पर्यावरण

विज्ञान गल्प की दुनिया

अपनी पहली वर्षगांठ के मौके पर विज्ञान गल्प पर विशेष खंड प्रस्तुत कर रहे हैं। ये लेख बताएंगे कि ऐसे गल्प भारत की तथाकथित महान वैज्ञानिक परंपराओं से कहीं वैज्ञानिक हैं।

T V Venkateswaran, , , ,

हम विचित्र समय में रह रहे हैं। यह एक ऐसा दौर है जब भारत की महान वैज्ञानिक परंपरा की जन स्वीकार्यता बढ़ रही है, जबकि दूसरी तरफ लोगों के बीच किसी वैज्ञानिक व्याख्या से भी परे धारणा विकसित हो रही है। भारतीय वैज्ञानिक परंपरा के नाम पर हम गल्प की दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। पर्यावरण और विज्ञान पत्रिका होने के नाते हमने यह सवाल खुद से पूछा कि क्या विज्ञान गल्प या गल्प को विज्ञान के नाम पर बेचा जा सकता है? यह एक मुश्किल बहस है। अपनी पहली वर्षगांठ के मौके पर विज्ञान गल्प पर विशेष खंड प्रस्तुत कर रहे हैं। ये लेख बताएंगे कि ऐसे गल्प भारत की तथाकथित महान वैज्ञानिक परंपराओं से कहीं वैज्ञानिक हैं।

जहां कल्पना ही है नायक

विज्ञान गल्प ऐसी दुनिया हो सकती है जहां हालात पृथ्वी से सर्वथा भिन्न हैं, जैसे परग्रहियों का हमला, मंगल ग्रह पर बसा अत्याधुनिक नगर या फिर बुढ़ापे की काट

टी वी वेंकटेश्वरन

किसी भी अच्छे बुकस्टोर में जाएं, आप अवश्य ही “विज्ञान गल्प” नाम का एक खंड पाएंगे जहां रंग-बिरंगी, चमचमाती जिल्दों पर छपे परग्रही आपका स्वागत करते नजर आएंगे। अजीब परिधानों में सजे मनुष्य एवं भाविष्योन्मुखी तकनीक से लैस नगर, यह कुछ अन्य उदाहरण हैं जो आपको देखने को मिल जाएंगे। पन्ने पलटने भर की देर है और आपको जाने-पहचाने नजारे देखने को मिलेंगे- अंतरग्रहीय यात्राएं, अंतरिक्षवसियों से मुलाकातें, यूटोपियन परिकल्पना पर बसे समाज,भविष्योन्मुखी बहिर्वेशन, यहां तक कालयात्रा भी।

आखिर यह विज्ञान गल्प बला क्या है? क्या यह रोमांस है? संभवतः हां! इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। उदाहरणतया यहां एक महिला एवं मशीन के मध्य प्रेम भी संभव है (बाइसेंटेनिअल मैन)। क्या यह डरावना, नाटकीय या हास्योत्पादक है? यह एक्शन भी हो सकता है और सोप ओपरा (स्टार वार्स) भी। विज्ञान गल्प की हर कृति इनमें से किसी एक श्रेणी के अंतर्गत आ सकती है। लेकिन इन सबसे अलग एवं महत्वपूर्ण चीज जो विज्ञान गल्प को बाकी साहित्य से अलग करती है वह है इसके कथानक का स्वरूप। विज्ञान गल्प में हैरानी का भाव आपको हमेशा मौजूद मिलेगा। यह हैरानी प्रकृति जनित (शनि ग्रह के छल्ले या किसी कृष्ण विवर का क्षितिज) तो होती ही है, अक्सर हां इसके पीछे का कारण नित नई प्रगति की ओर अग्रसर तकनीक (अंतरिक्ष केंद्र या रॉकेट यान) भी होती है।

इस कथानक के मध्य में एक नई दुनिया के निर्माण की तीव्र आकांक्षा है, चाहे वह एक नया ग्रह हो या एक पूरा का पूरा ब्रम्हांड। यह एक ऐसी भविष्य की दुनिया हो सकती है जहां हालात पृथ्वी से सर्वथा भिन्न हैं, जैसे परग्रहियों का हमला, मंगल ग्रह पर बसा अत्याधुनिक नगर या फिर बुढ़ापे की काट। विज्ञान गल्प के मूल में यही कौतुक की भावना है जो पाठकों को कथानक की मानवीय जटिलताओं की दिशा में सोचने को प्रेरित करती है। यही नहीं, यह भावना विज्ञान गल्प को मीमांसा एवं सामाजिक समालोचना के एक सशक्त माध्यम के रूप में स्थापित करती है। विज्ञान गल्प की दुनिया में कल्पना ही नायक है।

दारको स्विन जैसे विद्वान पश्चिम में वैज्ञानिक फंतासी के उदय को कोपेरनिकन क्रांति के बौद्धिक असर के रूप में देखते हैं। धर्मग्रंथों की सत्ता को चुनौती देकर कोपरनिकस ने चर्च की जड़ पर हमला बोला था। कोपरनिकस के जमाने में चर्च राजनैतिक सत्ता के केंद्र हुआ करते थे। कोपरनिकस के ऐसा करते ही स्थायी एवं ईश्वरप्रदत्त मानी जानेवाली सामाजिक एवं राजनैतिक संरचना में भी विघटन की सम्भावना दिखने लगी। इसके फलस्वरूप एक ऐसी दृष्टि उत्पन्न हुई जिसके माध्यम से एक नए भविष्य की परिकल्पना संभव हो सकी। यह नवीन भविष्य वर्तमान परिस्थितियों के ठीक विपरीत था। टॉमस मोर की “यूटोपिया” (1516) को इसी सन्दर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। इस यूटोपियन विज्ञान गल्प का नायक एक ऐसे द्वीप की यात्रा का वर्णन करता है जहां की सामाजिक संरचना तत्कालीन यूरोप से कहीं उन्नत थी।

