पर्यावरण

भारत, एक नई खोज

कहा जाता है कि एक देश का इतिहास उसके भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिबिम्ब होता है। अपने २२ सालों के शोध के आधार पर भारत के आकर्षक प्राकृतिक इतिहास की एक झलक दिखा रहे हैं प्रणय लाल

Pranay Lal

मुझे प्रकृति हमेशा से आकर्षित करती रही है और मैं अक्सर यह सोचकर चकित रहता था कि कुछ चीजें जैसी दिखती हैं, वैसी क्यों हैं? विशेषकर मैं सोच रहा था कि प्राकृतिक दृश्य, भू-दृश्य, जंगल, नदी और जीव-जंतु अस्तित्व में कैसे आए, और क्यों वे एक स्थान पर मौजूद थे और दूसरे पर नहीं। मैं वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों से अपने सवालों के जवाब जानने की कोशिश करने लगा। मुझे अपने सभी सवालों के जवाबों को एक ही स्थान पर एकत्रित करने में 22 साल से अधिक समय लगा, जिसे मैंने अपनी नई पुस्तक ‘इंडिका’ में संकलित किया। हालांकि मैं एक पल के लिए भी आत्मविश्वास से यह नहीं कह सकता कि मैंने सभी प्रश्न सही पूछे हैं या मेरे जवाब पर्याप्त रूप से उन प्रश्नों की व्याख्या करते हैं।

मेरा मानना है कि सबसे प्राचीन भूमंडलों के साथ भी बहुत दिलचस्प स्थान, ठिकाने और कहानियां जुड़ी हैं। मैं उनमें से प्रत्येक से आकर्षित हूं, और ये सभी जीवन के विकास की समग्र कहानी पर प्रकाश डाल सकते हैं। भारत में अधिकांश कालों में एक अद्भुत विविधता रही है, और यह महत्वपूर्ण है कि हम इस देश में स्थित परिदृश्य और भूवैज्ञानिक संरचनाओं को संरक्षित करते रहे हैं।



मुझे नहीं लगता कि “विज्ञान” में कभी भी मतभिन्नता होती है, और मुझे विश्वास है कि “भारतीय” या “पश्चिमी” विज्ञान जैसा कुछ भी नहीं है। सभी वैज्ञानिक अध्ययनों की परख आवश्यक रूप से एक निश्चित पैमाने पर कठोरतापूर्वक होनी चाहिए। साथ ही इसको सत्यापित और विधिमान्य बनाया जाना भी जरूरी है। एक आकर्षक खोज जो मुझे बड़ी दिलचस्प लगी, वह थी डायनासोर के कोप्रोलाइट (जीवाश्म बन चुके डायनासोर का गोबर) में घास की खोज। यह खोज 2005 में लखनऊ स्थित बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पालएओबोटनी (बीएसआईपी) के वैज्ञानिकों ने की थी। अभी कुछ समय पहले तक वैज्ञानिकों का मानना था कि डायनासोरों ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए शंकुवृक्ष के सुइयों, फर्न और काई खाना शुरू कर दिया था और घास उनके आहार से पूरी तरह गायब हो गया था।

इसको लेकर परंपरागत दृष्टिकोण यह था कि चावल जैसे घास लगभग 300 लाख वर्ष पूर्व लौरसिया (शायद चीन) में उत्पन्न हुए थे, और उस समय तक डायनासोर विलुप्त हो चुके थे। बीएसआईपी की टीम ने यह पाया कि 710 लाख से 650 लाख वर्ष पहले डायनासोर अन्य घासों में से बांस और चावल की पूर्ववर्ती प्रजाति को खाते थे। आपको यह जानकर शायद आश्चर्य होगा कि वैज्ञानिक ऐसे पौधों की प्रकृति को भी परिभाषित करने में सक्षम हैं जो लाखों साल पहले चबाए, पचाए और मल के रूप में उत्सर्जित किए गए थे। 



