पर्यावरण

बजट 2017-18: कर, रोज़गार और कृषि के अंतर्संबंध

कोई भी बजट वैश्विक सन्दर्भों को नज़रंदाज़ करके समझा नहीं जा सकता है। कहने को ही सही, पर हम गाँव की तरफ लौटने के क्यों मजबूर हो रहे हैं?

Sachin Kumar Jain

बुनियादी सिद्धांत यह है कि बजट में बड़ा हिस्सा राजनीतिक प्राथमिकताओं का होता है और छोटा हिस्सा आर्थिक प्राथमिकताओं का होता है। इससे हमारी सरकार के दृष्टिकोण और नज़रिए का पता चलता है। वास्तव में बजट को विशषज्ञों का विषय मान लिया गया है, जबकि यह सबसे आम और भाषाई रूप से निरक्षर व्यक्ति को समझ आने वाला विषय बनाया जाना चाहिए। खैर; वर्ष 2017-18 के बजट में यह दावा किया गया है कि यह बजट गाँव, गरीबों, युवाओं और नयी तकनीक को समर्पित बजट है। वास्तव में यह बजट बाज़ार में गाँव और संसाधनों को घोल देने की कोशिश वाला बजट है।

वैश्विक सन्दर्भ

कोई भी बजट वैश्विक सन्दर्भों को नज़रंदाज़ करके समझा नहीं जा सकता है। कहने को ही सही, पर हम गाँव की तरफ लौटने के क्यों मजबूर हो रहे हैं? पहले वर्ष 2007-08 की वैश्विक मंदी, फिर मंहगाई, बढ़ती बेरोज़गारी, प्राकृतिक आपदाओं और धोखाधड़ी से पटे पड़े बाज़ार के स्वभाव के कारण अब सरकारों को समझ आ रहा है कि गाँव और खेती को खत्म करके कोई विकास नहीं हो सकता है। अब वे बीच का रास्ता ले रहे हैं।

इसके बाद हम जानते हैं कि अब से कुछ महीने पहले ब्रिटेन ने अपने आप को यूरोपीय यूनियन ने बाहर निकाल लिया क्योंकि उसके यहाँ व्यवस्था और रोज़गार का संकट पैदा हो रहा था। इसके बाद अमेरिका में तमाम उतार-चढावों के बीच डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति बनना। डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि वह अमेरिका में बाहरी लोगों को कौशल और कुशलता वाला रोज़गार नहीं करने देंगे। वे विशेष वीसा की व्यवस्था को खतम करने की तरफ बढ़ रहे हैं। जो हो रहा है, उससे भारत पर बहुत गहरा असर पड़ेगा क्योंकि लाखों भारतीय वहां काम करते हैं। खास तौर पर सूचना प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में। वित्त मंत्री ने भी अपने बजट भाषण में इस संकट को महसूस किया है। यह परिस्थिति हमें सिखा रही है कि अब तक हमने अमेरिका या इंग्लैण्ड के लिए ही युवा तैयार किये, उन्हें कौशल संपन्न बनाया; अब जब उन्हें वापस आना होगा, तब भारत के बाजार में किस तरह की उठा-पटक होगी; यह समझना होगा! अभी भी अवसर है अपनी जरूरत, अपने संसाधन और अपने कौशल के मुताबिक अवसर पैदा करने वाली विकास नीति को गढा जाना चाहिए। हमें 11 करोड़ लोगों को स्थाई रोज़गार देना है, यदि एक उद्योग में 500 लोग भी लगेंगे, तो हमें 2।2 लाख उद्योग लगाने होंगे। अभी एक उद्योग औसतन 100 एकड़ जमीन मानता है। यानी हमें उद्योगों को 2।2 करोड़ एकड़ जमीन देने की तैयारी करना होगी। इस पहलू को नज़रंदाज़ मत कीजिये।

इसके साथ ही तेल उत्पादक देशों में बनी हुई अशांति और तेल की राजनीति ने अब करवट लेना शुरू कर दिया है। आशंका है कि अब अन्तराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें बढ़ेंगी, जिसका गहरा असर भारत की अर्थव्यवस्था और सरकार के खर्चों पर पड़ेगा। ऐसे में हमें ऊर्जा के स्थानीय विकल्पों के साथ साथ पेट्रोलियम के सीमित उपयोग की प्रवर्ति पर काम करना चाहिए।

क्या गाँव, युवा और खेती केंद्र में है?

