पर्यावरण

दोस्त बने दुश्मन

पिछले कुछ सालों में कुत्तों के हमले की वजह से घरेलू मवेशियों की आबादी तेजी से घटी है, खासकर छोटे मवेशियों की आबादी।

अपर स्फीति (हिमाचल प्रदेश का लाहौल स्फीति जिला) क्षेत्र के सेवानिवृत शिक्षक ताशी फुंचोक नमकीन चाय (बटर टी) की चुश्कियों के बीच घाटी में कुत्तों की समस्या पर बात करने पर एक पुरानी कहानी सुनाते हैं। वह कहते हैं “एक दिन भेड़िया कुत्ते से मिला और वे दोस्त बन गए। कुत्ते ने भेड़िये से कहा कि तुम मुझे अपनी चाल ढाल सिखा दो, बदले में मैं तुम्हें सूंघने की कला सिखाऊंगा। भेड़िये ने कुत्ते की बात मानते हुए उसे अपनी चाल ढाल सिखा दी लेकिन कुत्ता सूंघने की कला सिखाने के अपने वादे से मुकर गया। इसके बाद से कुत्ते और भेड़िये कभी दोस्त नहीं रहे।”  

मनुष्य और घरेलू कुत्तों का संबंध सदियों पुराना है। कुत्ते हमेशा मनुष्य के साथी के रूप में जाने गए हैं। वे मनुष्यों को कई तरह की सेवाएं देते हैं लेकिन मनुष्य हमेशा यह भूल जाता है कि कुत्ता हिंसक और मांसाहारी जानवर है। दुनिया भर में कुत्तों की आबादी करीब एक अरब है। आमतौर सभी जगह कुत्ते मांसाहारी और हिंसक हैं। विकासशील देशों में कुत्ते प्राकृतिक वातावरण में खुलेआम घूमते रहते हैं। जंगली और घरेलू जानवरों से संपर्क में आने से वह वातावरण को कई तरह से प्रभावित करते हैं। इंसानी स्वास्थ्य के अलावा वे दूसरे जीवों के प्रतिद्वंद्वी बन जाते हैं।

साल 2014 में वे गर्मियों के दिन थे। यह ठंडा इलाका जीवन से भरा हुआ था। चामोलिंग का पठारी क्षेत्र किब्बर गांव पशुओं के चारागाह के रूप में जाना जाता है। यहां के नजारे शानदार हैं। मैं ऊपर की तरफ जा रहा था, तभी एक तेज आवाजाही ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा। मुझे लगा कि यहां भेड़ियों की मुठभेड़ होने वाली है जो दुर्लभ थी। दूरबीन से देखा तो पता चला कि छह कुत्तों का समूह तेजी से भाग रहा था। मेरे सहायक ने चिंतित होकर कहा “पता नहीं आज शाम तक कितनी बकरियां और भेड़ें जिंदा लौट पाएंगी।” अगले दिन मुझे पता चला कि कुत्तों ने तीन भेड़ों को मार दिया है। पांच दिन बाद एक गधा कुत्तों के समूह का शिकार बन गया। यह सिलसिला पूरे महीने चलता रहा। किब्बर गांव से हर सप्ताह कुत्तों के शिकार मवेशियों की खबरें आती रहीं। अक्टूबर में पास के गांव चीचम में मैंने खुद चार कुत्तों को एक लाल भेड़िये का पीछा और शिकार करते देखा। बार-बार यह कहानी दोहराई जाती रही।

इस क्षेत्र में यह समस्या आम थी। मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त अब दुश्मन बन गया था। पहाड़ी क्षेत्र में इस समस्या के निदान की सख्त जरूरत है ताकि क्षेत्र की जैव विविधता सलामत रहे।  

उत्तर हिमालयन क्षेत्र में कुत्तों की समस्या को समझने के लिए मैंने करीब ढाई साल यहां गुजारे। हाल के वर्षों में यह क्षेत्र बदलाव के दौर से गुजर रहा है। पर्यटन के कारण यहां सामाजिक आर्थिक बदलाव देखे जा रहे हैं। इससे स्थानीय निवासियों को अच्छा खासा राजस्व भी हासिल हो रहा है। पर्यटन यहां के लोगों के लिए भले ही फायदेमंद हो लेकिन इसने काजा और सबसे बड़े गांव रांगरीक में कूड़े और कुत्तों की समस्या में भी इजाफा किया है। समय के साथ तेजी से बढ़ी कुत्तों की आबादी ने वन्यजीव और स्थानीय लोगों के जीवनयापन के सामने संकट खड़ा कर दिया है।   

