1950 के दशक के मध्य तक मुक्तेश्वर नामक कस्बानुमा गांव में मोटरगाड़ी नहीं पहुंची थी। सारी यात्राएं पैदल ही शुरू और खत्म होती थीं। बस पकड़ने के लिए भुवाली तक और रेल की सवारी के लिए काठगोदाम तक संकरे-पथरीले, चढाई-उतार वाले रास्ते पडाव तक पहुंचाते थे। देवदार, बांज, पांगर,अखरोट के पेडों से बिछुड़ना इस बात का अहसास बढ़ाता था कि ‘घर’ छूट रहा है, चाहे कुछ ही दिनों के लिए हालांकि जल्दी ही चीड के सुगंधित जंगल के बीच से उतरता पथ यह गम दूर करने लगता था। यह आशा जगाता कि रास्ते में जाने क्या क्या नई-नई चीजें देखने को मिलेंगी। ‘लंबपुछड चिडिया’, चालाक लोमड़ी, भूला भटका चुतरौल, लोहे की रस्सी पर झूलता पुल और घुटने तक पानी में डूब कर उन ‘गाडों’ (छोटी पहाड़ी नदियों) को पार करने का रोमांच जिन पर पुल नहीं बने थे।
हर दिशा रास्ते में सुस्ताने, थकान दूर करने के लिए हर तीन-चार मील की दूरी पर कुछ खाने पीने के लिए जाने पहचाने ठिकाने थे। अल्मोडा की तरफ सीतला, प्यूडा, घुराडी तो नैनीताल की ओर ओडाखान, नथुवाखान, तल्ला रामगाड, मल्ला रामगाड, गागर, श्यामखेत, भुवाली। काठगोदाम के लिए रास्ता कसियालेख से कटता था-धारी, पद्मपुरी, भीमताल होता।
कोई जगह मशहूर थी ठंडे मीठे पानी के धारे के लिए तो किसी खोमचेनुमा दुकान तक पहुंचते कदम अपने आप तेज होने लगते थे भुनी पत्तियों से बनी चाय और चटपटे आलू के गुटकों की उम्मीद में। सड़क किनारे जगह जगह जहां गोमुख या लोहे के नल वाले धारे नहीं थे, वहां भी चट्टान से बूंद बूंद रिसते पाने को ‘धार’ बनाने के लिए कौशल से बडा-सा हरा पत्ता इस्तेमाल किया जाता था। एकाध ज्यादा नमी वाली जगह ‘नौले’ मिलते-पहाड़ी बावली या मवेशियों के लिए कच्ची ‘हौद’। खेतों के बीच से गुजरती पतली कच्ची नालियां ‘गूल’ कहलाती थीं और जहां बारिश का पानी अपना रास्ता तलाश बह निकलता था, वहां बडे-छोटे ‘गधेरे’ जमीन को काटते खाई-सी बना देते थे। मां को मोटर रास नहीं आती थी, पेट्रौल की बदबू से जी घबराता था। वह शादी के पहले कई बार यह सफर काठगोदाम से अल्मोडा तक का पैदल तय कर चुकी थीं। हर बार उन्हें कोई परिचित धारा-नौला, पुलिया ग्राम देवता का मंदिर याद आने लगता। कहतीं, “बस आने ही वाला है वह ‘घट’ जो जहां से समतल शुरू होता है!” या “बड़ी ठंडी जगह है- यहां की गडेरी बड़ी मीठी होती है!”
