उत्तराखंड के हिमालय क्षे़त्र में आज भी कई पारंपरिक सिंचाई प्रणालियां जारी हैं और स्थानीय समुदायों द्वारा ही उनका सारा इंतजाम किया जा रहा है। अल्मोड़ा जिले में लड्यूरा और बयाला खालसा ग्रामसभाएं अपनी सिंचाई प्रणालियों का प्रबंधन खुद ही करती हैं। लड्यूरा, सलोंज और हिटोली-सिंचाई का पानी दो स्रोतों से लेते हैं, जो सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच 40 हेक्टेयर खेत सींच देते हैं। बयाला खालसा ग्रामसभा, जो धारा के निचले हिस्से में पड़ती है, उसमें भी तीन गांव हैं। इनका कुल सिंचित क्षेत्र 24 हेक्टेयर है और उन्हें सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच पानी मिलता है।
इन दोनों गांवों के बीच पानी के इस्तेमाल को लेकर होने वाले झगड़ों का एक लंबा इतिहास है। उनके बीच पहला कानूनी मामला वर्ष 1855 में बना था, जब एक योग्य न्यायिक प्राधिकरण ने उनके बीच पानी के उपयोग का सिंद्धात प्रतिपादित किया था। वर्ष 1944 में ये दोनों गांव एक बार फिर अपने मामले के निपटारे के लिए न्यायालय की शरण में गए। तब न्यायालय ने फैसला दिया, “यह सिद्ध करने के लिए कोई सबूत नहीं है कि समय के लिहाज से लड्यूरा गांव को बयाला गांव से पहले ही पानी मिलना जरूरी है” और कहा कि लड्यूरा गांव सूर्योदय से सूर्यास्त तक धारा के समूचे पानी का अधिकारी है, जबकि भारा के निचले हिस्से में पड़ने वाले गांवों को सूर्यास्त से सूर्योदय तक पानी मिलना चाहिए।
लड्यूरा गांव में एक औपचारिक रूप से स्थापित और प्रभावी सिंचाई संगठन वर्ष 1952 से ही चलता आ रहा है। इस क्षेत्र पर आई पिछली रिपोर्ट में इस क्षमता स्तर का एक भी संगठन नहीं है। हर छह महीने में होने वाली इसकी बैठकों का ब्यौरा बड़ी दक्षतापूर्वक सहेजकर रखा होता है। लेकिन नीचे के गांवों में इस तरह का कोई भी संगठन नहीं है।
लड्यूरा ग्रामसभा में तीन गांव हैं और इसमें कुल 163 परिवार रहते हैं। इन तीनों गांवों में लड्यूरा और हिटाली में राजपूत बहुसंख्यक हैं और सलांज में ब्राह्मण और हरिजन बहुसंख्यक हैं। सिंचाई व्यवस्था के सभापति लड्यूरा के, और आम तौर पर ठाकुर ही होते हैं। ज्यादातर खेतिहर जमीन की मिल्कियत ब्राह्मणों और राजपूतोें के पास है, लेकिन ब्राह्मणों ने अपनी जमीनें ठाकुरों और हरिजनों की पट्टे पर दे रखी हैं।
यहां की सामान्य सिंचित फसलें गेहूं, जौ, सरसों और आलू हैं। रबी के मौसम में अक्सर दालें और खरीफ के मौसम में तीन-चार सिंचाई के विपरीत रबी के मौसम में एक-दो सिंचाई ही उपलब्ध हो पाती है, जबकि खरीफ के लिहाज से जुलाई से सितंबर तक पर्याप्त बारिश भी होती रहती है। गेहूं या अन्य रबी फसलों के लिए पानी पहले अक्टूबर के दौरान रोपनी से पहले ही सिंचाई के लिए उपलब्ध रहता है और फिर दिसंबर से फरवरी के बीच। खरीफ के धान के लिए जुलाई और अगस्त में दो सिंचाइयां उपलब्ध कराई जाती हैं। उसके बाद सितंबर के अंत तक लगातार पानी चाहिए होता है।
किसी भी धारा के शीर्ष पर ही ज्यादा पानी लेकर नीचे के इलाकों को कहीं सूखा रहने को मजबूर न कर दिया जाए, इसके लिए एक आसान तरीका अपनाया गया है। पानी लेने की हर जगह एक छोटा पत्थर रख दिया जाता है। पानी लेने की जगहों पर लगने वाले ये पत्थर आकार में क्रमशः छोटे होते जाते हैं और इस तरह पानी के बंटवारे में एक न्यूनतम समता सुनिश्चित कर दी जाती है।