तुरंत ही गाँव, युवाओं और खेती को संरक्षण दिए जाने के दावे पर विश्वास नहीं किया जा सकता है क्योंकि भारत सरकार देश की अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था के बीच के संबंधों को समझने में एक बार फिर से नाकाम साबित हुई है। वे भारत की समस्यायों का इलाज़ बाहरी संसाधनों, बाहरी तकनीक और बाहरी विचार में खोजने की कोशिश कर रहे हैं। हर साल ग्रामीण क्षेत्रों पर 3 लाख करोड़ रूपए खर्च किये जाते हैं। बजट 2017-18 के वक्तव्य के तहत कहा गया है कि महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती यानी वर्ष 2019 तक 1 करोड़ परिवारों को गरीबी से बाहर ले आया जाएगा और 50 हज़ार पंचायतें गरीबी से मुक्त होंगीं। इसके पीछे माना जा रहा है कि अब नकद हस्तांतरण की नीति अपनाई जायेगी। गरीबों को नकद लाभ दिया जाएगा, ताकि आर्थिक आधारों पर उन्हें गरीबी की रेखा से बाहर मान लिया जाए। बहरहाल सरकार यह बताने की स्थिति में नहीं है कि यदि सेवा और लाभ के बदले नकद दिए जाने से, जो मंहगाई बढ़ेगी, तब क्या लोगों का जीवन आसान रह जाएगा!

यह वायदा उस स्थिति में किया गया है, जिसमें गरीबी की परिभाषा की तय नहीं है। वर्तमान में न्यूनतम व्यय को गरीबी का आधार माना जाता है, जिसमें गरीबी के सामाजिक और संस्थानिक कारकों को पूरी तरह से बाहर रखा गया है। गरीबी का सबसे गहरा जुड़ाव बेरोज़गारी और आजीविका के संकट से हैं। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के प्रतिवेदनों के मुताबिक भारत में वर्ष 2001 से 2015 के बीच 72333 लोगों ने गरीबी और बेरोज़गारी के कारण आत्महत्या की। जनगणना 2011 के मुताबिक भारत में काम खोज रहे लोगों (जिनके पास कोई काम नहीं था) की संख्या 6।07 करोड़ थी, जबकि 5।56 करोड़ लोगों के पास सुनिश्चित काम नहीं था। इस मान से 11।61 करोड़ लोग सुरक्षित और स्थायी रोज़गार की तलाश में थे। अनुमान बता रहे हैं कि यह संख्या वर्ष 2021 में बढ़कर 13।89 करोड़ हो जायेगी।

हर साल 60 लाख युवा स्नातक शिक्षा पूरी करते हैं, उन्हें भी रोज़गार चाहिए। उनके लिए कौशल विकास के लिए 3500 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। यह तय है कि भारत सरकार देश के युवाओं को कमज़ोर मानती है क्योंकि उनके पास बाज़ार के अनुरूप कौशल नहीं है, वह यह नहीं जानना चाहती है कि जो कौशल हमारे समाज और युवाओं में है, उसके मुताबिक भी अवसर खड़े किये जाएँ। मसलन प्राकृतिक संसाधनों का पूरा हक को समुदाय को देना, हस्त-कलाओं को प्रोत्साहन देना आदि। औद्योगीकरण के कारण स्थानीय संस्कृति, कलाएं और कौशल को आर्थिक नीतियों में “कमजोरी” ही माने जाते हैं। 

वर्ष 1991 में जब घोषित रूप से उदारीकरण और निजीकरण की नीतियां अपनाई गयी थीं, तब सबसे गहरा आघात गाँव और खेती पर ही हुआ था। तबसे हर सरकार ने खुल कर यह कहा है कि जब तक लोगों को गाँव और खेती से बाहर नहीं निकालेंगे, तब तक आर्थिक विकास के लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकता है। ऐसा किया भी गया। परिणाम हुआ किसानों ने खूब आत्महत्याएं की, बेरोज़गारी बढ़ी और भुखमरी बढ़ी।

सरकारें यह समझ ही नहीं पायीं कि सीमित संसाधनों के कारण केवल वृहद औद्योगिकीकरण से ऊँचे वित्तीय लक्ष्य हासिल भी नहीं किये जा सकते हैं और न ही सभी को रोज़गार दिया जा सकता है। माध्यम और लघु उद्योगों को संरक्षण देने की बात कही गयी है, पर यह तय करना होगा कि ये उद्योग लघु उद्योगों के पूरक बनें, बड़े उद्योगों के नहीं।