विज्ञान गल्प “अद्भुत” (फैंटास्टिक) अवश्य होता है किन्तु आवश्यक नहीं कि यह पूर्णरूपेण फंतासी हो। मिथक एवं परीकथाएं अवश्य ही एक ऐसी दुनिया में घटते हैं जो हमारी जमीनी सच्चाई से “मीलों दूर, सात समंदर एवं पहाड़ों के पार” स्थित होती है। यह माना कि वैज्ञानिक साहित्य भविष्योन्मुखी गल्प है किन्तु इसका यह अर्थ हरगिज नहीं कि इसके घटने का काल केवल भविष्य ही हो। हां यह बात अवश्य है कि विज्ञान गल्प की दुनिया काउंटरफैक्चुअल यानि “तथ्य-विरोधी” होती है। यहां चीजें जैसी होती हैं, जरूरी नहीं वैसी ही दिखें। कथानक पूर्ण रूप से लेखकीय परिकल्पना पर आधारित होता है, चाहे वह भविष्य में हो, वर्तमान में हो या फिर किसी समानांतर आयाम में।

यह विधा उत्तर-गैलिलीय आधुनिक विज्ञान से अपना पोषण प्राप्त करती है। यह भौतिक, गैर-जादुई परिचर्चा पुरानी स्थिति के बिलकुल उलट है जहां ब्रह्माण्ड मनुष्य को एक अनजाने एवं अकल्पनीय भय से भर देता था। अचानक ब्रम्हांड के आकार में अतुलनीय वृद्धि हुई। नयी एवं सर्वथा अकल्पित वस्तुओं (जैसे बृहस्पति के चन्द्रमा) की खोज होने के साथ-साथ स्वयं काल की परिकल्पना पुनर्परिभाषित हुई। पाठकों को हैरत में डालने हेतु “जादू” का प्रयोग आवश्यक नहीं रहा। वैज्ञानिक एवं तकनीकी सामर्थ्य ही दर्शकों को विस्मित करने हेतु काफी थी। अगर फंतासी तथ्य-विरोधी होने के लिए जादू का सहारा लेती थी तो विज्ञान गल्प से यह आशा तो कर ही सकते हैं कि वह अपने लक्ष्य को पाने हेतु विज्ञान एवं तकनीक के विश्वसनीय साधनों को प्रयोग में लाए। यही कारण है कि जूल्स वर्न ने एचजी वेल्स की तब कटु आलोचना की थी जब उन्होंने अपने रॉकेट को चन्द्रमा तक प्रक्षेपित करने हेतु वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग न करके एक पूर्णतया जादुई एवं काल्पनिक गुरुत्वाकर्षण विरोधी तत्व केवराइट का सहारा लिया।



वैज्ञानिक साहित्य के क्षेत्र में दो मुख्य प्रवृत्तियों को चिह्नित किया जा सकता है ; दृढ़ (उपदेशात्मक अथवा डाइडैक्टिक) एवं मीमांसात्मक (असाधारण अथवा फैंटास्टिक)। पहली धारा का उद्देश्य वर्न के कथानकों को ध्यान में रखते हुए गल्प के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा प्रदान करना है। वहीं दूसरी धारा वेल्स के कथनानुसार विज्ञान के माध्यम से गल्प का विकास करना चाहती थी। वर्न ने अगर अपने पाठकों को सर्वथा असाधारण एवं नवीन ठिकानों (पृथ्वी का केंद्र, चंद्रमा,उत्तरी ध्रुव एवं सुदूर ग्रह) की यात्रा कराई तो वेल्स उन्हें कालयात्रा पर ले गए।

उन्नीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक साहित्य में मध्यवर्गीय आशाएं एवं आकांक्षाएं परिलक्षित होती हैं। उदाहरण के तौर पर अल्बर्ट रोबिदा की द ट्वेंटिएथ सेंचुरी को ले सकते हैं। 1883 में प्रकाशित इस उपन्यास की नायिका एक युवा स्त्री है जो पेरिस शहर में नौकरी की तलाश में जुटी है। रोबिदा की कल्पना तो देखिये- 1952 का पेरिस एयरकैबों से अटा पड़ा है जिन्होंने यातायात के आम साधनों का स्थान ले रखा है। हर घर में एक टेलिफोटोस्कोप है जिसके माध्यम से नवीनतम समाचारों एवं मनोरंजक कार्यक्रमों का प्रसारण होता है। राजनैतिक संरचना की बात करें तो सरकार हर दस वर्ष पर एक व्यवस्थित क्रांति के माध्यम से चुनी जाती है। उपन्यास में न केवल तकनीक, सार्वजनिक यातायात एवं संचार माध्यमों के नए स्वरूप दर्शाए गए थे बल्कि नारीवादी विषयों (नौकरीपेशा महिलाएं) एवं सरकार के स्वरूपों (लोकतंत्र) पर भी चर्चा हुई थी।

