वर्ष 2018 एक महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस साल की हमारी आवरण कथाएं बताती हैं कि कैसे बड़े विकास व बदलाव का हमारे जीवन पर असर पड़ा है। चाहे नाइट्रोजन प्रदूषण हो या धर्म और पर्यावरणीय चिंताओं पर बहस हो। चाहे वह पथलगढ़ी आंदोलन की वैधता की बात हो या गंगा नदी की सफाई का मुद्दा हो, इनमें से प्रत्येक आवरण कथाएं भारत में चल रहे मंथन की कहानी कहती है।
चूंकि हम साल के अंत में सामान्य कामकाज और समाचार का पीछा करते रहने के काम से थोड़ा आराम लेना चाहते हैं, इसलिए यहां कुछ ऐसी किताबों का जिक्र कर रहे हैं, जिसे पढ़ने का सुझाव डाउन टू अर्थ के संपादक दे रहे हैं। ये किताबें आपको अवश्य ही पढ़नी चाहिए। ये किताबें महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये आपको ऐसी दुनिया में ले जाती हैं, जिसकी खोज अब तक बहुत ही कम हुई है।
चिकित्सा संस्मरण कैंसरलैंड में डेविड स्कैडेन कहते हैं, “कैंसर धीरे-धीरे ऐसी चीज बन रही है जो लोगों के जीवन को बदलती है। एक ऐसा बदलाव जिसकी बात लोग भूतकाल में कर सकते हैं।” हार्वर्ड ऑन्कोलॉजिस्ट स्कैडेन अपने कैंसर ज्ञान को एक बच्चे की तरह वर्णित करते हैं, “अपरिहार्य हानि, अस्पष्ट, अनुमान से बाहर और बहुत ही दुखद। ” तार्किक और आसान शैली में लिखी गई यह किताब कैंसर के क्षेत्र में चिकित्सा अनुसंधान का एक संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करती है और साथ ही साथ स्कैडेन के योगदान और उनकी यात्रा को भी बताती है, जिसकी वजह से वे हार्वर्ड स्टेम सेल संस्थान के सह-संस्थापक बने। वह इस बीमारी की उस जटिलता को बताते हैं, जो इसके सटीक कारणों, व्यवहार, विकास और इलाज का पता लगाना मुश्किल बना देता है। वह बताते हैं कि कैसे हर बार एक वैज्ञानिक ने सोचा कि उन्हें एक समाधान मिल गया और ठीक उसके बाद नए अपवाद और विसंगतियां सामने आती गईं। पर्यावरणीय गिरावट के परिप्रेक्ष्य में उनकी चिंता को पढ़ना और भी महत्वपूर्ण है, “यदि पुरानी चीजें युवाओं के लिए रास्ता बनाना बंद कर दे, तो क्या हम पृथ्वी की वाहक क्षमता को खत्म कर देंगे?”
19वीं शताब्दी में जब कार्ल मार्क्स श्रमिक संबंधों के आधार पर सामाजिक सिद्धांतों का प्रतिपादन कर रहे थे तब उनके दामाद पॉल लाफर्गू, जो एक राजनीतिक लेखक थे, ने 1883 में द राइट टू बी लेजी लिखा था। यह कार्ल मार्क्स द्वारा किए गए कार्य के महत्व की आलोचना थी। आलस्य के महत्व पर लिखी गई लाफर्गू की किताब को उस समय बेतुका बताया गया था। आज वह उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने और डी-ग्रोथ को प्रोत्साहित करने वाले पहले व्यक्ति के रूप में देखे जाते हैं। 1970 के दशक में विकसित देशों में वैकल्पिक सामाजिक आंदोलनों ने उनके इस विचार को अपनाया। इस आंदोलन ने खपत और लाभकारी रोजगार की आवश्यकता पर सवाल उठाए।
