने कूड़ा डालना बंद नहीं किया तो समिति सर्वोच्च न्यायालय पहुंची। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने नगर निगम को आदेश दिए कि वह दिसंबर तक शीशमबाड़ा में अपना ट्रंचिंग ग्राउंड का काम पूरा कर ले। सहस्रधारा संघर्ष समिति से जुड़ी बिशनी देवी ने कहा, “देहरादून नगर निगम दर्जनों गांवों के लोगों के साथ खिलवाड़ कर रहा है। हम आवाज उठा रहे हैं, लेकिन कोई ध्यान नहीं दे रहा है।”
भराव क्षेत्र: जमीन कहां है?
अब सवाल उठता है कि शहर के ठोस कचरे का क्या करें? क्या भराव क्षेत्र ही एकमात्र विकल्प है? अगर हां तो इसके विरोध में उठने वाली आवाजों का क्या करें? अगर भराव क्षेत्र ही वैज्ञानिक तरीके से न बनें तो क्या करें? सीपीसीबी के अनुमानों के अनुसार, 90 प्रतिशत भारतीय शहरों में जहां कचरा इकट्ठा करने की व्यवस्था है, वहां कचरे का निपटान भराव क्षेत्र में किया जाता है। ये भराव क्षेत्र निर्धारित स्वच्छता मानदंडों के अनुसार नहीं बनाए गए हैं। वर्ष 2008 में सीपीसीबी ने शहरों की निगरानी के दौरान यह पाया कि 59 में से 24 शहर 1,900 हेक्टेयर में फैले भराव क्षेत्र का इस्तेमाल कर रहे थे। अन्य 17 ने भी भराव क्षेत्रों का निर्माण करने की योजना बना रखी थी। शहरों में जमीन की कमी को देखते हुए नगर पालिकाएं अपने अपशिष्ट का निपटारा करने के लिए अन्य जगहों की खोज कर रही थीं।
वर्ष 2009 में, आर्थिक कार्य विभाग के ठोस अपशिष्ट प्रबंधन संबंधी स्थिति पत्र में यह बताया गया है कि भारत की शहरी आबादी पहले ही प्रतिदिन 80,000 मीट्रिक टन कचरे का उत्पादन कर रही थी। यह दर्शाता है कि 2047 तक भारत एक वर्ष में 26 करोड़ टन कचरे का उत्पादन करेगा जिसका निस्तारण करने के लिए 1,400 वर्ग किलोमीटर के भराव क्षेत्र की जरूरत होगी। यह क्षेत्र हैदराबाद, मुंबई और चैन्ने को मिलाकर बने क्षेत्र के बराबर होगा।
विनियमों के बावजूद, कुल मिलाकर स्थिति यह है कि भारत में भराव क्षेत्रों को बढ़ावा दिया गया है। वर्तमान में, अपशिष्ट प्रबंधन के लिए नगर निगमों द्वारा निजी ठेकेदारों को जो ठेके दिए जाते हैं उनमें ठेका लेने वालों को ज्यादा से ज्यादा कचरा लाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ठेके में शुल्क का भुगतान कचरा ले जाने वाले वाहनों की आवाजाही के अनुसार मिलता है। भूमि की लागत और इसकी उपलब्धता पर ध्यान नहीं दिया जाता।
क्या समस्या का समाधान नहीं है?