बहुत जरूरी है कि भारतीय व्यवस्था के अनुरूप औद्योगिकीकरण की नीति को प्रोत्साहित किया जाए। अब आप देखिये इन बिंदुओं को : वर्ष 2001 से वर्ष 2015 के बीच भारत में 234657 किसानों और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की क्योंकि न तो उन्हें उत्पाद का उचित मूल्य मिला, न बाज़ार में संरक्षण मिला और न ही आपदाओं की स्थिति में सम्मानजनक तरीके से राहत मिली। उत्पाद की लागत बढ़ती गयी और खुला बाज़ार किसानों को निचोड़ता गया। इस साल कृषि ऋण के रूप में 10 लाख करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। इस सवाल का जवाब कौन देगा कि सरकार किसान को कर्जा दी तो देगी, पर वह “ऋण” चुकायेगा कैसे? इसका तब भी कोई जवाब नहीं था और आज भी कोई जवाब नहीं है। वास्तविकता यह है कि “कर्जा” ही किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण बना है।

दूसरी बात यह है कि सरकार कृषि उत्पादन के बढ़ने की घोषणा उपलब्धि के रूप में कर रही है; किन्तु इस बात को छिपा रही है कि कृषि उत्पाद की उपभोक्ता के स्तर की कीमत और किसान के स्तर की लागू कीमत में 50 से 300 प्रतिशत तक का अंतर होता है। किसान को दाल के 55 रूपए मिलते हैं, पर दाल बेचने वाली कंपनी को 200 रूपए या इससे भी ज्यादा मिलते हैं। सरकार ने इस विसंगति को मिटाने और किसानों की आय सुनिश्चित करने की कोई प्रतिबद्धता जाहिर नहीं की है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसान हितैषी बनाने के सन्दर्भ में वह मौन ही है।  

मिट्टी के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी देने के लिए स्वाइल हेल्थ कार्ड पर बहुत जोर है; लेकिन क्या उन्हें यह जानकारी है कि मैदानी स्तर पर इस पहल के हश्र क्या हैं? जिन राज्यों में सूखा या बाढ़ की स्थिति से नुकसान होता है, उनके पास “अगले मौसम” में बुआई के लिए पूँजी नहीं होती है, क्योंकि पिछले 27 सालों में हमारी सरकारों ने बीजों, खाद, कीटनाशक और कृषि तकनीक में उसे बाहरी ताकतों-कंपनियों-एजेंटों पर निर्भर बना दिया है। अब भी वह प्रशिक्षण और उन्नत कृषि के नाम पर जी एम और अन्य बाहरी बीजों को ही प्रोत्साहित कर रही है। किसानों को सहायता तभी मिलती है, जब वे इन बाहरी बीजों या तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। जो किसान परंपरागत तरीके से खेती को विकसित करना चाहते हैं, उन्हें संरक्षण दिए जाने का कोई प्रावधान नहीं है।

बजट में कहा गया है कि अगले पांच सालों में किसानों की आय को दो गुना करवा दिया जाएगा। सवाल यह है कि आज बमुश्किल 3000 रूपए कमाने वाले परिवार की आय यदि वर्ष 2022 में 6000 रूपए हो भी गयी, तो इसके मायने क्या होंगे? बहुत दुखद है कि हमारी चुनी हुई सरकारें किसी गहरे वित्तीय मायाजाल में फँस चुकी हैं, जिसमें से निकलने की ताकत उनमें बची नहीं है।

फसल बीमा योजना के विज्ञापन और आयोजनों पर ही 1200 करोड़ रूपए खर्च हो चुके हैं, पर यहाँ भी सवाल किसान तक लाभ के पंहुचने का है। सरकार अपने राजनीतिक हित साधने वाले विज्ञापनों पर इतना व्यय करने के लिए क्यों मजबूर है?