वर्ष 1818 में प्रकाशित मैरी शेले द्वारा रचित उपन्यास फ्रैंकनस्टाइन इसके ठीक विपरीत है। यह उपन्यास अभिजात्य वर्ग की उन आशंकाओं को परिलक्षित करता है जो पूंजीवाद के उदय के साथ उभरी थीं। सामाजिक संरचना में एकाएक आए इस बदलाव से सामन्जस्य न बिठा पाने का तनाव उपन्यास में साफ झलकता है। समय के साथ-साथ भय का स्रोत अलौकिक न रहकर लौकिक, वैज्ञानिक हो जाता है। मैरी शेले ने वैज्ञानिक को नायक की कुर्सी से पदच्युत करते हुए विज्ञान के एक नए स्वरूप की समीक्षा की। यह “नया विज्ञान”  दयालु एवं परोपकारी नहीं था। फ्रैंकनस्टाइन दरअसल निरंतर अग्रसर तकनीकी विकास का एक रोमांसवादी अस्वीकरण है। इस उपन्यास के उपरान्त “विक्षिप्त वैज्ञानिक” एक नए आद्यरूप की शक्ल में उभरता है। यह नया वैज्ञानिक अपने ज्ञान के दर्प में चूर, सत्ता की तलाश में निकल पड़ता है। इस प्रक्रिया में विज्ञान एवं मनुष्यता के बीच बने सम्बन्ध टूटते प्रतीत होते हैं।

विज्ञान गल्प दरअसल मनुष्यों को एक प्रजाति के तौर पर देखता है और उनमें हुए परिवर्तनों को मनुष्य के सामाजिक, क्रमिक विकास के सामानांतर स्थान प्रदान करता है। शायद ही किसी को हैरत हो कि एडवर्ड बेलेमी, विलियम मौरिस, एचजी वेल्स एवं जैक लंडन जैसे विज्ञान गल्प के लेखक समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे। बीसवीं सदी के इन लेखकों का मानना था कि वैज्ञानिक एवं यूटोपियन रोमांस का अनैतिक एवं अहस्तक्षेप नीति की समर्थक रही पूंजीवादी व्यवस्था के साथ जुड़ाव था। 1960 एवं 70 के दशकों का विज्ञान गल्प मुख्यतः एक “यूटोपियन चार्ज” (इतालो काल्विनो द्वारा प्रयुक्त शब्द) से प्रभावित था जिसका उद्देश्य विश्व से गरीबी का उन्मूलन था। नस्लवाद, यौन दमन एवं शोषण एवं सरल,अनुभवहीन वैज्ञानिक रोमांसवाद को ख़त्म करना भी जरूरी समझा गया। सोवियत लेखक यूरी एफ्रेमोव की कालजयी वैज्ञानिक फंतासी एंड्रोमेडा (1957) इस दिशा में उल्लेखनीय है।

इस उपन्यास में समाजवाद के सरोकारों पर चर्चा की गई है। चाहे विज्ञान हो या कला, नीतिशास्त्र हो या सूक्ष्म विवादात्मक वार्तालाप, यह उपन्यास हर क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ चुका है। हालांकि इसका यह अर्थ भी नहीं है कि तत्कालीन विज्ञान गल्प केवल समाजवादी विचारधारा से प्रभावित था। आलोचकों ने दिखाया है कि खासकर अमरीकी परिप्रेक्ष्य में वर्तमान लुगदी विज्ञान गल्प नए विध्वंसकारी हथियारों के विकास का कारण रहा है। इंडिपेंडेंस डे एवं आरमागेडन जैसी विज्ञान फंतासी फिल्मों के अध्ययन से यह साबित हो चुका है कि मनोरंजन के इन साधनों के माध्यम से वीभत्स वैचारिक दृष्टिकोणों का सामान्यीकरण किया जा रहा है। हम देख सकते हैं कि कैसे ये फिल्में आणविक निरस्त्रीकरण के इस दौर में भी उन हथियारों को आवश्यक सिद्ध करने में प्रयासरत हैं।

भूमंडलीय तापमान वृद्धि को गलत साबित करने की मंशा के साथ भी विज्ञान गल्प लिखा जा चुका है। अपने समय में डॉन क्विक्सोट् और पवनचक्कियों की लड़ाई भले ही हास्यास्पद रही हो किन्तु अगस्त 1945 के उपरांत विज्ञान सर्वथा श्लाघ्य नहीं रहा। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि मानव- मशीन युद्ध विज्ञान गल्प का एक अहम विषय बनकर उभरे। जहां पहले तकनीक मनुष्य का काम हल्का करने के साधन के रूप में देखी जाती थी वहीं आज हम मशीनों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे हैं। फ्रेडरिक ब्राउन की कृति “आंसर” 1954 में दिखाया गया है कि कैसे एक अत्याधुनिक सुपर कम्प्यूटर “क्या ईश्वर का अस्तित्व है?” का उत्तर “हाँ” में देता है। यही नहीं, यह कम्यूटर इसी क्रम में एक मनुष्य की हत्या भी कर देता है जब वह उसे बंद करने की कोशिश कर रहा होता है।

हालिया वैज्ञानिक साहित्य अनुसारवाद

(कंफॉर्मिजम), नौकरशाही एवं मनुष्य के उत्पादीकरण (कामोडिफिकेशन) का विरोध करता है। वह पर्यावरण के ज्वलंत मुद्दों की ओर ध्यानाकर्षण करने के साथ-साथ “विदेश द्वेष”(जीनोफोबिया) का भी विरोध करता है। सहिष्णुता एवं बहु संस्कृतिवाद का समर्थन भी इसके उद्देश्यों में शामिल है। इसके साथ विज्ञान गल्प पूंजीवाद के लगातार बढ़ते प्रभाव एवं तकनीक के साथ इसके डरावने संबंधों की ओर भी ध्यानाकर्षण करता है। हालांकि आरंभिक कृतियों के विपरीत आजकल की रचनाओं में कभी कभार ही कठिन राजनैतिक प्रश्न उठाए जाते हैं और न ही वैश्विक पूंजीवाद का कोई विकल्प प्रस्तुत किया जाता है।

ऐसा प्रतीत होता है मानो हम यह जानते हों कि हमें क्या नहीं चाहिए किन्तु हमारी असली लालसा क्या है, यह अब भी एक रहस्य ही है। टी वी वेंकटेश्वरन विज्ञान प्रसार, नयी दिल्ली में वैज्ञानिक के तौर पर कार्यरत हैं।

