पर्यावरण

चिपको की छांव में

उत्तराखंड में बहुत कुछ बदल चुका है, लेकिन चार दशक बाद भी कई इलाकों में चिपको आंदोलन का असर साफ नजर आता है।

हिमालय के गांवों में महिलाएं सरकारी परमिट लेकर पेड़ काटने आए ठेकेदारों की कुल्हाड़ियों को चुनौती देती हुई पेड़ों से चिपक गई थीं। इस तरह महिलाओं ने पहाड़ों से जंगलों का सफाया होने से बचाया। चिपको आंदोलन और इसकी अगुवाई करने वाली इन साहसी महिलाओं की पहचान बन चुके प्रतिरोध के इस सरल लेकिन प्रभावी तरीके ने मुझमें हमेशा कौतूहल जगाया है। आज जब मैं इस आंदोलन की जन्मभूमि गोपेश्वर की ओर बढ़ रही हूं तो उत्सुकता और उत्साह से भर चुकी हूं।

ऋषिकेश से ली गई टैक्सी जल्द ही भीड़-भाड़ वाले मैदानी इलाकों को पीछे छोड़ ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ने लगी। सर्पीली घुमावदार सड़क हर तरफ से पहाड़ों के नजारें दिखाते हुए हमें विशाल हिमालय की ओर ले जा रही है। एक साइनबोर्ड पर लिखा है, “आप पर्वत की गोद में हैं।” लेकिन एक खड़ी पहाड़ी से चिपकी सड़क के किनारे से रेलिंग नदारद देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। करीब 15-20 मीटर गहराई पर गंगा अपने पूरे आवेग से बह रही है। कोशिश करती हूं कि मन में कोई बुरा ख्याल न आए और यात्रा के मकसद पर ध्यान लगा देती हूं।

मार्च 1973 में शुरू हुए चिपको आंदोलन के बाद चार दशक गुजर चुके हैं। शुरुआत में यह किसानों का आंदोलन था, जिसके मूल में ग्राम स्वराज का गांधीवादी दर्शन था। चिपको आंदोलन का दूसरा पहलू, जिसकी वजह से यह चर्चित हुआ, साधारण और अशिक्षित महिलाओं का नेतृत्व था, जो वनों के साथ इंसान के रिश्तों को भली-भांति समझती थीं। जोशीमठ के पास रेनी गांव में 50 वर्षीय गौरा देवी की अगुवाई में महिलाओं ने पेड़ काटने आए लकड़हारों को खदेड़ दिया था। यह किसी करिश्मे से कम नहीं था। इस आंदोलन ने भारत और दुनिया भर में पर्यावरण-नारीवाद (इको-फेमिनिज्म) को प्रेरणा दी। लेकिन क्या इससे उत्तराखंड की महिलाओं को भी मुक्ति मिल पाई? सवाल है आज की पीढ़ी जंगलों के साथ कैसा जुड़ाव महसूस करती है? क्या जंगलों के प्रति सरकार का नजरिया बदला? जब टैक्सी ने देवप्रयाग में गंगा को पार किया और इसमें मिलने वाली अलकनंदा के घुमावों के साथ-साथ आगे बढ़ी तो मेरे मन में यही सवाल उठ रहे थे।

तिब्बत सीमा से लगे चमोली जिले में प्रवेश करते ही नजारा बदलने लगा। पहाड़ ऊंचे हैं, जंगल ज्यादा घने और सड़कें तीव्र चढ़ाई वाली। जब मुझे गोपेश्वर नजर आया तो सूरज ढलने वाला था। वहां मैं चंडी प्रसाद भट्ट से मिली, जो उस आंदोलन के संस्थापक थे जिसने सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहे उत्तराखंड में एक लहर पैदा की। पहली बार यही आंदोलन पर्यावरण को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लाया और देश में पर्यावरणवाद की समझ को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई। हालांकि, भट्ट अपना परिचय सर्वोदय आंदोलन के कार्यकर्ता के रूप में देना पसंद करते हैं, जो सबके उदय, सबके विकास के लिए काम करता है। चिपको आंदोलन के प्रभाव के बारे में बताने से पहले वे हमें गोपेश्वर और मंडाल घाटी-जो अलकनंदा घाटी का ही एक हिस्सा है- घूम आने की सलाह देते हैं।