यह अच्छा लगा कि भारत सरकार ने महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना में आवंटन को बढ़ाया है। वर्ष 2016-17 में 38500 करोड़ का आवंटन हुआ था। इस पर वास्तविक व्यय 47000 करोड़ रूपए हुआ। इस साल इस योजना में आवंटन 48000 करोड़ रूपए रखा गया है। कुछ महीनों पहले तक राजनीतिक अपरिपक्वता के चलते इस योजना को “पूर्ववर्ती सरकारों की नाकामी का स्मारक” कह कर पेश किया जा रहा था। इसकी महत्ता को अब स्वीकार कर लिया गया है। सरकार ने कहा है कि हम मनरेगा को एक उत्पादक योजना बना रहे हैं। पिछले साल इस योजना में 5 लाख तालाब बनाए गए। इससे सूखे और पानी का संकट कम होगा। इस साल हम नए 5 लाख तालाब बनाएंगे। आकाशीय तकनीक से मनरेगा की निगरानी भी करेंगे। क्या मनरेगा का दायरा बस इतने तक ही है? सरकार ने यह एक वाक्य नहीं जोड़ा कि हम मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों की काम की मांग को समय पर पूरा करेंगे! उन्हें कानूनी प्रावधान के मुताबिक साप्ताहिक आधार पर मजदूरी का भुगतान भी करेंगे? यदि काम नहीं मिला तो बेरोज़गारी भत्ता देंगे या मजदूरी भुगतान में देरी होने पर मुआवज़ देंगे। यह सब क़ानून के प्रावधान हैं। आज भी स्थिति यह है कि 6000 करोड़ रूपए की मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं हो रहा है और केंद्र-राज्य सरकारें जरूरत के मान से पैसा जारी नहीं करती हैं और मजदूरों के शोषण पर मौन रहती हैं।

नोट बंदी

500 और 1000 रूपए की मुद्रा के बंद होने से एक बड़ा संकट सामाजिक अर्थव्यवस्था पर छाया था। यह मान जा रहा है कि लगभग 45 लाख लोग पिछले दो सालों में वापस अपने घर-गाँव की तरफ गए हैं। इसके कारण से मनरेगा के तहत काम की मांग बढ़ी है। इस स्थिति में यह सुनिश्चित करना होगा कि वास्तव में इन लोगों को रोज़गार मिले और वे पुनः बदहाली के पलायन के लिए मजबूर न हों।

बड़े मूल्य की मुद्राबंदी का वास्तविक मकसद अब धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहा है। अब तक सरकारें यही कहती थीं कि आर्थिक सुधारों का लाभ तो बहुत हुआ है, पर यह कुछ परिवारों तक सीमित है। लोग टैक्स जमा नहीं करते हैं, इससे बाकी लोगों को इसका फायदा नहीं मिलता है। 8 नवंबर को नोट बंदी की घोषणा के कारण बताये गए थे – काला धन, आतंकी गतिविधियां, नकली मुद्रा आदि। अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री जी ने जानकारी दी है कि नोट बंदी के बाद 1।09 करोड़ खातों में 2 लाख से 80 लाख रूपए जमा हुए हैं। इस जमा का औसत 5।03 लाख रूपए था। जबकि 1।48 लाख ऐसे खाते हैं जिनमें 80 लाख रूपए से ज्यादा जमा हुए हैं। इसमें जमा हुई औसत राशि 3।31 करोड़ रूपए थी। इस मान से अगर यह मान भी लिया जाए कि ये सभी खाता धारक संपन्न लोग हैं, तो भी इनकी संख्या 1।24 करोड़ ही हुई। भारत में 3।7 करोड़ लोग ऐसे ही आयकर जमा करते हैं। इन 1।24 करोड़ में से कई लोग वैसे ही करदाता होंगे। समझाने के लिए यह भी बताया गया है कि भारत में 3।7 करोड़ लोग ही आयकर विवरणिका दाखिल करते हैं, जबकि पांच सालों में 1।25 करोड़ से अधिक कारें बेंची गयीं। 2 करोड़ लोगों ने विदेश यात्रा की; पर लोग आयकर जमा नहीं करते हैं। अतः यह साफ़ दिखाई देता है कि “सम्पन्नता या माध्यम सम्पन्नता” के पैमाने पर लगभग 5 करोड़ लोग ही खरे उतारते हैं। जबकि भारत में कार्यशील जनसँख्या 48।18 करोड़ है। बेहतर होता कि सरकार यह भी देखती कि देश का लगभग पूरा धन निकाल कर बैंकों में जमा कर लिए जाने से पता चल रहा है कि देश के 5 से 6 करोड़ लोगों तक ही सम्पन्नता सीमित रही है। हमारा पूरा विकास 80 फ़ीसदी लोगों तक नहीं पंहुचा है। अभी हम आयकर निरीक्षक की सत्ता के अधीन होने वाले हैं। सरकार बार-बार यह कह रही है कि ईमानदार और कर निर्धारण करवाने वालों को परेशान नहीं किया जाएगा; लेकिन इसके लिए कौन से नए कदम उठाये जायेंगे, इसका कोई उल्लेख बजट भाषण में नहीं था।

इस व्यापक परिदृश्य में हम दुनिया के स्तर पर हो रही उथल पुथल को भूल नहीं सकते हैं। हमें एक बार फिर अपनी बुनियादी अर्थव्यवस्था की तरफ लौटना होगा।