आरम्भ की कथा

विद्वान प्राचीन लेखन खासकर संस्कृत धर्मग्रंथों को विज्ञान गल्प के उद्गम स्थल के रूप में देखते हैं

अरविन्द मिश्रा और हरीश गोयल

अपने शुरुआती अवतार में विज्ञान गल्प मुख्यधारा के साहित्य से करीबी तौर पर जुड़ा हुआ था। मुख्यधारा के कई साहित्यकार विज्ञान गल्प लिखा करते थे और यह विधा मुख्यधारा के ही साहित्यिक आन्दोलनों से अपनी दिशा एवं दशा पाती थी। कई विद्वान प्राचीन लेखन, खासतौर पर संस्कृत धर्मग्रंथों को विज्ञान गल्प के उद्गम स्थल के रूप में देखते हैं। हालांकि, अम्बिकादत्त व्यास द्वारा रचित “आश्चर्य वृत्तांत” को हिंदी भाषा में लिखा प्रथम आधुनिक विज्ञान गल्प माना जाता है। व्यास मुख्यधारा के लेखक थे एवं “आश्चर्य वृत्तांत” वर्ष 1884 से 1888 के मध्य एक हिंदी साहित्यिक पत्रिका, “पीयूष प्रवाह” में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई। आरंभिक हिंदी साहित्य में एक मील के पत्थर के रूप में देखी जानेवाली यह पत्रिका जूल्स वर्न की पुस्तक “वौएजेस  एक्सट्राऑर्डिनरी” से प्रेरित है।

तत्कालीन हिन्दीभाषी पाठकों के नजरिये से बात करें तो उनके लिए यह कहानी सर्वथा नई थी। इस कहानी में गोपीनाथ की रोमांचक भूगर्भ यात्रा का रोचक वर्णन था। वर्न की कृति “वौएजेस एक्सट्राऑर्डिनरी” आगामी कई दशकों तक हिंदी लेखन पर अपनी छाप छोड़ती रही। “सरस्वती” नामक एक अन्य साहित्यिक पत्रिका ने वर्ष 1990 में बाबू केशव प्रसाद सिंह द्वारा रचित “चंद्रलोक की यात्रा” को प्रकाशित किया। यहां बताते चलें कि चन्द्रमा पर मनुष्य के कदम पहली बार वर्ष 1969 में पड़े, इस कहानी के प्रकाशन के पूरे सात दशक बाद। भारत के स्वनिर्मित चंद्रयान को यह उपलब्धि हासिल करने में पूरे 100 वर्ष लग गए। सरस्वती ने विज्ञान से प्रेरित कहानियों को छापना जारी रखा। हालांकि यह सत्य है कि वे सारी कथाएं भविष्योन्मुखी नहीं थीं। वर्ष 1908 में एक अन्य साहित्यिक पत्रिका ने सत्यदेव परिव्राजक द्वारा रचित कहानी “आश्चर्यजनक घंटी” को स्थान दिया।

यह कहानी एक मर्डर मिस्ट्री थी जो कि महान इतालवी वैज्ञानिक गैलीलियो द्वारा वर्णित प्रतिध्वनि के सिद्धांत से प्रेरित थी। कहानी का नायक स्कॉट अक्सर एक रहस्यमय ध्वनि सुनता है। खोजबीन के उपरान्त पता चलता है कि यह ध्वनि एक ऐसी घंटी से आ रही है जो बिना किसी बाह्य बल के बज रही है। हालात तब और भी रहस्यमय हो जाते हैं जब एक जापानी पर्यटक ओकू मात्सुमि का पदार्पण होता है। ओकू को घंटी हर हाल में चाहिए किन्तु स्कॉट उसे बेचने से इनकार कर देता है। एक दिन अचानक स्कॉट की लाश बरामद होती है। घंटी के मालिक की हत्या की छानबीन करने की ज़िम्मेदारी एक जासूस ऑगस्टस को दी जाती है जिसे लेखक “तीक्ष्ण बुद्धि” के नाम से भी बुलाते हैं। ऑगस्टस को घंटी पर खून के छींटे मिलते हैं। सुराग की खोज में ऑगस्टस दीवानखाने जा पहुंचता है।

यह दीवानखाना दरअसल स्कॉट के घर से आधे मील की दूरी पर स्थित एक विशाल भवन है। तीक्ष्ण-बुद्धि को भवन की छत पर एक विशाल घंटी मिलती है जिसे स्थानीय निवासी “घड़ियाल घंटा” के नाम से जानते हैं। ऑगस्टस स्कॉट की घंटी के लगातार बजते रहने के पीछे का कारण प्रतिध्वनि के सिद्धांत को बताता है। घड़ियाल घंटे की प्रतिध्वनि आधे मील दूर टंगी छोटी घंटी को कम्पित करती हैं। स्कॉट की मृत्यु के दिन तो कम्पन इतना बढ़ जाता है कि घंटी टूटकर उसके सर पर ही गिर जाती है।

‌कई आलोचक “आश्चर्यजनक घंटी” को एक ऐसी कहानी के तौर पर देखते हैं जिसने एक वैज्ञानिक घटना को लोकप्रिय बनाया। हिंदी भाषा में लिखी जा रही भविष्यद्रष्टा कथाओं को मजबूती से स्थापित करने का श्रेय राहुल सांकृत्यायन द्वारा 1924 में लिखी कहानी “बाईसवीं सदी” को जाता है। जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है, यह कहानी वर्ष 2124 के समाज का चित्रण है। भविष्य में हर क्षेत्र में तकनीकी उन्नतियां हो चुकी हैं जिनके फलस्वरूप राजनैतिक एवं सामाजिक परिवर्तन हो चुके हैं। कहानी की शुरुआत वर्ष 1924 में होती है जब नायक विश्वबंधु निद्रामग्न होता है। 200 वर्ष पश्चात नींद खुलने पर विश्वबंधु पाता है कि दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी है।