बांज की पौध के संग नया अध्याय

समुद्र तल से 1,550 मीटर की ऊंचाई पर स्थित करीब एक लाख की आबादी वाला गोपेश्वर शहर पहाड़ों में दूर तक फैला है। मकानों और पेड़ों की कतारें तेज ढलान वाली, घुमावदार डामर की साफ-सुथरी सड़क के साथ-साथ चलती हैं। इस घाटी की अधिकांश बस्तियां काफी स्वच्छ नजर आती हैं। चिपको आंदोलन में बतौर छात्र शामिल रहे गोपेश्वर के भूपाल सिंह नेगी तब से आज तक चंडी प्रसाद भट्ट के साथ हैं। वह कहते हैं, “यहां के लोग गंदगी नहीं फैलाते, क्योंकि वे प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हैं।”
 
शहर के एकदम नीचे 300 घरों वाला एक गांव है। इसका नाम भी गोपेश्वर है। यह गांव मध्य हिमालय में पाए जाने वाले सदाबहार बांज के घने जंगल से घिरा है। नेगी बताते हैं, “इस जंगल को गांव की महिलाओं ने उगाया है।” चिपको आंदोलन से प्रेरणा लेकर अस्सी के दशक की शुरुआत में इन महिलाओं ने गांव की बंजर भूमि पर पौध लगाईं और देखभाल के लिए एक समिति बना दी। आज उनमें से कोई भी महिला जीवित नहीं है। लेकिन जो पौध उन्होंने लगाई थी, वह 12-18 मीटर ऊंचे पेड़ों में बदल चुकी है। अब गांव की युवतियां इस जंगल की देखरेख करती हैं। वे आपस में पैसा इकट्ठा कर इसके चारों ओर बनी दीवार की मरम्मत करवाती हैं ताकि जंगली जानवरों से नुकसान न पहुंचे। बारी-बारी से रोजाना दो लड़कियां जंगल की चौकीदारी का जिम्मा संभालती हैं। समिति की सदस्य चंद्रकला बिष्ट कहती हैं, “अब यह जंगल हमारी सभी जरूरतों की पूर्ति करता है। पिछले 25 साल में गांव की किसी महिला को दूसरे जंगलों में जाने की जरूरत नहीं पड़ी।”

पपड़ियाना गांव के लोगों के पास भी दिखाने के लिए बांज का ऐसा ही जंगल है, जो उन्होंने चिपको आंदोलन के एक अन्य सेनानी मुरारी लाल के मार्गदर्शन में लगाया है। 83 वर्षीय मुरारी लाल छड़ी लेकर चलते हैं, लेकिन 1973 में लगाए अपने बांज के पेड़ों को दिखाने के लिए फुर्ती से पहाड़ियों पर चढ़ जाते हैं। “यह जंगल वन विभाग के उस दावे को झुठलाता है कि बांज के पेड़ सिर्फ मध्य हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में ही उगाए जा सकते हैं।”

पर्वत जन में बांज के जंगल उगाने की ललक को देखकर मुझे ‘डाउन टू अर्थ’ के संस्थापक संपादक अनिल अग्रवाल का एक लेख याद आता है, जिसमें वह कहते हैं: बांज के पत्ते पोषण से भरपूर और पानी सोखने वाले धरण को बढ़ाते हैं। इसलिए बांज का जंगल लंबे समय तक पानी को रोककर रखता है और धीरे-धीरे छोड़ता है, जिससे पानी की सदाहबार धाराएं और स्रोत बढ़ते हैं। यही वजह है कि सदियों से बांज के जंगलों के आसपास गांव आबाद रहे हैं।



रास्ते में हम कुंकुली गांव में रुकते हैं। यह अलकनंदा की सहायक बाल्खिला नदी के किनारे बसा हुआ है और ऐसा लगता है मानो किसी कहानी की किताब से प्रकट हुआ है। इसके आगे बांज का जंगल है और नदी के किनारे-किनारे खेत हैं। एक चाय की दुकान पर मेरी मुलाकात एक किसान से हुई। मैंने उनसे उनके जंगलों के बारे में पूछा। तीन साल पहले पोस्टमास्टर की नौकरी से रिटायर होने के बाद खेतीबाड़ी में लगे सर्वेंद्र सिंह बर्तवाल बताते हैं, “हमने 1983 से जंगल को छुआ भी नहीं। हमारी रोजमर्रा की जरूरतें उस जंगल से पूरी हो जाती हैं, जो हमने गांव की सार्वजनिक भूमि पर उगाया था। फिलहाल इस दो हेक्टेअर हिस्से में बड़ी इलायची, रीठा, मेंथा जैसे औषधीय व सुगंधित पौधे और बढ़िया भूसा देने वाले भीमल और कचनार हैं।”