लड्यूरा गांव में पानी का बंटवारा एक सिंचाई समिति द्वारा किया जाता है जिसका पंजीकरण वर्ष 1956 में कराया गया था। इसके दस सदस्य हैं, जिनमें एक चौकीदार भी शामिल है। ग्रामसभा के सदस्य, जो जल वितरण व्यवस्था से परिचित हैं, इसकी बैठकों के दौरान सदस्यों के रूप में समाहित कर लिए जाते हैं। बड़े फैसले एक आम सभा में लिए जाते हैं जो गांव के हर निवासी के लिए खुली होती है।
लड्यूरा ग्रामसभा के तीनों गांव दिन में जलापूर्ति के लिए अधिकृत हैं—सूर्यास्त के बाद पानी का इस्तेमाल सिर्फ नीचे के गांव ही कर सकते हैं और दो गुहल उसे सींचते हैं। ऊपर की ग्रामसभा का सिंचित क्षेत्र 24 हेक्टेयर है और दो गुहल उसे सींचते हैं, जबकि नीचे की ग्रामसभा का सिंचित क्षेत्र सिर्फ 16 हेक्टेयर है। विवाद का विषय यह रहा है कि नीचे के गांव कम क्षेत्रफल के बावजूद उतने ही घंटे पानी पाता है और इस प्रकार ऊपर के गांवों से ज्यादा लाभ में रहता है।
चूंकि धारा ऊपर के गांवों से होती हुई ही नीचे आती है, लिहाजा रिसाव से होने वाला नुकसान और रात में पानी चुरा लेने की गुंजाइश ऊपर के गांव को लाभ की स्थिति में पहंुचा देते हैं। जाड़े में नीचे के गांवों को लंबी रातों का फायदा मिलता है। लेकिन यह कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि जाड़े में किसान खेतों को आमतौर पर सिर्फ एक बार ही सींचते हैं और वह भी थोड़े समय के लिए।
लड्यूरा ग्रामसभा की सिंचाई समिति अधिक सुव्यवस्थित है और उसके पास एक असरदार सिंचाई निकाय है। उपस्थिति का लेखा-जोखा और बैठकों का ब्यौरा विधिवत दर्ज किया जाता है। इस समिति को चलाने और सिंचाई प्रणाली जारी रखने में ग्रामीणों और समिति सदस्यों द्वारा काफी रुचि ली जाती है। समिति सिंचाई, धारा की सफाई और मरम्मत के काम की तारीख घोषित करती है। जिन बैठकों में ये फैसले लिए जाते हैं, वे फसली मौसम शुरू होने से कुछ पहले की जाती हैं।
साल में दो-चार, सामान्यतः इतवार के दिन ग्रामीण संयुक्त रूप से सिंचाई प्रणाली की सफाई और मरम्मत का काम करते हैं, जिसमें विविध गुहलों से गाद, झाड़-झंखाड़, काई आदि निकालना शामिल होता है। जो लोग इस काम में नहीं लग पाते, वे भाड़े के मजदूर भेजते हैं। विधवाएं और विकलांग या तो भागीदारी से मुक्त कर दिए जाते हैं या उन्हें भाड़े के मजदूर भेजना होता है।
चौकीदार की जिम्मेदारियों में हर व्यक्ति के खेत में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करना और फसलों को पशुओं से बचाना शामिल है। लड्यूरा ग्रामसभा में पानी का बंटवारा गुहल की ढलान पर एक साल ऊपर से नीचे की ओर और अगले साल नीचे से ऊपर की ओर होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ऊपर से नीचे की व्यवस्था लगातार दो साल चलती रहती है। लेकिन उसके बाद के दो वर्षों में वह बंटवारा नीचे से ऊपर की ओर होता है। ऐसे मामले सिंचाई समिति द्वारा निपटाए जाते हैं। जब भी क्रम में कोई बदलाव किया जाता है, पूरा ग्राम समुदाय समिति के साथ बैठता है। पानी बंटवारे के क्रम को लेकर अभी तक कोई बड़ा विवाद नहीं खड़ा हुआ है और एक बार जब कोई फैसला ले लिया जाता है तो हर किसी को उस पर अमल करना होता है।
चौकीदार यह सुनिश्चित करता है कि पानी खेत तक पहुंचे और कोई उसके बहाव को रोके नहीं। यदि कोई बहाव रोकता पाया गया या अपनी बारी के बगैर पानी लेता पाया गया तो चौकीदार उसे रोकता है। यदि गलती करने वाला अपना काम जारी रखता है तो यह उस व्यक्ति का नाम संबंधित ग्रामीण को बता देता है। यहां गलती करने वाले का नाम पूछना ही उसके विरुद्ध शिकायत दर्ज करना है। यदि कोई और व्यक्ति शिकायत सुनने की स्थिति में नहीं है तो चौकीदार और प्रभावित व्यक्ति की गवाही को ही शिकायत के लिए पर्याप्त समझा जाता है। फिर न्याय पंचायत उस व्यक्ति को सजा दिलाने की कार्यवाही शुरू करती है। जिस तारीख पर यह न्याय पंचायत बुलायी जाती है, वह तारीख पहले ही तय कर दी जाती है और उसकी सूचना भेज दी जाती है।
अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए चौकीदार को हर खेतिहर द्वारा एक नाली (1.5-2 किलो के लगभग) अनाज दिया जाता है। अच्छी फसल होने की स्थिति में चौकीदार को और भी अनाज दिया जा सकता है और यदि फसल खराब हो तो उसे कम भी दिया जा सकता है। इसके अलावा पानी बंटवारे को लेकर होने वाले झगड़ों में मिलने वाले जुर्माने की राशि का एक हिस्सा और पशुओं के खेतों में घुस जाने पर लगने वाले अर्थदंड का आधा भी चौकीदार को दिया जाता है, जिसके चलते वह इसे लेकर हमेशा सजग रहता है। जुर्मानों से मिलने वाली सालाना राशि का इस्तेमाल या तो मरम्मत के काम में या सिंचाई प्रणाली के सुधार में या फिर ऐसी चीजों को खरीदने में किया जाता है जो पूरे समुदाय के उपयोग में आती है।
हारा प्रणाली
उत्तराखंड की पहाड़ियों में अन्य किसान प्रबंधित सिंचाई प्रणालियां भी हैं। अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिलों की सीमा पर सेराघाट के पास सरयू घाटी में एक अनुबंध प्रणाली पाई जाती है। बताया जाता है कि ये प्रणालियां कुछ उद्यमियों द्वारा 1920 के दशक की शुरूआत में बनाई गई थीं, लेकिन उनमें से सबसे पुरानी प्रणालियों को वर्ष 1896 में शुरू किया गया था। पहाड़ के किनारे-किनारे से होकर जाने वाली नालियां बनाई गईं और उन अनुबंधकर्ताओं ने ही उनका संचालन और देखरेख की, जो किसानों के साथ सिंचाई के लिए पानी देने का तीस साल का दीर्घकालिक अनुबंध कर चुके थे। इसके बदले में उपज का एक हिस्सा ठेकेदार को देना पड़ता था, जो अुनबंध प्रणाली की शुरुआत में कुल उपज की एक-तिहाई जितनी राशि भी हुआ करती थी। नालियों की पुरानी प्रणालियों में, जो आज भी चल रही हैं, ठेकेदार की जिम्मेदारी उस प्रणाली को सुचारू रूप से चलाने तक ही सीमित है। मौजूदा दर उपज के दसवें से 18वें हिस्से तक हुआ करती है। इससे लाभान्वित यह अपेक्षा करते हैं कि ठेकेदार इस प्रणाली की अच्छी तरह मरम्मत करे, इसे संचालित करे, खेत के मुहाने इस प्रणाली तक पानी पहुंचा दे, और यहां तक कि कभी-कभार सिंचाई करने की जिम्मेदारी भी ले।
ठेकेदार और इससे लाभ लेने वाले लोगों के बीच सामान्यतः एक लिखित समझौता होता है, जिसे उचित मूल्य के एक रसीदी टिकट द्वारा पुख्ता किया जाता है। इस अनुबंध को आमतौर पर दो से चार वर्षों की प्रारंभिक आजमाइश की अवधि के बाद दर्ज कर लिया जाता है। ठेकेदार को अधिकार रहता है कि जो भी किसान अदायगी से मुकर जाए उसकी जलापूर्ति बंद कर दे। शुरू में ठेकेदारों ने नई सिंचाई प्रणालियों को बनाने में काफी धन लगाया था। ठेकेदार यदि पानी की पर्याप्त मा़त्रा मुहैया नहींे करा पाता तो समुदाय उसे हटा सकता था। खुद ठेकेदार भी एक निश्चित अर्थदंड देने के बाद, बशर्ते अनुबंध में इसकी व्यवस्था हो, इस अनुबंध से हट सकता है। इस प्रणाली के कई फायदे हैं। पानी के बंटवारे और प्रणाली की देखरेख दोनों ही लिहाज से किसानों के बीच होने वाले झगड़ों से छुटकारा मिल जाता है। लंबी नहरों में, जिनमें मोड़ बिंदु पर जल स्तर में उतार-चढ़ाव के साथ जल बहाव घटता-बढ़ता रहता है, नाली तोड़कर पानी ले लेने का खतरा काफी होता है। लिहाजा इनकी कड़ी देखरेख करनी होती है, जिसकी व्यवस्था ठेकेदार करता है। मजदूरों की भारी किल्लत की स्थिति में यह महत्वपूर्ण हो जाता है। हारा प्रणाली के तहत प्रणाली का आकार 15 से 50 हेक्टेयर के बीच होता है। ऐसी प्रणालियों के तहत आने वाले इलाकों में अच्छी फसलें देखी जा सकती हैं।