यह इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि जनवरी 1978 में ट्यूनिक्स कांग्रेस नाम का एक सम्मेलन (जर्मन शब्द, जिसका अर्थ है “कुछ नहीं करें”) टेक्निकल यूनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन में आयोजित किया गया था। अपनी किताब में एंड्रिया कॉमलोसी लाफर्गू के आलसी होने के अधिकार को विकसित करती हैं और उसे काम के विकास के लिए लंबी जगह देती हैं। किताब पाठकों को इतिहास की विभिन्न अवधि में एक “कामगार” होने का मतलब समझाती है, जो उस समय की सामाजिक स्थिति के आधार पर तय होती थी।
पुस्तक अच्छी तरह से परिभाषित विषयगत सेक्शन में लिखी गई है जो पाठक को बेहतर तरीके से समझाती है कि समय के दौरान श्रम और श्रम प्रोफाइल कैसे बदलते गए। उदाहरण के लिए, यदि कोई चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में ग्रीक के किसी शहर का संभ्रांत नागरिक था, तो उसका जीवन ज्ञान ग्रहण करने में बीतता था जबकि अगर कोई दास था, तो उसे नीच किस्म का और कठिन श्रम का काम करना होता था। कॉमलोसी का कहना है कि ग्रीक समाज में, व्यापार सहित शारीरिक या मजदूरी या श्रम के काम को नीच समझा जाता था। कॉमलोसी लिखती हैं, “ यूनानी समाज में मुक्त नागरिकों ने खुद को इस तथ्य से अलग किया कि उन्होंने न तो काम किया और न ही व्यापार में लगे, बल्कि खुद को शिक्षा के लिए समर्पित किया और राजनीतिक जीवन में हिस्सा लिया।” रोमन साम्राज्य में भी श्रम की यह उपेक्षा जारी रही। हालांकि रोमन ने अपने किसानों और शिल्पकारों को पसंद किया। हालांकि, इस तरह की खुशनुमा स्थिति ईसाई धर्म के आने के साथ ही अतीत की बात बन गई।
“स्वर्ग” केरल में मानव निर्मित त्रासदी का एक दस्तावेज है। अंबिकासूतन मांगड ने केरल के कासरगोड जिले में प्लांटेशन कारपोरेशन ऑफ केरल (पीसीके) के स्वामित्व वाले काजू बागानों में कीटनाशक, एंडोसल्फान के छिड़काव के कारण हुए विनाश का वर्णन किया है। इस कहानी को दो कल्पित पात्रों-नीलकंथन और देवयानी के माध्यम से बताया गया है। शहर के जीवन से थक गए, नीलकंथन और देवयानी जंगल में रहने का फैसला करते हैं। सब कुछ तीन साल तक अच्छा रहता है, जब तक देवयानी एक ऐसे बच्चे से नहीं मिलती है, जिसका शरीर अविकसित है। वह तीन साल का है, लेकिन तीन महीने के बच्चे की तरह दिखता है। नीलकंथन और देवयानी उसे घर लेकर आते हैं, लेकिन वह लंबे समय तक नहीं जीवित रह पाता। उसकी मौत के बाद वे अपने आसपास के क्षेत्र का मुआयना करते हैं। वे उस वक्त चौंक जाते हैं जब देखते हैं कि तकरीबन हर घर में एक अविकसित बच्चा है।
आगे की जांच से पता चलता है कि इसका कारण एंडोसल्फान है जिसका चाय बागान के कीट को मारने के लिए हवाई तरीके से छिड़काव किया जाता है। फिर कीटनाशक के संपर्क में आने वाले लोगों के आनुवंशिक परिवर्तन का कारण बनता है। इस रहस्योद्घाटन के बाद नीलकंथन और देवयानी अपने सुखद जीवन को छोड़कर कीटनाशक से जिले को छुटकारा दिलाने का फैसला करते हैं। उनका निर्णय उन्हें सरकार के साथ टकराव के रास्ते पर ला देता है और उन्हें अनगिनत खतरों और धमकियों का सामना करना पड़ता है। चूंकि लेखक स्वयं एंडोसल्फान के विरोध में शामिल थे, इसलिए वह वास्तविक आंदोलन की कहानी को सहजता से एकीकृत करने में सक्षम रहे हैं। उपन्यास केवल एंडोसल्फान विरोधी आंदोलन का वर्णन नहीं है, बल्कि यह देश में कृषि उत्पादन बढ़ाने के नाम पर कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग पर भी सवाल उठाता है।