नेचर कंजरवेशन फाउंडेशन संस्था के साथ किए गए शोध में हमने कुत्तों से मवेशियों को खतरे का अध्ययन किया है। 2013 को हमने आधार वर्ष माना और कुत्तों की आबादी की गणना की। इस मुद्दे पर हमने स्थानीय लोगों से बात को तो पता चला कि कुत्तों ने किस कदर नुकसान पहुंचाया है। शुरुआती शोध में पता चला कि क्षेत्र में जंगली जानवरों से ज्यादा कुत्तों ने मवेशियों को शिकार बनाया है। फिर पता चला कि पिछले कुछ सालों में मवेशी कुत्तों के सबसे बड़े भक्षक बन गए हैं।

हाल के वर्षों में बकरियों और भेड़ों को कुत्तों ने सबसे ज्यादा शिकार बनाया। अप्रैल और दिसंबर के बीच ऐसी घटनाएं ज्यादा हुई हैं। इस दौरान बकरियां और भेड़ें झुंड में कम रहती हैं। साल 2013-14 में कुत्तों से हुआ आर्थिक नुकसान (17,522 अमेरिकी डॉलर) काफी अधिक था। यह बफार्नी तेंदुए से हुए नुकसान (15,029 अमेरिकी डॉलर) से अधिक था। बर्फानी तेंदुए महंगे जानवरों को शिकार बनाते हैं जबकि कुत्ते पालतू और काम आने वाले जानवरों को। कुत्तों से मवेशियों के रूप में हुए नुकसान के लिए मुआवजा भी नहीं मांगा जा सकता। जाहिर है इससे स्थानीय लोगों पर आर्थिक बोझ बढ़ रहा है।

स्थानीय समुदायों से गहराई से चर्चा और साक्षात्कार के बाद पता चला कि घरेलू कुत्तों ने किस तरह क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को बदल दिया है। छोटे मवेशियों के अलावा कुत्ते अब याक, घोड़े जैसे बड़े मवेशियों पर भी हमले करने लगे हैं। पिछले कुछ सालों में कुत्तों के हमले की वजह से घरेलू मवेशियों की आबादी तेजी से घटी है, खासकर छोटे मवेशियों की आबादी। इस सामाजिक-आर्थिक संक्रमण ने झुण्ड में चरने की परंपरागत व्यवस्था में भी परिवर्तन किया है जो मवेशियों की संख्या घटाने के लिए भी उत्तरदायी है।

कुत्तों की वजह से पर्यावरण में बदलाव कुछ गांवों के लिए नया है। ऊंचे इलाकों में रहने वाले लोग सात से आठ साल तक लगातार नुकसान झेलने के बाद भी छोटे मवेशी रखते हैं लेकिन कुछ गांव ऐसे भी हैं जहां कुत्तों के डर से मवेशियों को रखना बंद कर दिया गया है। मवेशियों की घटती आबादी के बीच ग्रामीण जंगली जानवरों पर हमले और उनकी मौत के भी गवाह बने हैं।

अपर स्फीति और उत्तर हिमालय क्षेत्र में कुत्तों की समस्या इस बात का जीता जागता सबूत है कि कैसे मानव विज्ञान ने खाद्य श्रृंखला को प्रभावित किया है। इसका पर्यावरण पर नकारात्मक असर दिखाई दे रहा है। इस मुद्दे के मनोवैज्ञानिक और पर्यावरणीय पहलू हैं। पशु अधिकारों का दृष्टकोण भी इस मुद्दे को जटिल बना रहा है। जरूरी है कि घरेलू पशुओं के नकारात्मक प्रभाव की समीक्षा की जाए। यह भी जरूरी है कि कुत्तों की जनसंख्या की समस्या को व्यवस्थित तरीके से हल किया जाए। अभी कुत्तों को पकड़कर और उनकी नसबंदी करके छोड़ दिया जाता है। यह समस्या का निदान नहीं है। इस समस्या से निपटने के लिए जरूरी है कि कूड़ा प्रबंधन के साथ कुत्तों को पालने के नियम कड़े किए जाएं। भारत में कुत्तों के पालने के नियम हमेशा चिंता के विषय रहे हैं। अब सख्ती दिखाने का वक्त आ गया है।

(लेखक अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकॉलोजी एंड द एनवायरमेंट में डॉक्टरल कैंडिडेट हैं।)