बर्तवाल मुझे महिलाओं के एक समूह के पास ले जाते हैं, जो खेतों में खाद डालकर घर लौट रही हैं। इनमें दो बार वन पंचायत की प्रमुख रह चुकी कांता देवी भी शामिल हैं। वह बताती हैं कि जबसे गांव ने अपना जंगल उगाया है, तब से महिलाओं की जिंदगी कितनी बदल गई है। शराब-विरोधी अभियानों में सक्रिय भूमिका निभाने वाली कांता कहती हैं, “पहले गांव की महिलाओं को सुबह चार बजे घर से निकलना पड़ता था और दिन में 11 बजे तक लौटती थीं। लेकिन आजकल वे नए जंगल से सूखी पत्तियां, टहनियां व घास इकट्ठा करती हैं और अपने बच्चों को ज्यादा समय दे पाती हैं।”

हम मंडाल गांव के जंगल की ओर जाने वाली सड़क पर आगे बढ़ते हैं। यहां चंडीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में पहली बार चिपको आंदोलन हुआ था। करीब 2,280 मीटर की ऊंचाई पर सून के पेड़ आसमान छूते लगते हैं। ये वही पेड़ हैं जिन्हें इलाहाबाद की साइमंड्स कंपनी खेल का सामान बनाने के लिए गिराना चाहती थी। लेकिन रोजगार सृजन के उद्देश्य से शुरू किये गए भट्ट के सहकारी संगठन दशोली ग्राम स्वराज संघ (जिसका नाम बाद में दशोली ग्राम स्वराज मंडल यानी डीजीएसएम हो गया) को साइमंड्स के इरादों की भनक लग गई। उन्होंने संगठन के मुखिया आलम सिंह बिष्ट के नेतृत्व में गांववालों को संगठित किया। पेड़ों को बचाने के लिए उन्होंने इन्हें गले लगाने का निश्चय कर लिया।

 भट्ट ने मुझे बताया कि उन्होंने इसके लिए मूलतः गढ़वाली शब्द ‘अंग्वाल’ का इस्तेमाल किया था, जिसका अर्थ होता है - गले मिलना, बाद में यही आंदोलन ‘चिपको’ के नाम से मशहूर हुआ। वैसे किसी को पेड़ से लिपटने की जरूरत नहीं पड़ी। धमकी ही काफी थी और साइमंड्स को खाली-हाथ लौटना पड़ा।”

लौटते हुए हमारी मुलाकात बचेर गांव की कलावती देवी से हुई, जिन्होंने 1980 के दशक में सरकार को अपने दूरस्थ गांव में बिजली पहुंचाने पर बाध्य कर दिया था। उन्होंने शराबखोरी के खिलाफ भी अभियान चलाया और वन माफिया से लड़ीं। 63 साल की कलावती देवी कहती हैं, “जंगल हमारे बच्चे की तरह है। इसे बचाने के लिए हम जी-जान लगा देती हैं। जंगल के मामले में हम आदमियों पर भरोसा नहीं करतीं।” गौरतलब है कि पिछले चार दशक से महिलाएं ही इस वन पंचायत की मुखिया रही हैं। इस साल पहली बार एक पुरुष को वन पंचायत का मुखिया चुना गया है।

अगले दिन चंडीप्रसाद भट्ट से मेरी मुलाकात हुई। वह कहते हैं, “हमने इसी बदलाव के लिए संघर्ष किया था। हम चाहते थे कि लोग अपने जीवन में पेड़ों और पर्यावरण के महत्व को समझें ताकि हमारे जाने के बाद भी ये बचे रहें। चार दशक पहले, जब मैं जवान था और गोपेश्वर एक छोटा-सा गांव था, महिलाएं खुलकर नहीं बोलती थीं। आज वे जंगल और गांव से जुड़े सभी फैसले लेती हैं।” यह बताते हुए 83 वर्षीय गांधीवादी की आंखों में चमक साफ नजर आती है। “और तो और वन विभाग को भी अपना नजरिया बदलना पड़ा। पहले विभाग की नर्सरी में 90-95 फीसदी चीड़ की पौध होती थीं। चीड़ का पेड़ व्यावसायिक रूप से तो महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे जमीन को कोई फायदा नहीं होता। पिछले 10-15 सालों में उनकी नर्सरी में चीड़ का कोई पौधा नहीं है।”
 