कई देशों में इस सवाल का जवाब इस व्यवस्था को बदलकर दिया गया है। कचरे से संबंधित शुल्क का भुगतान इसे इकट्ठा करने या लाने-ले जाने के लिए नहीं किया जाता बल्कि कचरे के निस्तारण के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए स्वीडन और अमेरिका में भराव क्षेत्र में कचरा फेंकने के लिए भारी प्रवेश शुल्क वसूल किया जाता है (देखें पेज 42, “भराव क्षेत्र से मुक्त हो चुका है स्वीडन”)। स्वीडन में भराव क्षेत्र कर भी लगाया जाता है। भारी भरकम प्रवेश शुल्क नगर निगमों को भराव क्षेत्र में कचरा फेंकने से रोकता है। वर्ष 2013 में स्वीडन में कचरा फेंकने के लिए औसतन 212 डॉलर प्रति टन वसूले जाते थे जबकि इसकी तुलना में अमेरिका में 150 डॉलर प्रति टन वसूले जाते थे।
भारत के ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियमावली, 2016 में यह स्वीकार किया गया है कि भराव क्षेत्र का इस्तेमाल केवल ऐसे कचरे के लिए किया जाएगा जिसका “दोबारा उपयोग न किया जा सके, नवीनीकृत न किया जा सके, जैविक रूप से नष्ट होने योग्य न हो, ज्वलनशील न हो तथा रासायनिक प्रतिक्रिया न करता हो।” इसमें यह भी कहा गया है कि “भराव क्षेत्र से कचरा समाप्त करने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए कचरे में पुन: उपयोग या उसे नवीनीकृत करने के प्रयास किए जाएंगे।” भराव क्षेत्र के इस्तेमाल को न्यूनतम करने के लिए भराव क्षेत्र कर लगाएं, अपशिष्ट कचरे के निपटान के लिए साफ-सुथरे भराव क्षेत्र बनाएं जाएं ताकि प्रदूषण कम हो। नवनिर्मित अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली का लक्ष्य कचरा मुक्त भराव क्षेत्र सुनिश्चित करना होना चाहिए।
दूसरी तरफ ऐसे कई उदाहरण हैं जहां विरोध से कचरा प्रबंधन की दिशा में सकारात्मक नतीजे िनकले हैं। केरल का उदाहरण इसमें अहम है। राजधानी तिरुवनंतपुरम से 14 किमी दूर स्थित एक छोटे से गांव विलपिल में ज्यादातर सीमांत किसान व वेतन मजदूर रहते हैं। वर्ष 1993 में, नगर निगम ने इस गांव में 18.6 हेक्टेयर जमीन खरीदी थी। उस समय ग्रामीणों को विश्वास दिलाया गया कि इस जमीन पर एक हर्बल उद्यान लगाया जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, जब वर्ष 2000 में यहां खाद संयंत्र स्थापित किया गया तो ग्रामीणों ने इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। तब निगम ने उन्हें आश्वासन दिया कि यह संयंत्र वैज्ञानिकों की देखरेख में काम करेगा, जो बदबू रहित और शून्य प्रदूषण सुनिश्चित करेंगे। लेकिन यह क्षेत्र एक खुला कूड़ादान बन गया। लोगों ने इसका विरोध किया तो उनमें से 24 के खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज हुए थे।
वह संयंत्र, जिसे राज्य के लिए भविष्य के माॅडल के रूप में पेश किया जा रहा था, वह केवल थोड़ी मात्रा में ही जैविक कूड़े को संशोधित कर सकता था क्योंकि इसमें कूड़े की छंटाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। खुले में एकत्रित कचरा जल्द ही सड़ने लगा। लोगों ने इसमें से तीन किलोमीटर की दूरी से भी बदबू आने की शिकायत की। इस कचरे की ढेर ने न केवल लोगों के रोजमर्रा के जीवन पर असर डालना शुरू कर दिया बल्कि इसकी वजह से उस गांव में शादी के लिए रिश्ते आने बंद हो गए। संयंत्र के करीब रहने वाले लोगों में सांस और त्वचा संबंधी रोग, दृष्टि का धंुधलापन, जोड़ों में सूजन जैसी बीमारियों की घटनाएं बढ़ गई हैं।
21 दिसंबर 2011 को विलपिल ने इस कचरे को लेने से इनकार कर दिया। शहर में कचरा एकत्र करने का काम भी बंद हो गया। सड़क के किनारे कचरे का ढेर लगना शुरू हो गया और अचानक शुरू हुई चक्रवाती बारिश ने स्थिति को और ज्यादा भयावह कर दिया। डेंगू, चिकनगुनिया और रैट फीवर के मामलों की शिकायतें आने लगी। नगर निगम ने उच्च न्यायालय से इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की जिसने नागरिक निकाय के पक्ष में फैसला सुनाया। उच्च न्यायालय के फैसले से नाखुश, ग्राम पंचायत ने सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले पर विचार के लिए अपील की। 19 मार्च, 2012 को सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश दिया जिसमें शहर के कचरे को कुछ शर्तों के साथ विलपिल ले जाने की इजाजत दे दी।