पिता जब लखनऊ में डाक्टरी पढते थे तब 1920 के दशक के अंत में अल्मोडा से काठगोदाम का सफर लौरी में दो दिन में तय होता था बरास्ता कोसी-रानीखेत-गरमपानी। कोई पचास साल बाद भी इन जगहों से गुजरते उन्हें ठोस जमा मलाई दार दही याद आ जाता था या फिर गरमागरम पूड़ी-आलू के साथ मिर्ची से भी तेज राई का रायता। मौसमी फल काफल-हिसालू, आडू-सेब ,नाशपाती-पुलम खरीद कर कभी खाएं हों, याद नहीं पड़ता। रास्ते में जो बगीचे पड़ते उनके मालिकों की तरफ से यह दावत रहती।
अल्मोड़ा आधे दिन में पहुंचा जा सकता था, नैनीताल एक दिन का सफर तो काठगोदाम से रेल पकड़ने के लिए आम तौर पर रात कहीं बिताने का बंदोबस्त करने की दरकार होती थी। उस वक्त तक भी छोटी-छोटी बिना दरवाजे वाली ‘धर्मशालाएं’ खंडहरों में तब्दील हो चुकीं थीं और दूकानें या दूरदराज के रिश्तेदारों के घर ही ‘रैनबसेरे’ बन जाते थे। पिता बताते थे यह पुरानी धर्मशालाएं ‘लछुगौड’ नामके किसी रईस की परोपकारी विधवा ने उनकी याद में बनावाई थीं। ऐसी जाने कितनी धर्मशालाएं बद्रीनाथ-केदारनाथ वाले यात्रापथ पर बिखरी थीं। कभी कभार वह डाकबंगले नजर आते थे जिन्हें अंग्रेज हाकिमों ने-खास कर जंगलात और सार्वजनिक निर्माण विभाग के अफसरों ने- अपने दौरों को आरामदेह बनाने के लिए बनवाया था। इनकी छतें मुक्तेश्वर के बंगलों की तरह लाल टीन की होती थीं और उसी अंदाज में ‘किचन’ और चौकीदार-खानसामा के रहने के लिए बनाया कमरा जरा अलग दिखता था।
उल्लेखनीय बात यह है कि पहले विश्व युद्ध के अंत से करीब 1962 वाले भारत-चीन युद्ध के अंतराल में पहाड़ी यात्राएं बहुत कम बदली थीं- विकास के नाम पर सड़क, पुल भवन निर्माण ने पहाड़ को बुरी तरह घायल नहीं कर दिया था। यात्रियों का रिश्ता रास्ते के साथ अपनेपन वाला था-सहयात्री पथिकों के साथ सुख-दुख साथ भोगने के जज्बे वाला। 1965 तक पैदल रास्ते छूटने लगे थे। दस-बारह मील पैदल चलने की बजाय मुक्तेश्वर से अल्मोडा जाने के लिए पचास साठ मील की बस यात्रा को विकल्प खर्चीला होने के बावजूद ‘बेहतर’ समझाया जाने लगा था।
पलक झपकते पथिक और पथ का रिश्ता बदल गया। अब बस चंद मिनट ठहरती थी, वह भी सवारी उठाने को। फुर्सत से गरम चाय गटकने ताजा बना कुछ खाने की मोहलत नहीं थीं। इसी मोहलत का फायदा उठा कुछ शौकीन साहसी अखबार के दोने में गरम पकौडियों के ऊपर रायता डलवा अपना जौहर दिखलाते थे। फिर यह भी झंझट का काम लगने लगा। दो चार साल में ही देखते देखते गरमपानी और कोसी, रामगाड-भुवाली उजड़ गए। बोतलबंद पानी, पैकेट वाली नमकीन, चूरन की जगह खट्टी मीठी गोलियों ने ले ली। हार्न बजाती सरपट भागती बस से बाहर झांक कर न तो जाने पहचाने दरख्तों से दुआ सलाम संभव रही न ही खोमचे पर बैठे परिचित पुश्तैनी पारिवारिक मित्र दूकानदारों से। यह ना समझें कि हम वैज्ञानिक प्रगति के विरोधी, मोटर या रेल के सफर के जन्मजात दुश्मन हैं। हमारा दर्द यात्रा की रफ्तार तेज होने के साथ और उसके लगातार आसान और फिजूलखर्च होने को ले कर है। पर्यावरण के क्षय के साथ-साथ इस प्रवृत्ति ने हमारी संवेदनशीलता और मानवीय सहानुभूति को भी बेरहमी से नष्ट किया है।