इसका उत्तर मिट्टी की सतह पर प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले चमकदार तत्व “सिलिका” के रूप में छिपा है। घास की प्रत्येक प्रजाति की सभी पत्तियों के तेज किनारे सिलिका के सूक्ष्म टाइलों के रूप में व्यवस्थित होते हैं, जिसे फायोलाइट्स कहा जाता है।  फायोलाइट्स में टाइल्स की सटीक व्यवस्था प्रत्येक प्रजाति के लिए अद्वितीय है। इस शोध के निष्कर्ष ने चीन में घास की उत्पत्ति और बाद में क्रेटेसियस के अंत तक भारत के रास्ते गोंडवाना में फैलने की पुरानी अवधारणा को ध्वस्त कर दिया। डायनासोर के गोबर के माध्यम से अब हम जानते हैं कि चावल जैसे घास 35 करोड़ साल पहले गोंडवाना और संभवतः भारत में उत्पन्न हुए थे।

भारतीय उपमहाद्वीप ने जीवन के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनमें से दो सबसे महत्वपूर्ण भूमिकाएं मैं आपको बताता हूं। हमारे ग्रह पर समकालीन जीवन के संदर्भ में पहला योगदान दक्कन ज्वालामुखी से बड़े पैमाने पर लावा निकलने के रूप में है, जो डायनासोरों के अंत का कारण बना, और जिसने बदले में स्तनधारियों को उनके स्थान पर स्थापित करने और उनमें विविधता लाने के लिए मार्ग प्रशस्त किया।



दूसरा घटनाक्रम 500 लाख साल पहले भारत का यूरेशिया के साथ टकराव था, जिसने टेथिस सागर को बंद कर दिया और हल्के धक्कों के माध्यम से उच्चतम पर्वतमाला और पठारों के साथ ही दुनिया में सबसे बड़ी नदियों का निर्माण किया। इनमें से सामूहिक रूप से सबसे गहन प्रभाव, वातावरण को ठंडा करना था। और ऐसा करने से, उन्होंने एक नए जलवायु प्रबंध - एक हल्के हिमयुग - का निर्माण किया, जिसके कारण हमारे शुरुआती पूर्वजों का जन्म हुआ।

मुझसे यह पूछा गया भारतीयों में प्राकृतिक इतिहास को लेकर रुचि क्यों नहीं है? इस सवाल के जवाब में मैं पूरे यकीन के साथ किसी एक कारक पर अपनी उंगली नहीं रख सकता। मेरा मानना है कि हमारी शिक्षा प्रणाली की संरचना ऐसी है कि इसकी शुरुआत रचनात्मकता की कमी के साथ होती है। खराब शिक्षा व्यवस्था बच्चों में सीखने के लिए जिज्ञासा और कौतूहल की भावनाओं को व्यवस्थित रूप से भोथरा कर देती है। ऐसा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला है, नतीजतन अक्सर उच्चतम संस्थानों में भी मध्यमता पुरस्कृत होती है, न कि श्रेष्ठता।

यह समाज में वैज्ञानिक जांच की एक गहरी, व्यापक और संगठित कमी उत्पन्न करता है। नागरिक वैज्ञानिक समुदाय के साथ जुड़ते नहीं हैं।  इसलिए यह जरूरी है कि वैज्ञानिक जनता से बात करें और विज्ञान में रुचि रखने वाले लोगों के लिए संस्थानों और प्रयोगशालाओं के दरवाजे खोलें। विश्वविद्यालयों को व्यापक पहुंच वाले कार्यक्रमों का निर्माण करना चाहिए और नागरिकों को यह जवाबदेही तय करनी चाहिए कि शोध और शिक्षण के लिए सार्वजनिक निधियों का उपयोग कैसे किया जा रहा है। हमें ऐसे और संग्रहालयों, गैलरी और अन्य सार्वजनिक स्थानों की आवश्यकता है जो रचनात्मकता और जुड़ाव को बढ़ावा दे सकें।

हमें विज्ञान के प्रत्येक विषय के लिए जुनूनी संचारकों का समूह विकासित करना होगा। हमारे जीवन के सभी चरणों में तंत्र की बुराई को सुधारने की आवश्यकता है। इसे हमारे बचपन से ही अपने मन में बैठाने की जरूरत है जो हमारे पूरे जीवन काल तक बना रहे। मेरा मानना है कि इनमें से कुछ मुद्दों को यदि गंभीरता से संबोधित किया जाए, तो यह भविष्य की पीढ़ियों को हमारे प्राकृतिक इतिहास और विरासत की अधिक सराहना करने के लिए शिक्षित कर सकता है।

लेखक ने हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ के माध्यम से भारत के अचंभित कर देने प्राकृतिक इतिहास को रेखांकित किया है।