ये शर्तें थीं कि निगम एक दिन में 90 टन कचरा संयंत्र ले जा सकता है लेकिन इसके लिए उसके पास पंचायत का अनिवार्य लाइसेंस व केरल राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अनापत्ति प्रमाण पत्र होना जरूरी है। और यह दोनों ही संयंत्र के पास नहीं थे। संयंत्र तक कचरा नहीं पहुंचाया जा सका और लगभग 30,000 टन कचरा शहर में विभिन्न स्थानों पर दबाना पड़ा। अब, विलपिल के संयंत्र के स्थापित होने के बारह साल बाद, इसमें काम शुरू हो गया। नगर निगम इस संयंत्र को खोने के कगार पर है हालांकि उसने इसमें कुछ संशोधन भी किया है। उसने कचरे के पहाड़ों को प्लास्टिक के चादरों से ढंक दिया है। इस संयंत्र की एक दिन में 0.6 मिलियन लीटर लीचट के उपचार की क्षमता भी बन गई है। लेकिन वहां के निवासी कूड़े के निष्पादन के उपरांत बची मिट्टी को भी वहां से हटाने नहीं दे रहे थे। वह संयंत्र को पूरी तरह से बंद करवा देने की मांग पर अड़े हुए हैं।
राज्य सरकार ने इस मामले में, विकल्प की तलाश के लिए छह महीने के समय की मांग की, लेकिन निवासियों ने इसे सिर्फ तीन महीने का ही समय दिया। समय सीमा खत्म होने के बाद, ग्राम पंचायत ने नगर में कचरे के प्रवेश को प्रतिबंधित करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया और संयंत्र के द्वार को बंद कर दिया। केरल पंचायती राज अधिनियम और 1994 के केरल नगर पालिका अधिनियम के तहत, यह मामला गांव के स्वास्थ्य व स्वच्छता समस्याओं से संबंधित पंचायत के विशेष अधिकार से जुड़ा हुआ है। फरवरी 2016 में, तिरुवनंतपुरम की करीब 10 एकड़ जमीन की पहचान के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। अब नगर निगम ने कचरे के विकेन्द्रीकृत प्रबंधन को अपना लिया है। नागरिकों को भी अपने घर के पिछले आंगन में कचरा और खाद को अलग अलग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। क्लीन केरल कंपनी द्वारा प्रत्येक महीने सूखा कचरा भी एकत्र किया जाता है।
यह एक गंभीर संकट था जिसने अलप्पुझा को मजबूर किया कि वह अपशिष्ट प्रबंधन के लिए अलग तरीके से प्रयास करे। मारारीकुलम गांव पंचायत के करीब के गांव सर्वोदयपुरम में, नगरपालिका अपने छह हेक्टेयर जमीन को लंबे समय से कचरा डंप करने के लिए इस्तेमाल कर रही थी। पंचायत के अध्यक्ष पीवी सथ्यानेसन ने बताया कि इसकी वजह से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा था, जल स्रोतों का प्रदूषण, बदबू, मक्खी मच्छर बढ़ते जा रहे थे। आसपास के संयंत्र में बीमारियां फैलने लगी थीं। जून 2012 में सर्वोदयापुरम के निवासियों ने डंपिग के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने इसका विरोध किया, इसके खिलाफ भूख हड़ताल पर गए, नगरपालिका के ट्रकों को संयंत्र की ओर जाने से रोकने के लिए सड़क की नाकाबंदी कर दी गई। यह विरोध प्रदर्शन लगभग सौ दिनों तक चला।
चर्चा के कई दौर चलें और फिर ग्राम पंचायत ने नगर पालिका को प्रति दिन केवल चार-पांच टन कचरा लाने की अनुमति दी। नवंबर 2014, में ग्राम पंचायत ने इसकी भी मनाही कर दी। कुछ दिनों तक तो नगर पालिका ने कचरे को शहर में ही इधर उधर दबा कर काम चलाया लेकिन जल्द ही ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र खत्म होने लगे जहां दबा कर इन कचरों को ठिकाने लगाया जा सकता था। जब शहर में हर तरफ कचरा फैलने लगा तब थाॅमस इजाक, विधायक (वर्तमान में राज्य के वित्त मंत्री) ने विकेन्द्रित अपशिष्ट प्रबंधन को अजमाने का फैसला लिया। उनके नेतृत्व में, इस संदर्भ में चर्चाओं के कई दौर नगरपालिका प्रधिकरण, नगर पार्षदों, आवासीय समितियों विभिन्न राजनैतिक दलों के नुमाइंदों के साथ चलें।
