पर्यावरण

आहार का आधार

भारत भैंस के गोश्त का बड़ा निर्यातक है और अत्यधिक मांसभक्षण की इस बुरी आदत से फायदा उठाता है।

Sunita Narain

हाल ही में  मैंने ‘वाई आई वुड नॉट एडवोकेट वेजिटेरियनिज्म’ आलेख के माध्यम से एक बहस शुरू करने की कोशिश की। एक भारतीय पर्यावरणविद होने के नाते शाकाहार पर लिखते हुए मैंने भावुक प्रतिक्रियाओं की ही उम्मीद की थी। मेरा मानना है कि इस मुद्दे को बेहतर स्पष्टता से समझे जाने की जरूरत है। अत: मैं निजी, अपमानजनक और असहिष्णु टिप्पणियों को नजरअंदाज करते हुए एक ऐसी बहस की शुरुआत करना चाहूंगी, जहां मतभेद के लिए पर्याप्त गुंजाइश हो।

मैं एक मध्यम मार्ग तैयार करना चाहूंगी, जिसका मकसद पूर्ण सहमति न होकर बातचीत, वाद-विवाद, यहां तक कि असहमति भी हो सकता है।

शाकाहार पर मेरी अवधारणा का पुरजोर विरोध करनेवालों ने सबसे पहले नैतिकता का मसला उठाया है। यह सहानुभूति एवं किसी अन्य जीव के जीवन की उपयोगिता पर आधारित एक नैतिक दलील है—आप हत्या नहीं कर सकते। मांसाहार को न्यायसंगत नहीं मानने के इस नजरिए के खिलाफ मेरा कोई तर्क नहीं है। मेरी ऐसी कोई धारणा नहीं है, लेकिन आपकी है तो मैं इसे समझती हूं और इसका सम्मान करती हूं।

दूसरा मुद्दा वैसे आहार से संबंधित है, जिसमें हर तरह के पशु उत्पाद को खारिज किया जाता है। जहां, कुछ लोगों ने नैतिक दृष्टिकोण से तर्क दिए हैं, वहीं एक दूसरा खेमा स्वास्थ्य एवं टिकाऊपन के नजरिए से अपनी बात रखता है। मेरे कई मित्र ऐसे शाकाहारी (वीगन) हैं जो किसी भी पशु उत्पाद का सेवन नहीं करते और उनकी मानें तो यह चुनाव उन्हें स्वस्थ एवं निरोग रहने में मदद करता है। साथ ही यह भी सच है कि ऐसे कई अन्य आहार भी हैं जो समान रूप से संतुलित एवं पौष्टिक हैं। उदाहरण के तौर पर पशु दुग्ध उत्पाद, खासकर दही और घी पारंपरिक भारतीय भोजन विज्ञान के मुताबिक अत्यधिक पौष्टिक हैं। जापानियों को मत्स्य आहार पर अटूट भरोसा है। हां, एक ऐसा आहार जिसमें अत्यधिक परिष्कृत भोजन की बहुलता हो, निस्संदेह ही अस्वास्थ्यकर होगा। इसमें गोश्त और जंक फूड भी शामिल हैं। अत: हम कह सकते हैं कि शुद्ध शाकाहारी (वीगन) होना या न होना एक निजी मसला है।

तीसरे मुद्दे की बात करें तो हमें यह समझना है कि भोजन कैसे जलवायु परिवर्तन एवं टिकाऊपन से संबंधित है। मैं पहले ही कह चुकी हूं कि इस मामले में सुस्पष्ट साक्ष्य हैं। खेती, जिसमें मांस उत्पादन शामिल है, जलवायु परिवर्तन के लिए बुरा है क्योंकि इसमें प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन होता है।