इस पुस्तक में एनफील्ड हमारे वार्तालाप का मार्गदर्शन करने वाली बिहाइंड द सीन चीजों का विश्लेषण करते हैं और “एक-दूसरे के वाक्यों को खत्म करने” जैसे मुहावरों के लिए बिल्कुल एक नया अर्थ देते प्रतीत होते हैं। एक सवाल का जवाब देने के लिए एक व्यक्ति सिर्फ 200 मिलीसेकंड लेता है। यह हमारे मस्तिष्क द्वारा रंग पहचानने या अपनी स्मृति से एक शब्द निकालने और इसका उच्चारण करने में लगने वाले समय से भी कम है। विभिन्न विषयों के शोधकर्ताओं ने लंबे समय से भाषा के कामकाज और मानव मस्तिष्क के गुणों का अध्ययन किया है। हालांकि, मुख्य फोकस व्याकरण के नियमों, वाक्यों की औपचारिक संरचना और मस्तिष्क के तंत्रिका विज्ञान मैपिंग पर रहा है, क्योंकि यह भाषा को संसाधित करता है। एनफील्ड का काम इन चिंताओं को बदल देता है और उस भाषा को समझने की कोशिश करता है, जिसे हम लोगों के बीच बातचीत के माध्यम से अनुभव करते हैं। इस लेंस से, यह पुस्तक “यूनिवर्सल कोर ऑफ लैंग्वेज” (भाषा का सार्वभौमिक केन्द्र) की जांच करती है। यह बातचीत करते वक्त लिए जाने वाले घुमाव, समय बीतने के साथ बढ़ती संवेदनशीलता (यह सबसे अधिक ध्यान देने योग्य होता है, जब एक विराम सामान्य के मुकाबले सेकेंड के छोटे से हिस्से से भी बड़ा हो जाता है) और “हूह?” जैसे छोटे शब्दों पर पूर्ण निर्भरता जैसी प्रणाली से चित्रित होता है।
जैसे ही कोई “हू?” बोलता है, यह शब्द सार्वभौमिक शब्द होने के करीब आ जाता है। यह शब्द 16 अलग-अलग भाषा परिवारों की 31 भाषाओं में फैला हुआ दिखाई देता है। यह एक बातचीत में हर 84 सेकंड में एक बार जरूर इस्तेमाल होता है।
इसी तरह, हम प्रत्येक 60 शब्दों में से एक बार “उम” या “उह” बोलते हैं। बोलने में देरी के लिए जब हम “उम” बोलते हैं तब यह “उह” द्वारा चिन्हित देरी से कहीं अधिक देरी को चिन्हित करता है। “उम” में यह देरी 670 मिलीसेकेंड की होती है जबकि “उह’ में यह देरी 250 मिलीसेकंड की होती है। जो लोग भाषाविज्ञान से अनभिज्ञ हैं, उनके लिए बातचीत में 200 मिलीसेकंड लंबे विराम के महत्व को समझना मुश्किल हो सकता है।
मानवविज्ञानी रॉबर्ट बॉयड विकास और अनुकूलन के स्थापित सिद्धांतों को चुनौती देते हैं। उनका कहना है, “हम इतने समझदार नहीं हैं कि हमारी प्रजातियों के समक्ष दुनिया भर में फैली समस्याओं का हल निकाल सकें।” इसके बजाय, बॉयड का कहना है कि हमारी संस्कृति ने हमें सफलतापूर्वक अनुकूलित प्रजाति बनाया है। बदलते पर्यावरण को अनुकूलित करने की हमारी क्षमता का श्रेय वह हमारी बुद्धिमत्ता के बजाए हमारी “संचयी सांस्कृतिक अनुकूलन” को देते हैं। बॉयड कहते हैं कि संस्कृति हमें एक अलग तरह का जानवर बनाती है।
वह विभिन्न वातावरणों में मानव अनुकूलन के लिए जिम्मेदार प्राकृतिक चयन के खिलाफ तर्क देते हैं। “प्राकृतिक चयन अपेक्षाकृत धीमी प्रक्रिया है, इसलिए आनुवांशिक अंतर यह नहीं समझा सकते हैं कि सिबुडू गुफा के लोग क्यों एकासिया गम से बने चिपकने वाले पदार्थों का उपयोग करते हैं जबकि ऑस्ट्रेलियाई आदिवासी स्पिनिफेक्स रेजिन का इस्तेमाल करते थे।” उनका मानना है कि यह स्थानीय पर्यावरण के व्यवहार का लचीलापन है जो एक जानवर के जीवनकाल के दौरान हमें पर्यावरण के अनुकूल बनाता है।