यह पता लगाने के लिए कि नागरिकों ने उत्पन्न हुए कचरों का कैसे निस्तारण किया और उनकी जरूरतें क्या थीं। एक प्रारंभिक सर्वेक्षण महिला स्व-सहायता समूह द्वारा किया गया। कुछ संगठन जैसे केरल सास्त्रा साहित्य परिषद, विज्ञान जनआंदोलन जो पलक्कड़ में ग्रामीण प्रौद्योगिकी पर एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान- एकीकृत ग्रामीण प्रौद्योगिकी केन्द्र (आईआरटीसी) चलाता है एवं केरल सरकार की एजेन्सी गैर पारंपरिक उर्जा एवं ग्रामीण प्रौद्योगिकी ने इस चर्चा को आगे बढ़ाया। सभी प्रयासों का परिणाम यह निकला कि विकेन्द्रीकृत कचरा प्रबंधन की दिशा में जाने का फैसला लिया गया।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) सर्वेक्षण ने केरल में एलेप्पी, गोवा में पणजी, कर्नाटक में मैसूर व आंध्रा में बोब्बिली को भारत के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में आंका है। सर्वेक्षण ने घरेलू स्तर पर कचरे के पृथक्करण और उसके पुनः उपयोग को प्राथमिकता दी है। एलेप्पी, पणजी, मैसूर एवं बोब्बिली ने न केवल विकेन्द्रीकृत तन्त्र को ही अपनाया है बल्कि अपशिष्ट श्रेणी में गैर संगठित क्षेत्र की भूमिका को भी स्वीकारा है। उन्होंने कचरे के पैदा होने और उसके प्रसंस्करण के सतत चक्र को बनाने का प्रयास किया है और शहरों को शून्य कचरा भराव क्षेत्र बनने की कोशिश कर रहे हैं।
मध्य प्रदेश के इंदौर ने सामूहिक प्रयास से कचरे का प्रबंधन कर लिया है।
इंदौर निगम आयुक्त मनीष सिंह ने कहा, “कुछ भी असंभव नहीं होता है। आज से डेढ़ साल पहले इंदौर में हर तरफ कचरा दिखता था। अब जनता और निगम के कर्मचारियों ने ऐसा कुछ कर दिखाया है जो संभवत: देश में कहीं भी अब तक नहीं हुआ है।” इस संबंध में निगम के सलाहकार अशद वार्सी कहते हैं, “यह असंभव कार्य हमने तीन स्तरों पर पूरा किया। पहला था निगम कर्मी और ठेकेदारों के बीच बने अवैध गठजोड़ को तोडना, इसके बाद निगम यूनियन को अपने साथ लाना और सबसे महत्वपूर्ण कड़ी थी यहां की जनता को मोबलाइज करना।
इसके लिए हमने गैर सरकारी संगठनों का सहयोग लिया।” इस संबंध में इंदौर की मेयर मालिनी लक्ष्मण सिंह गौर ने कहा, “जनता के सहयोग से कचरा स्वयं ही अपने आप ही अलग-अलग किया हुआ निगम को मिल जाता है। इसके लिए हमने सभी घरों में दो डस्टबिन उपलब्ध कराए हैं और इनकी कीमत बीस रुपए रखी है। यहां के भराव क्षेत्र में आप कितने भी समय खड़े रहें, कहीं से किसी प्रकार की दुर्गंध नहीं आती है। भारी बरसात के समय भी ऐसी ही स्थिति ही बनी रहती है।”
इस तरह के उदाहरण देश के अन्य क्षेत्रों के लिए एक मिसाल पेश करते हैं। कुल मिलाकर घरेलू और व्यावसायिक कचरे के निस्तारण की समस्या से पार पाने के लिए व्यक्तिगत तौर पर जागरूक होना पड़ेगा, तभी निगम अथवा संस्थानिक उपाय कारगर साबित हो पाएंगे।
भराव क्षेत्र से मुक्त हो चुका है स्वीडन
स्वीडन ने कचरे के पुन:उपयोग और पुनर्चक्रण को जीवनशैली का हिस्सा बनाने के लिए निवेश किया है। स्वीडन में 99 प्रतिशत से अधिक घरेलू कचरे का किसी न किसी रूप में पुन: उपयोग किया जाता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि 1975 में 38 प्रतिशत घरेलू कचरे का दोबारा इस्तेमाल किया जाता था। यह कहा जा सकता है कि पिछले दशकों के दौरान यह देश पुनर्चक्रण क्रांति से गुजरा है। वर्तमान नियम के अनुसार रिसाइकलिंग स्टेशन (6000 स्टेशन) किसी भी आवासीय क्षेत्र से 300 मीटर से अधिक दूर नहीं हो सकते। आज देश का केवल एक प्रतिशत कचरा भराव क्षेत्र में फेंका जाता है।
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