हालांकि, मैंने साथ ही यह भी कहा था कि यह बुराई मांस उत्पादन के लिए उपयोग में लाए जानेवाले साधनों की वजह से है। चारागाहों के लिए पेड़ों की कटाई गहन एवं अति ‘रासायनिक’ पशुधन संचालन एवं अत्यधिक मात्रा में मांस का उपभोग और बर्बादी इसके लिए जिम्मेदार हैं। इसके विपरीत मैंने भारतीय किसानों की ‘सहजीवी पशुधन’ व्यवस्था की तरफदारी की थी, जिसमें पशुओं का इस्तेमाल खाद, दूध और अंतत: मांस के लिए होता है। यह तो हम मानेंगे ही कि एक किसान जो खुद मुश्किल से निर्वाह कर रहा हो वह वातावरण में हानिकारक गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार नहीं है।

इन सबके साथ एक और मुद्दा है जिसपर मैं जोर देना चाहती हूं : टिकाऊपन को ध्यान में रखते हुए हमारी खाद्य प्रवृत्तियों में परिवर्तन लाना। मांसाहार को नियंत्रित करना इस दिशा में एक कदम है। यह भी सच है कि भारत भैंस के गोश्त का बड़ा निर्यातक है और अत्यधिक मांसभक्षण की इस बुरी आदत से फायदा उठाता है। हमें मध्यम वर्ग को इस दिशा में जागरूक करना होगा क्योंकि वह ही है जो इसका सर्वाधिक उपभोग करता है। मांस का संयमित उपभोग एवं कम बर्बादी इस रास्ते में पहले कदम होंगे।

यहां पर एक अहम सवाल यह है कि हम अपने पशुधन के संवर्धन एवं गोश्त का परिष्करण कैसे करें। हमें यह तय करना होगा कि भारत (और सारी दुनिया भी) में गोश्त का उत्पादन रसायन रहित हो। साथ ही इस प्रक्रिया में प्राकृतिक निवास स्थानों का ह्रास न हो एवं पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने के हरसंभव प्रयास भी किए जाएं। इसलिए हमारे बीच संपोषणीय पशुधन उत्पादन एवं परिष्करण की दिशा में एक विमर्श की जरूरत है। स्वास्थ्यवर्धक एवं संपोषणीय आहारों को परिभाषित किया जाना जरूरी है। पर ऐसा तभी संभव है जब हम इस बात को स्वीकार करें कि पशुधन किसानों एवं गरीब घरों की एक महत्त्वपूर्ण संपत्ति है। मांस का विकल्प प्रदान किए बिना हम इस संपत्ति की उपभोग-बंदी नहीं कर सकते।

ठीक उसी तरह बूचड़खानों को कानूनी मान्यता प्रदान करने की जरूरत है। ऐसे नियम बनाए जाने की जरूरत है जो स्पष्ट हों और जिन्हें लागू करना आसान हो। मांस परिष्करण की ऐसी इकाइयों के संचालन में होने वाला खर्च और प्रदूषण कम करने वाली सर्वश्रेष्ठ तकनीकों का अध्ययन करने की जरूरत है। पशुओं का मानवीय परिवहन एवं वध तय करने हेतु नियम मौजूद हैं। साथ ही ऐसे भी कानून हैं जो मांस परिष्करण के दौरान होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के उद्देश्य से बनाए गए हैं।

दुख की बात यह है कि ये कागजी नियम जमीन तक नहीं पहुंचे हैं। यहां, मैं यह जोड़ना चाहूंगी कि हिंसा एवं निगरानी के नाम पर गुंडागर्दी इसका उपाय नहीं है। सही रास्ता गोश्त उत्पादन की सच्चाई को स्वीकार करना और उसे टिकाऊ व स्वास्थ्यकर बनाने की कोशिश होगा।

आखिरी में मेरा मानना है कि समानता एवं न्याय जैसे कुछ मूल्य बहस के दायरे से बाहर हैं। इन मूल्यों पर कोई समझौता नहीं। मेरे लिए धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा एक ऐसे भारत की छवि है जो सबकी समानता का आदर करे। हां, यह अलग बात है कि इस अवधारणा में सही और गलत की संकल्पना अंतर्निहित है जो कोई भी लोकतांत्रिक एवं समावेशी समाज खुद तय करेगा। यह एक जरूरी बहस है जो एक खुले एवं सहिष्णु माहौल में होनी चाहिए। किसी का अपमान नहीं, कोई हिंसा नहीं।