भविष्य में बसी इस दुनिया की कमान “विश्व सरकार” नामक एक संस्था के हाथों में है। इस नयी दुनिया में विश्वबंधु सबकुछ उलट-पुलट पाता है। “विश्व सरकार” के राष्ट्रपति श्रीदत्त नामक एक भारतीय हैं जबकि प्रधानमंत्री ओहिरो जापानी मूल के हैं। शिक्षामंत्री मोलन रूसी हैं एवं स्वास्थ्य मंत्री डेविड अमरीकी। सबकी भाषा भी एक ही है। इस नई दुनिया में अपराध न होने की बदौलत पुलिस बल की आवश्यकता भी नहीं है। यह सब देखकर विश्वबंधु को ऐसा प्रतीत होता है जैसे तकनीकी उन्नति अपने शिखर पर पहुंच चुकी हो। खेती भी जैवप्रौद्योगिकी की सहायता से होती है। किसान फसलों में मनचाही विशेषताएं अनुवांशिकी के सिद्धांतों की सहायता से प्रत्यारोपित कर सकते हैं।

सांकृत्यायन के काल में आनुवंशिक तकनीकों का प्रयोग होना तो दूर, किसी ने उनके बारे में सोचा भी नहीं था। विश्वबंधु को ऐसे गांव भी मिलते हैं जहां केवल एक खास किस्म की फसलें उगाई जाती हैं, कहीं सेब तो कहीं संतरे। एक गांव में तो संवर्धित फसलों की लंबी कतारें लहलहा रही थीं। विश्वबंधु को एक गांव में सेब एवं दूसरे गांव में संतरे की संवर्धित किस्में देखने को मिलीं। जानवर केवल चिड़ियाघरों तक सीमित हो चुके हैं और लोगों के पास संचार के आधुनिक साधन भी उपलब्ध हैं।

यही नहीं, विश्वबंधु को एक रेडियो दूरभाष नुमा यंत्र भी दिखा जो कि किसी आधुनिक वीडियो फोन से मिलता जुलता है। 1930 के दशक में यमुनादत्त वैष्णव अशोक ने अपनी कहानियों में एक खास किस्म की ‘भारतीयता’ का सम्मिश्रण किया। ऐसा उन्होंने स्थानीय एवं परिचित नायकों, कथानकों एवं स्थानों के समावेशन के माध्यम से किया।।

(अरविन्द मिश्रा “साइंस फिक्शन इन इंडिया” के सह-लेखक हैं एवं हरीश गोयल हिंदी विज्ञान गल्प के क्षेत्र में कार्यरत हैं)

वास्तविकता से परे वास्तविक जैसा

विज्ञान गल्प से मतलब ऐसी घटनाओं से है जिनका घटना शायद ही कभी संभव हो

एंड्रयू मिल्नर

विज्ञान गल्प को एक विधा के रूप में देखें तो आलोचकों ने इसे हमेशा ही तदर्थ रूप में परिभाषित किया है। यह शब्दावली प्रथमतया अमरीकी मध्य-युद्ध “लुगदी साहित्य”(यह नामकरण इन पत्रिकाओं में प्रयुक्त कागज की गुणवत्ता की वजह से हुआ, न कि उनमें प्रकाशित रचनाओं के कारण) पत्रिकाओं में प्रयुक्त हुई। किन्तु, “मीमांसात्मक गल्प” (स्पेकुलेटिव फिक्शन) का क्या? और “वैज्ञानिक रोमांस”, उसका क्या? यह तमाम शब्दावलियां एवं विधाएं, जिनके भूत और भविष्य एक-दूसरे से जुड़े हैं, वे आखिर पारस्परिक वार्तालाप करते हैं तो कैसे?

लुगदी साहित्य प्रकाशक ह्यूगो गर्नस्बेक ने वर्ष 1926 में अपनी पत्रिका “अमेजिंग स्टोरीज” के पहले अंक के लिए एक नवीन शब्द की रचना की थी-“साइन्टिफिक्शन”। साइंस फिक्शन या विज्ञान गल्प, जो कि निश्चित रूप से एक सुधार है, गर्नस्बेक की ही ‘वंडर स्टोरीज’ (1929) में प्रथमतया प्रयोग में लाया गया। “अमेजिंग स्टोरीज” के अपने प्रारंभिक संपादकीय लेख में गर्नस्बेक विज्ञान गल्प लेखन की इस परंपरा को फ्रांस में जूल्स वर्न, इंग्लैंड में एचजी वेल्स एवं अमरीका में एडगर एलन पो से जोड़कर देखते हैं। हालांकि आधुनिक आलोचक मैरी शेले के उपन्यास फ्रैंकनस्टाइन (1818) को एक शुरुआती मील के पत्थर के तौर पर देखते हैं।

“मीमांसात्मक गल्प जैसी कोई चीज है या नहीं?”