बुद्धिमत्ता के ऊपर संस्कृति का अपना तर्क साबित करने के लिए, उन्होंने 1860-61 में ऑस्ट्रेलिया के कॉपर क्रीक में बर्क-विल्स के दुर्भाग्यपूर्ण अभियान का उदाहरण दिया है। इस अभियान के दौरान सिर्फ एक ही सदस्य बचा। यह, यहां तक कि आदिवासी यन्द्रुवन्धा समुदाय ऐसे माहौल में बढ़ने में सक्षम था, जिसने यूरोपीय खोजकर्ताओं को भूखा मार डाला। क्या इसका मतलब यह है कि बर्क-विल्स अभियान के सदस्य यन्द्रुवन्धा समुदाय की तुलना में कम बुद्धिमान थे? नहीं। यन्द्रुवन्धा के पास पर्यावरण के बारे में ज्ञान का एक खजाना था जो उनकी संस्कृति का एक हिस्सा बन गया था।
लोकप्रिय कल्पना में, औपनिवेशवाद आमतौर पर समुद्री तटों पर बसे पांच पश्चिमी यूरोपीय देशों, ब्रिटेन, नीदरलैंड, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल के साथ जुड़ा हुआ है। स्वीडन, नॉर्वे और डेनमार्क भी औपनिवेशिक इतिहास के फुटनोट में शामिल है। इटली, जर्मनी और अमेरिका भी उपनिवेशवादी थे, लेकिन वे बहुत देर से इस खेल में आए। एक देश जिसे अक्सर इस संबंध में अनदेखा किया जाता है, वह है रूस। यह जमीन के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देश है, जो बाल्टिक सागर से प्रशांत महासागर तक फैला हुआ है। एक बच्चे के रूप में रूसी बच्चों की किताबें पढ़ने के दौरान, मुझे अक्सर आश्चर्य होता था कि रूस इतना बड़ा क्यों है? यदि यह एक देश है, तो इतनी सारी जातियां क्यों हैं- फिनिश सीमा के पास केरलियन से ले कर अलास्का के पास शुक्चिस तक।
आईलैंड ऑफ द ब्लू फॉक्स इनमें से कुछेक सवालों का जवाब देता है। स्टीफन आर बॉउन द्वारा लिखित यह पुस्तक जार पीटर के शासनकाल में रूसी साम्राज्य द्वारा नियोजित एक डेन विटस जोनासेन बियरिंग के दो अभियानों का दस्तावेज है। पीटर का शासन क्रांतिकारी था क्योंकि उसने “बार्बरिक बैकवाटर” रूस को बदलकर अपने पश्चिमी पड़ोसियों के समान बना दिया था। अपने अंतिम दिनों में पीटर की एक और महत्वकांक्षा जगी। वह चाहता था कि रूस भी औपनिवेशिक शासन की तलाश करे। उसके मन में एक क्षेत्र भी था, जहां यह काम किया जा सकता था। वह क्षेत्र रूस के सुदूर पूर्व में था।
पीटर ने बाल्टिक पर सेंट पीटर्सबर्ग बसाया था। पीटर के समय में रूस सेंट पीटर्सबर्ग से विस्तारित होकर प्रशांत महासागर स्थित ओखोतस्क शहर तक पहुंचा। रूसी खोजकर्ताओं ने कैमचस्का प्रायद्वीप के पूर्व में भी भूमि खोज ली थी। लेकिन कोई नहीं जानता कि इसके आगे क्या है। क्या आगे एशिया था? क्या यह अमेरिका के साथ मिलता था? पीटर को यहां पश्चिमी पड़ोसियों को अपने देश की नई वैज्ञानिक शक्ति प्रदर्शित करने का अवसर दिखा। वह इस बात से सावधान था कि आज न कल डच, स्पेनिश या अंग्रेज उत्तरी प्रशांत की खोज करेंगे और उस पर मालिकाना हक का दावा करेंगे। कैमचस्का अभियान के लिए रोडमैप तैयार किया। पीटर ने इसके लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति-डेन बियरिंग का चयन किया। बियरिंग का इंपीरियल रूसी नौसेना सहित विभिन्न यूरोपीय नौसेनाओं में लंबा करियर था।