चिपको का असर पूरी घाटी में साफ नजर आता है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशन सेंटर द्वारा 1994 में किया गया एक अध्ययन बताता है कि सन 1972 से 1991 के बीच सरंक्षित वनों से बाहर गांवों के आसपास कम से कम 5,113 हेक्टेयर जंगल तैयार हुआ है। इसमें से 1,854 हेक्टेयर जंगल तो गांवों की बंजर भूमि पर उगाया गया है।

जंगल नही तो कुछ नहीं

चमोली जिले से निकलते ही चिपको का असर कम होता दिखता है। जब हम टिहरी गढ़वाल जिले की ओर बढ़ते हुए पौड़ी गढ़वाल से गुजरते हैं तो पहाड़ ज्यादा नंगे नजर आते हैं। दूर तक चीड़ के पेड़ों का ही प्रभुत्व दिखता है। कई जगह पहाड़ों के किनारों पर गहरे कटाव से दिखते हैं। भट्ट के शब्द मेरे दिमाग में गूंजते हैं: “सिर्फ जंगल का विस्तार ही भूस्खलन को रोक सकता है।” कई जगह खेत बंजर पड़े हैं।

टिहरी गढ़वाल के जजल से उत्तराखंड जन जागृति संस्थान (यूजेजेएस) के आरण्य रंजन ने मुझे फोन पर बताया, “लोगों की खेती और जंगलों में रुचि खत्म हो रही है”। जेजेएस की स्थापना 1983 में चिपको आंदोलन के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने की थी, जो खेती को फायदे का सौदा बनाना चाहते थे। वह कहते हैं, “जंगली जानवरों के हमलों और बदलती जलवायु की वजह से कृषि अब फायदेमंद नहीं रह गई है और जंगल लोगों के हाथ से बाहर हो गए हैं। इससे बड़े पैमाने पर पलायन को ही बढ़ावा मिलता है लेकिन इससे जंगलों में आग लगने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। पहले लोग नियमित रूप से अपने जानवरों को जंगलों में चराने के लिए ले जाते थे और हरी खाद व मवेशियों के नीचे डालने के लिए जंगल से घास-फूस इकट्ठा कर लेते थे। लेकिन अब यह सब जंगल में जमा होता रहता है और आग पकड़ लेता है।”

इस मामले को बेहतर ढंग से समझने के लिए हम जरधार गांव में विजय जरधारी के पास गए। वह 1970 के दशक के अंत में सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में चिपको आंदोलन में शामिल हुए थे। आज वह बीज बचाओ आंदोलन (बीबीए) अभियान के तहत पारंपरिक फसलों को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं, जिन पर जलवायु परिवर्तन का असर नहीं होता। उनका आंगन एक आकर्षक नर्सरी जैसा लगता है, जहां उत्तर पूर्व का एक टमाटर का पेड़ और कई तरह की तुलसी हमें मिलती है। अपने गांव के बाद एक जंगल का उदाहरण देते हुए जरधारी कहते हैं, “लोग जंगल को तभी बचाते हैं, जब उस पर उनका मालिकाना हक हो। 1980 से पहले ये बुरी तरह बर्बाद हो रहा था। चिपको आंदोलन से प्रेरणा लेकर हमने एक वन सुरक्षा समिति बनाई जिसने पेड़ लगाए और जंगल की देखभाल की। समिति ने 300 रुपये में दो चौकीदारों को नौकरी पर रखा। आखिरकार हर तरह के पेड़ उग आए। अब जंगल से कुछ जलधाराएं भी बहती हैं। आज लोग जड़ी बूटियों, चारे, कंदमूल के लिए जंगल पर निर्भर हैं। इसलिए जब 2013 में जंगल की आग लगी, तब गांव के लोग दौड़े और बढ़ती आग को रोक दिया। पाटुली, लशियाल और कोट जैसे कई गांवों में लोगों ने अपने जंगल उगाए हैं।”