हम देख चुके हैं कि न केवल गर्नस्बेक बल्कि उनके कई प्रशंसकों एवं आलोचकों ने भी वर्न, वेल्स एवं पो को एक ही श्रेणी में रखा है। इसके बावजूद बीसवीं सदी के कई लेखकों ने विज्ञान गल्प की एक नई उपकोटि (सबसेट) के निर्माण की सिफारिश की है। वर्ष 2011 में कैनेडियन लेखिका मार्गरेट ऐटवुड ने कहा कि उनके उपन्यास “ऑरिक्स एंड क्रेक” एवं “द ईयर ऑफ द फ्लड” (2009) विज्ञान गल्प न होकर मीमांसात्मक गल्प विधा के अंतर्गत आते हैं। ऐटवुड अपनी पुस्तक “अदर वर्ल्ड्स: साइंस फिक्शन एंड द ह्यूमन इमेजिनेशन”(2011) में लिखती हैं कि विज्ञान गल्प से उनका मतलब ऐसी घटनाओं से है जिनका घटना शायद ही कभी संभव हो, जैसा कि वेल्स की रचनाओं में लक्षित होता है।

वहीं दूसरी ओर, मीमांसात्मक गल्प से उनका तात्पर्य वर्न की शैली में लिखी गई पुस्तकों से है जिनकी विषयवस्तु ऐसी चीजें हैं जिनका घटना संभव है किन्तु किसी कारणवश रचना के प्रकाशन काल तक ऐसा संभव नहीं हो पाया। अमरीका के रॉबर्ट ए हेनलेन एवं ब्रिटिश लेखक माइकल मुअरकॉक मीमांसात्मक गल्प शब्द से विज्ञान गल्पों के एक ऐसे उपवर्ग को इंगित करते हैं जिसके मुख्य सरोकार वैज्ञानिक या तकनीकी न होकर समाजशास्त्रीय हो। वर्ष 1969 में अमरीकी-कैनेडियन लेखक एवं आलोचक जूडिथ मेरिल “द मैगजीन ऑफ फैंटसी एंड साइंस फिक्शन” के लिए लिखे अपने स्तम्भ में कहती हैं मीमांसात्मक गल्प प्रजातिगत श्रेणी के रूप में विज्ञान गल्प से कहीं ज्यादा उपयुक्त है।

विज्ञान एवं रोमांस

यह कोई पहली दफा नहीं है जब लेखकों ने विभिन्न औपन्यासिक विधाओं में अंतर करने की चेष्टा की हो। विज्ञान गल्प के निकट पर्यायों की कोई कमी भी नहीं है। उन्नीसवीं सदी में प्रकशित हो रहे वेल्स के मूल उपन्यास हों या जूल्स वर्न (बीसवीं सदी की शुरुआत में) की पुस्तकों के अनुवाद, दोनों ही “वैज्ञानिक रोमांस” के नाम से बिकते थे (फ्रांस में वर्न की कहानियां वोयजेज एक्सट्रा ऑर्डिनरी के नाम से जानी जाती हैं)।

आज से कुछ तीन दशक पूर्व ब्रिटिश लेखक ब्रायन स्टेबल्फोर्ड ने अपने लेख “साइंटिफिक रोमांस इन ब्रिटेन” में वैज्ञानिक रोमांस के पक्ष में एक स्थापना प्रस्तुत की जो कि मीमांसात्मक गल्प के पक्ष में दी गई दलीलों से काफी हद तक मिलती जुलती थीं। स्टेबलफोर्ड के अनुसार, वैज्ञानिक रोमांस मूलतः ब्रिटिश था एवं बौद्धिक मीमांसा से सम्बंधित था। विज्ञान गल्प की परिकल्पना मूलतः अमरीकी थी और उस रोमांचक दुनिया में जोखिम भरे अभियानों एवं तकनीकी मशीनों की बहुतायत थी।

मीमांसात्मक गल्प, विज्ञान गल्प, रोमांस है क्या?

चाहे इसका उद्गम कहीं भी हुआ हो, मिथकों, लोककथाओं एवं फंतासी की तरह विज्ञान गल्प एक ऐसी परिकल्पना है जिसका सम्पूर्ण कथानक “नोवम” के सिद्धांत पर आधारित है। कैनेडियन-क्रोएशियन बुद्धिजीवी दारको सुविन के अनुसार नोवम एक काल्पनिक नयापन है जो अनुभवजन्य वास्तविकता में नहीं पाया जाता।

किन्तु मिथकों, लोककथाओं एवं फंतासी से अलग, विज्ञान गल्प का यह नोवम विज्ञान के संज्ञानात्मक तर्कों के पूर्णतया अनुरूप है। कालयात्रा एवं विद्रोहात्मक रूप से बुद्धिमान यंत्रमानव इस अनुरूपता के उदाहरण हैं। फंतासी में ऐसा नहीं होता, चाहे बात रक्तचूषक वैम्पायर की हो या भेड़िया-मानव की।
अतः विज्ञान गल्प अपने ही अंदाज में आधुनिक (उत्तर-आधुनिक भी), एवं उत्तर ज्ञानोदय (पोस्ट एंलाइटेन्मेंट) किस्म की कल्पनाशीलता है।

वैज्ञानिक फंतासी, डिस्टोपिया एवं यूटोपिया

आगे बात करें तो मेरिल एवं ऐटवुड, दोनों ही लेखिकाओं की मीमांसात्मक गल्प की समझ अन्य लेखकों के यूटोपियन या डिस्टोपियन विज्ञान गल्प की परिभाषा से काफी मेल खाती है। एक विधा के तौर पर यूटोपिया विज्ञान गल्प से कहीं ज्यादा पुरातन है। इस शब्द को टॉमस मोर ने 1516 में गढ़ा था फिर भी ऐसे समाज जिन्हें निर्विवाद रूप से यूटोपियन होने की संज्ञा दी जा सके, प्राचीन काल से ही साहित्यिक एवं दर्शनशास्त्रीय परिकल्पना में उपस्थित रहे हैं।