अभी हाल में नैनीताल में ‘स्नो व्यू’ से रातीघाट-कैंची वाले पुराने पैदल रास्ते की छोटी सी इकदिनिया यात्रा ने घाव पर लगी पपड़ी खरोंच उसे हरा कर दिया। तीन चार मील के बाद ही चार फुट चौडा खच्चरों के लिए आरामदेह रास्ता पहले ऊबड़ खाबड़ पगडंडी में बदला फिर गायब हो गया। कहने को यह आरक्षित वन का हिस्सा है पर छंटनी के बहाने पेडों को इस तरह घायल किया जा चुका था कि वह हवा के हल्के झोंके से गिर जाएं। नए मोटर पथ के निर्माण के लिए चट्टाने तोड़ी और पेड़ काटे जा रहे थे। गला कई जगह सूखा पर कोई सोता, धारा, नजर नहीं आया। नौला या घट तो बहुत दूर की बात है। शुरू में मिश्रित वन था जो जल्दी चीड की रियासत में बदल गया। साथी अनूप साह और वन निगम के अवकाश प्राप्त अधिकारी पांडे बडे शौक से औषधीय वनस्पतियां दिखला रहे थे और सुंदर खलीज पक्षी भी। यह नुमाइशी नजारा भी जल्दी खत्म हो गया। जब भी किसी छोटे से गांव का रुख किया तो आलू के चिप्प्स, नमकीन , गुटके के पैकटों का कचरा ही रास्ता दिखाता था।
जिस सफर में कभी करीब दो दिन लगते थे वह आज तीन-चार घंटे में निबट जाता है। जल्दी में हों तो बिना रास्ते में कहीं रुके। जितनी बार यह ‘यात्रा’ होती है कुछ बदला लगता है। सड़क के किनारे भवन निर्माण वर्जित करने वाले कानून की धज्जियां उडाती दूकानें और बहुमंजिलें मकान पैदल यात्रा के एक पडाव से दूसरे पडाव की पहचान को धुंधला चुके हैं। घर से खाना ले कर चलने की जरूरत नहीं न ठंडे-मीठे पानी के सोतों- धारों की तलाश बाकी है। हर मोड पर बोतलबंद पानी और मशहूर कोल्डड्रिंक थोक के भाव ललचाते हैं। गरमपानी-छडा पर जो ढाबे पहले पूड़ी आलू फिर कढी राजमा चावल गर्व से खिलाते थे सुनसान हैं। ‘मैगी पौंइट’ भी सीजन में ही गुलजार होते हैं। भीड़-भडक्के तथा ट्रैफिक जैम से बचने के लिए जो ‘बाय पास’ बनाए गए हैं वह बस्ती से किनारा काट कर ही अपना नाम सार्थक कर सकते है अतः अल्मोडा हो या कोई और कस्बा दर्शनीय स्थल भी यात्री की नजर से ओझल होते जा रहे हैं। भूगोल बदलने के साथ स्थानीय इतिहास का ज्ञान लुप्त होता जा रहा है। साझे की विरासत का अवमूल्यन पर्यावरण को अनायास पर घातक रूप से संकट ग्रस्त बना चुका है।
कुछ वर्ष पहले जोरदार बारिश के बाद जो भूस्खलन हुए उन्होंने उत्तराखंड में प्रलय का दृश्य दिखला दिया।भुवाली से अल्मोडा तक का मोटर मार्ग कई महीने अवरुद्ध रहा। बद्री केदार यात्रा पथ की तबाही का मंजर तो और भी अधिक दिल दहलाने वाला था। इस बात को नकारना कठिन है कि यात्राओं को ‘सुखद’और ‘लाभप्रद’ बनाने के लालच में हमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी ही मारी है।
असली सवाल हम कब तक टालते रहेंगे कि हम कोई भी यात्रा क्यों करते हैं? क्या गैर जरूरी यात्राएं सीमित संसाधनों की फिजूल खर्ची को ही नहीं बढ़ातीं? जो यात्राएं शौक के लिए की जाती हैं क्या उन्हें तेज रफ्तार से मशीनीकरण के बिना नहीं तय किया जा सकता? एक अंग्रेज कवि की पंक्ति है- ‘मंजिल तक पहुंचने से कहीं सुखद अनुभव होता है रास्ते से गुजरना!’ जो यात्राएं लीक से हट कर अनजानी राहों पर संपन्न होती हैं उनका आनंद अतुलनीय, अनिर्वचनीय होता है। डेविड फ्रौस्ट की ‘दि रोड लैस ट्रैवेल्ड’ इसी की तरफ इशारा करती है। अज्ञेय की अनेक मार्मिक कविताएं भी यात्रा के सम्मोहक संसार का अविस्मरणीय सृजन करती हैं- ‘कितनी नावों में कितनी बार’ या ‘अरे! यायावर रहेगा याद!’।
वास्तव में हर यात्रा बाहरी दुनिया के साथ ही नहीं हमारे अंतर्तम से भी हमारा नाता जोड़ती है, मजबूत करती है ‘यादें’ बनाती हुई और ताजा कर। तीर्थ यात्राएं यही असली पुण्य अर्जित करती हैं। यात्रा के अनुभव का साझा ही असली प्रसाद वितरण है। अतः ‘चरैवेति!’ सैर करिए, सफर पर निकलिए पर जिम्मेदारी के साथ। हम सफर मनुष्यों के साथ बाकी पशु-पक्षियों वनस्पतियों के सहअस्तित्व को ध्यान में रखते हुए।