बहुमुखी प्रणालियां
अल्मोड़ा जिले की मनसारी घाटी में किसान प्रबंधित प्रणालियों का एक समूह एक ही जल स्रोत से काम करता देखा जा सकता है। ऐसे समूह उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों के सुदूर इलाकों में लगभग हर जगह देखे जा सकते हैं। मनसारी गधेरा एक सदानीरा धारा है, जो कोसी नदी के पूर्वी हिस्से से निकलकर 12 किमी चलती हुई पहाड़ियों से बाहर निकलती है। गधेरा 10-15 मीटर चौड़ा है और समूची लंबाई में 400-500 मीटर चौड़े खेतों की सिंचाई करती है। अपनी समूची लंबाई में यह धारा बहुत सारे गांवों को करीब 30 किसान प्रबंधित प्रणलियों द्वारा सींचती है। इन प्रणालियों की अपनी आदिम मोड़ और संचरण संरचनाएं हैं जो पानी का बंटवारा इस ढंग से करती हैं कि गांव की जरूरतें ठीक-ठीक पूरी हो जाती हैं। इस लंबी घाटी में ऊपर और नीचे के गांवों में कहीं भी जल बंटवारे को लेकर कोई बड़ा टकराव नहीं है। इन प्रणालियों के दायरे में 350 हेक्टेयर जमीन आती है।
हर प्रणाली की शुरुआत में पानी को एक अस्थायी बांध के जरिए मोड़ा जाता है। हर प्रणाली की सीमित नाली क्षमता यह सुनिश्चित करती है कि पानी की एक निश्चित मात्रा ही इसमें आए। मानसून के दिनों में अक्सर मोड़ संरचना बह जाया करती है, लेकिन जल्द ही इससे लाभ लेने वालों के द्वारा इसकी मरम्मत कर दी जाती है और वे इसके लिए सामूहिक प्रयास करते हैं। अपने खेत से होकर आने वाली नाली की सफाई का जिम्मा खेत के मालिक किसान का होता है। धान की सिंचाई क लिए पानी को ऊपरी खेतों से निचले खेत की ओर बहने की अनुमति दी जाती है। इस इलाके के किसान धान और गेहूं के अलावा लहसुन आलू, धनिया और बरसीम भी बोते हैं।
पवित्र तालाब
नौले पारम्परिक रूप से ग्रामीणों द्वारा काफी भक्तिभाव से बनाए जाते थे और नौला बनाते समय कई सारे कर्मकांड किए जाते थे। यह सब कोई मंदिर बनाने जैसा होता था। नौला के पानी की शुद्धि के लिए उसमें नियमित रूप से जड़ी-बूटियां और आंवले के फल डाले जाते थे। वाष्पन घटाने के लिए नौले के किनारे बड़े छायादार पेड़ लगाए जाते थे। स्थानीय लोगों में नौले और पेड़ों की पूजा का रिवाज था। इसका दोहरा प्रभाव पड़ता था—यह ग्रामीणों को नौला साफ रखना और जल संरक्षण, दोनों ही सिखाता था। नौला निर्माण की तकनीक बहुत पुरानी है। पत्थरों से पशुओं के लिए हौजी बनाई जाती थीं। ये नौले और हौजियां हमेशा पानी से भरे होते थे। लेकिन जंगलों की समाप्ति और सड़क निर्माण ने 95 प्रतिशत नौलों और सोतों को सुखा दिया है और ज्यादातर को विलुप्ति के कगार पर पहुंचा दिया है। हर तीसरा गांव आज पानी की किल्लत से जूझ रहा है। हालांकि नौलों को पुनर्जीवित करना असंभव नहीं है। अस्थायी पत्थर की बंधियां और सरंध्र व स्थायी ठोकर बांध भी बनाए जा सकते हैं। पानी का बहाव रोककर पांच से पंद्रह मीटर ऊंचे सीमेंट के बांध भी बनाए जा सकते हैं और उनसे छोटी धाराएं निकाली जा सकती हैं। इन धाराओं से नौले पुनर्जीवित किए जा सकते हैं। वनस्पतियों की छाया उन्हें सुरक्षा दे सकती है। दुर्भाग्यवश, नियंत्रित विकास के चलते बांज और बुरांस के पेड़ों की जगह चीड़ के पेड़ लेते जा रहे हैं, जो वर्षा जल को सोख लेते हैं और वनस्पतियों के फैलाव को प्रभावित करते हैं। हिमालय पर्यावरण एवं ग्राम विकास संगठन गढ़वाल जिले के खिरसू विकास खंड के 22 गांवों में जल संग्रह के उपाय विकसित कर रहा है। - जीपी काला और दिनेश जोशी |