चिपको आंदोलन में शामिल होने के लिए अपनी नौकरी छोड़कर हेमल नदी के पास अडवानी जंगल को बचाने के लिए उपवास करने वाले सर्वोदय कार्यकर्ता धूम सिंह नेगी को इस बात का दुख है कि क्षेत्र के लोग कृषि छोड़कर कस्बों में पलायन कर रहे हैं। वह कहते हैं, “हम लोग बीबीए का संदेश फैलाकर खेती को किसान के लिए लाभदायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन लोग शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी की वजह से गांव छोड़ रहे हैं।” उल्लेखनीय है कि आज भी उत्तराखंड में ज्यादातर गांव मनी-ऑर्डर व्यवस्था पर निर्भर हैं। खेतीबाड़ी छोड़कर लोगों के शहरों की ओर पलायन ने राज्य के 16,973 में से 3,600 गांवों को भुतहा यानी निर्जन बना दिया है।

चिपको आंदोलन का एक महत्वपूर्ण प्रभाव यह था कि इसने केंद्र सरकार को भारतीय वन अधिनियम, 1927 को बदलने की प्रेरणा दी और फिर वन सरंक्षण कानून, 1980 लाया गया, जिसमें कहा गया है कि वन भूमि का प्रयोग गैर-वन उद्देश्यों के लिए नहीं किया जा सकता। उसी साल आए एक ऐतिहासिक आदेश में 1,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में व्यावसायिक उद्देश्यों से हरे पेड़ों का कटान प्रतिबंधित कर दिया गया। उत्तराखंड में गांव बचाओ आंदोलन के अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं, “इन सभी कानूनों ने वनों का सरंक्षण तो सुनिश्चित किया लेकिन लोगों का जंगल से संबंध भी खत्म कर दिया।”

पीपल्स एसोसिएशन फॉर हिमालय एरिया रिसर्च के संस्थापक और उत्तराखंड की गहरी जानकारी रखने वाले इतिहासकार शेखर पाठक मानते हैं कि गांवों की आत्म-निर्भरता के मामले में आंदोलन नाकाम रहा। पहाड़ों में लोग वानिकी, पशुपालन और खेती पर निर्भर करते हैं। पाठक कहते हैं, “हम चाहते थे कि खिलौने बनाने और मंदिर शिल्प जैसी चीजों का प्रशिक्षण देकर हम लोगों को आजीविका के नए अवसर मुहैया कराएं। इसी उद्देश्य से 1975 में वन निगम की स्थापना की गई थी। लेकिन इसकी गतिविधियां अब सिर्फ पेड़ों की कटाई और लकड़ी की बिक्री तक सीमित रह गई हैं।  

हालांकि उन्हें लगता है कि ये आंदोलन अभी समाप्त नहीं हुआ है। चमोली में डीजीएसेम अब भी इको-डेवलपमेंट कैंप्स के जरिए बंजर भूमि पर पौधरोपण के कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। जंगलों पर बोझ कम करने के लिए ये व्यवसायिक रूप से महत्वपूर्ण पौधों को एक नर्सरी में उगाता है और उनकी पौध गांववालों को देता है। पाठक कहते हैं, “डीजीएसएम की पौध के बचे रहने की दर करीब 90 फीसदी है, जबकि सरकारी पौधरोपण के बचने रहने की दर 10-15 फीसदी है।” पिछले पांच-सात साल में डीजीएसएम मंडाल घाटी के 23 गांवों में ज्यादा पोषक नेपियर घास की शुरुआत की है, जिसे लोग अपने खेतों के आसपास उगा सकते हैं। संस्था लोहे के हल से जुताई को भी बढ़ावा दे रही है।

टिहरी में अब बीबीए और यूजेजेएस के जरिए आंदोलन की नई लहर आ रही है। देहरादून में चिपको कार्यकर्ताओं ने एक हिमालयन एक्शन रिसर्च सेंटर खोला है जो किसानों को ऑर्गेनिक फॉर्मिंग और छोटे कामधंधों का प्रशिक्षण देता है। दिल्ली के लिए निकलते वक्त मुझे चंडी प्रसाद भट्ट के शब्द याद आ रहे थे। हर गांव, चाहे वह पर्वतीय हो या जनजातीय, उसके पास एक ग्राम वन होना ही चाहिए। अगर गांव के नजदीक कोई  सरंक्षित वन है तो उसे भी ग्राम वन के लिए दे दिया जाना चाहिए। शोध बताते हैं कि 50 हेक्टेयर का जंगल छह महीने में पर्याप्त चारा पैदा कर लेता है और उससे गांव को सालाना 10 लाख रुपये की आमदनी हो सकती है।