कई विद्वान असल में विज्ञान गल्प को यूटोपियन/ डिस्टोपियन परम्परा की एक उत्तर कथा के रूप में देखते हैं। 1979 में लिखे गए “मेटामॉर्फोसिस ऑफ साइंस फिक्शन” में सुविन कहते हैं कि विज्ञान गल्प ने अतीतलक्षी रूप से यूटोपिया को इन्ग्लोब (घेरकर) करके उसे विज्ञान गल्प की समाजशास्त्रीय- राजनैतिक अंतर विधा के रूप में परिवर्तित कर दिया। इस दृष्टिकोण को कई अन्य आलोचकों का समर्थन प्राप्त है, जिसमें फ्रेडरिक जेमिसन का नाम उल्लेखनीय है। वर्ष 2005 में प्रकाशित हुई अपनी पुस्तक “आर्कियोलॉजीज ऑफ द फ्यूचर” में जेमिसन इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

यूटोपिया अपने काल को परिलक्षित करती है

विज्ञान गल्प रूपी यूटोपिया एवं डिस्टोपिया निरपवाद रूप से मीमांसात्मक हैं क्योंकि वे भी उन्हीं आशाओं एवं आशंकाओं से प्रभावित होते हैं जिनसे यथार्थ जीवन की राजनीति संचालित होती है। इसके फलस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में यूटोपियन गल्प लेखक मुख्यतः समाजवादी थे ( एडवर्ड बेलेमि, विलियम मौरिस, एच जी वेल्स)। इसके विपरीत, पूंजीवाद विरोधी डिस्टोपिया समाजवाद (जैक लंडन) एवं उदारवाद (कारेल कपेक, एल्डस हक्सले), दोनों से प्रभावित थे। बीसवीं सदी के मध्य के दशक भी कई सर्वसत्तावाद विरोधी डिस्टोपियन रचनाओं के सृजन के साक्षी रहे हैं (येव्गेनी जमयातिन, जॉर्ज ऑरवेल)।

आगे बढ़ें तो बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लिखे गए यूटोपिया एवं डिस्टोपिया नस्लावद विरोधी (पायरे बूल, ऑक्टेविया बटलर) एवं नारीवाद के समर्थक थे (ऐटवुड, उर्सुला के ले ग्वां, जोऐना रस, मार्ज पियरे) थे। इसके अलावा, पर्यावरण (किम स्टेनली रॉबिंसन, पाओलो बचिगलुपि) एवं पूंजीवाद विरोध (चाइना मियेविल) के मुद्दे भी सामान रूप से प्रचलित रहे हैं। मजे की बात यह है कि इन उत्तरकालीन यूटोपियाओं में डिस्टोपियन अनुकल्पनाएं प्रमुखता से देखी जा सकती हैं।

ठीक इसी तरह, डिस्टोपियन रचनाओं में भी कई यूटोपियन परिस्थितियां नमूदार होती हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि बीसवीं सदी के अंत एवं इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के विज्ञान गल्प की एक विशिष्ट पहचान यह है कि इसने यूटोपिया एवं डिस्टोपिया के इन परस्पर विरोधी धड़ों के मध्य एक व्यवहारिक समाधान या यूं कह लें कि उनके बीच की जमीन प्रस्तुत की है। अकादमिक एवं लेखक टॉम मोइलन एवं अन्य ने इस समाधान को आलोचनात्मक यूटोपिया (क्रिटिकल यूटोपिया) एवं आलोचनात्मक डिस्टोपिया (क्रिटिकल डिस्टोपिया) का नाम दिया है।

मोइलन द्वारा प्रयुक्त शब्दावली(आलोचनात्मक) निश्चय ही मेरिल एवं ऐटवुड द्वारा प्रयुक्त शब्दावली (मीमांसात्मक) जितनी ही सुसंगत है। चाहे मीमांसात्मक हो या वैज्ञानिक, गल्प हो या रोमांस, यूटोपियन हो या डिस्टोपियन, यह विधा निश्चित रूप से हमारी संस्कृति की गंभीरतम आशंकाओं एवं आशाओं के काल्पनिक चित्रण का एक मुख्य जरिया बनकर उभरी है।

(लेखक मोनाश विश्वविद्यालय में इंग्लिश और कंपेरेटिव लिटरेचर के प्रोफेसर हैं। यह लेख द कन्वरसेशन से विशेष समझौते के तहत प्रकाशित किया गया है)

टर्मिनेटर के कातिलाना यंत्रमानव

बुद्धिमान मशीनों के प्रति हमारा आकर्षण शायद एक नए ईश्वर की खोज से उपजा है

क्रिस्टोफर बैंजामिन मेनाड्यू

घातक, स्वायत्त  हथियारों के अंधाधुंध विस्तार पर नकेल कसने की मांग अब बरसों पुरानी हो चली है। इस हफ्ते यह मांग और भी मुखरता से उठाई जा रही है और ऐसी हालत में विज्ञान गल्प की हैरत-अंगेज दुनिया में बहुतायत में पाए जानेवाले कातिलाना यंत्रमानवों का जिक्र होना लाजिमी है, चाहे वह टर्मिनेटर हो या रोबोकॉप।

यहां बताते चलें कि 1991 में प्रथमतया प्रदर्शित हुई फिल्म “टर्मिनेटर 2: जजमेंट डे” दोबारा त्रि-आयामी प्रारूप में सिनेमाघरों में दिखाई गई है। ऐसी सूरत में हम यह मानकर चल सकते हैं कि मूल चलचित्र के खूनी यंत्रमानव अब भी उतने ही डरावने होंगे।

इसमें बुराई क्या है?

गत वर्ष हुए एक अध्ययन में यह बात निकलकर सामने आई है कि टर्मिनेटर की डरावनी छवि खूनी यंत्रमानवों के विकास एवं प्रसरण से सम्बंधित वैश्विक नीतियों की ओर आम जनता का ध्यान आकर्षित करने में सर्वाधिक प्रभावशाली रही है। इस परिचर्चा में काल्पनिक तत्वों के समावेशन से बहस कमजोर होने की बजाय और भी सार्थक हुई है। एक हालिया शोधपत्र में मैंने एवं मेरे सहयोगी ने पाया कि शोधकर्ता विज्ञान गल्प के तत्वों का प्रयोग आम जनता से विचार विमर्श के दौरान एक मुकम्मल आम राय बनाने हेतु कर रहे हैं।

विज्ञान के शिक्षण, पक्ष समर्थन एवं शोध के क्षेत्र में ऐसा विशेषकर हो रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि एक तर्कशील सोच हमें नए एवं चुनौतीपूर्ण विषयों के बारे में चिंतन हेतु मानवीय साधन प्रदान करती है। विज्ञान गल्प त्रासद विभीषिकाओं के निजीकरण में भी सहायक सिद्ध होता आया है। वर्ष 2005 में प्रकाशित हुआ काजुओ इशिगुरो द्वारा रचित उपन्यास “नेवर लेट मी गो”  इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। इस उपन्यास में सम्पन्न, अभिजात्य वर्ग के लोग बच्चों का प्रतिरूपण जीते-जागते अंगदाताओं के रूप में करते हैं। फिलिप के डिक के उपन्यास “डू एनड्रॉइड्स ड्रीम ऑफ इलेक्ट्रिक शीप” पर आधारित फिल्म ब्लेड रनर(1982) हमें मानव होने की सच्चाई पर सवाल उठाने को मजबूर कर देती है। शोधकर्ताओं का तो यहां तक मानना है कि बुद्धिमान मशीनों के प्रति हमारा आकर्षण शायद एक नए ईश्वर की खोज से उपजा है।

विज्ञान पर आधारित हमारे प्रश्न भविष्योन्मुखी तथ्य, कल्पना, यहां तक कि आस्था पर भी आधारित हो सकते हैं। विज्ञान गल्प शैक्षिक व्यवहार में एक नीरस, अकल्पनाशील रूप में भी प्रयुक्त होता है। चाहे वह आइजैक असिमोव के कथा संकलन “आई रोबोट” का प्रयोग नयी पीढ़ी के वैज्ञानिकों को बेहतर तकनीकी लेखन की सीख देने हेतु हो या अभिकल्पना शिक्षण हेतु एक नया पाठ्यक्रम तैयार करने में हो। फंतासी गल्प एक अन्य सम्बंधित विधा है जिसके माध्यम से स्कूली बच्चों में खगोलशास्त्र के प्रति अभिरुचि जगाने के प्रयास किए गए हैं। सी इस ल्यूइस की नार्निया क्रॉनिकल्ज, जे के राउलिंग की हैरी पॉटर श्रृंखला एवं जे आर आर टोल्किन की मिड्ल अर्थ कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। विज्ञान गल्प की लोकप्रियता में आशातीत बढ़ोतरी 1920 के दशक के अंतिम वर्षों में हुई जब यह लुगदी साहित्यिक पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित होने लगा।

आरम्भ से ही कुछ लेखक यूटोपियन आदर्शों के प्रति उन्मुख थे एवं उनका उद्देश्य मानवता के लिए एक बेहतर भविष्य की तलाश करना था। कालक्रम में कई ऐसे वैज्ञानिक हुए हैं जिन्होंने विज्ञान गल्प लेखन के क्षेत्र में योगदान किया है। आइजैक असिमोव, आर्थर सी क्लार्क, फ्रेड हॉयल, ज्योफ्री लैंडिस एवं कार्ल सेगन इस क्षेत्र के कुछ प्रमुख हस्ताक्षर रहे हैं। वैज्ञानिक पृष्ठभूमि से सम्बद्ध लेखकों की यह परम्परा वर्तमान में भी जीवित है। उदाहरण के तौर पर हम तकनीकी लेखक टेड चियांग को ले सकते हैं जिनकी कहानियां नेचर पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी हैं। चियांग का काम दरअसल “विचार प्रयोगों” की एक श्रृंखला है जिनका उद्देश्य महत्वपूर्ण वैज्ञानिक सरोकारों पर मानवीय नजरिया पेश करना है। चिआंग द्वारा रचित विज्ञान पर आधारित किन्तु सुगम्य विज्ञान गल्प बड़े परदे पर अपनी छाप छोड़ चुका है। 2016 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘एराइवल’ हालिया वर्षों की सर्वाधिक विचारोत्तेजक फिल्मों में से एक है। आलोचकों के साथ दर्शकों ने भी इसको पूरे मन से सराहा है।

विज्ञान गल्प अत्यधिक लोकप्रिय हो चला है। फिल्म एवं प्रिंट, दोनों ही माध्यमों में इसने अपनी गहरी पैठ बना रखी है। 1950 एवं 60 के दशकों में विज्ञान गल्प युवा पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहा था। वही आकर्षण आज एक सार्वजनिक आकर्षण में तब्दील हो चुका है। 2015-16 के दौरान किए गए एक सर्वेक्षण में मैंने पाया कि विज्ञान गल्प के चाहनेवालों में 54 प्रतिशत उपस्थिति महिलाओं की है। रोचक तथ्य यह है कि ये महिलाएं हर आयु खंड में समान रूप से विभाजित हैं।

विज्ञान गल्प के मौजूदा उपभोक्ता हर वर्ग से ताल्लुक रखते हैं और समय के साथ-साथ उनका विज्ञान के प्रति रुझान भी बढ़ा है। इसकी बदौलत शोधकर्ताओं को एक बड़े जनमानस को अपने काम की ओर आकर्षित करने का मौका मिल पाता है।

(लेखक जेम्स कुक विश्वविद्यालय में साहित्य और समाज पर पीएचडी कर रहे हैं। यह लेख द कन्वरसेशन से विशेष समझौते के तहत प्रकाशित किया गया है)