फाइल फोटो: विकास चौधरी / सीएसई 
पर्यावरण

प्रकृति का रंग हरा ही क्यों?

अनगिनत रंगों से रची बसी है प्रकृति। फिर भी हमने प्रकृति का रंग हरा तय कर दिया

Keyoor Pathak

  • प्रकृति का रंग हरा मानना हमारी सीमित दृष्टि का परिणाम है

  • हम हरे-भरे मैदानों और पेड़ों को ही प्रकृति का प्रतीक मानते हैं जबकि प्रकृति अनगिनत रंगों से भरी है

  • इन्द्रधनुषी रंगों की तरह, प्रकृति का कोई एक रंग नहीं होता

  • हमें प्रकृति के अंतर्निहित मूल्यों को समझना चाहिए, ताकि हम इसे एक साध्य के रूप में स्वीकार कर सकें

अगर हमसे कहा जाए ‘प्रकृति’का चित्र बनाने को, तो आमतौर पर हम  क्या बनाते हैं? हम बनाते हैं- हरे-भरे मैदान, कलकल करती नदियां, और उसमें तैरती मछलियां, आसपास उछलते-कूदते हिरण, चहचहाती नन्ही चिड़िया, फूल और पत्तियां। या फिर एक पहाड़ी, और उनसे झांकती सूरज की किरणें, रात की चांदनी और आसमान के टिमटिमाते तारे।

हम कभी भेड़ियों, गीदर, चील, लंगूर, सांप, बिच्छू, छिपकिली, मच्छर, या मक्खी जैसे जीवों का चित्रण नहीं करते, जबकि ये सभी भी उतने ही प्राकृतिक हैं जितने कि गोरैये, कबूतर, मैना, तोते और तितलियां।

हमारी कल्पनाओं में सामान्य तौर पर रेगिस्तान, तपती धरती, कंटीली पहाड़ियां, उफनती नदियां भी नहीं होती। हम इनका चित्र आमतौर पर नहीं बनाते।

हमारी कल्पनाओं में सुन्दर और सत्य वही है जिससे हमें कोई प्रत्यक्ष लाभ मिलता है. जिनसे हमारे हितों की सीधे तौर पर पूर्ति नहीं होती। वह हमारी कल्पनाशीलता में असुंदर और अप्राकृतिक है। हम उसका चित्रण सहजता से और सामान्य स्थिति में नहीं कर पाते।

एक दूसरा उदाहरण लेते हैं प्रकृति के रंग को लेकर। हम मानते हैं कि ‘प्रकृति का रंग हरा है’। ‘प्रकृति’ शब्द बोलते ही हरा रंग हमारे मन-मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगता है। हम पूरी दुनिया में जहां-जहां प्रकृति को देखने का प्रयास करते हैं, हरे रंग के सन्दर्भ में ही करते हैं।

चाहे वह पेट्रोल पंप का हरे रंग में होना हो, या फिर पर्यावरणीय आंदोलनों के समय कार्यकर्ताओं के द्वारा प्रयोग किया जाने वाला बैनर-पोस्टर हो, या फिर पर्यावरणीय चर्चाओं के दौरान हरित चिन्हों आदि का प्रयोग- हरेक स्थानों पर हमने मान रखा है कि प्रकृति का अर्थ है-‘हरा रंग’।

प्रश्न है कि क्या सच में प्रकृति का रंग हरा है? क्या सुनहरे रेगिस्तान प्रकृति के अंग नहीं है? क्या निर्जन पठार जहां हरे-पौधे नहीं, वे प्रकृति के अंग नहीं है? क्या समुद्र जो नीला है, वह प्रकृति का हिस्सा नहीं है? क्या आकास का रंग हरा है? क्या बादलों का रंग हरा है? क्या बरसात की बूंदें हरी है? क्या सूरज का रंग हरा है? क्या चांद और तारें हरे हैं?

अगर प्रकृति को वास्तविक दृष्टि से देखें तो प्रकृति का कोई एक रंग ही नहीं। ऐसा कोई रंग नहीं जो प्रकृति का रंग नहीं। अनगिनत रंगों से रची बसी है प्रकृति। फिर भी हमने प्रकृति का रंग हरा तय कर दिया। यहां तक कि इन्द्रधनुष जो प्रकृति द्वारा की गई एक सुन्दर चित्रकारी है वह भी सात रंगों से बनी है। उसमें कोई एक रंग नहीं। सही अर्थों में देखें तो प्रकृति का रंग तो इन्द्रधनुषी होना चाहिए। यह रंग प्रकृति ने अपने लिए स्वयं चुना है।  

मनुष्य, सामान्यतः मनुष्य केन्द्रित है। इसके विचार-दर्शन के केंद्र में अक्सर मनुष्य ही रहता है। मनुष्य के हितों के बाहर जाकर यह दुनिया को नहीं देख समझ पाता। पश्चिमी आधुनिकता ने मनुष्य को और अधिक मनुष्य केन्द्रित बनाया। परम्परा और प्राचीनता में ऐसे दर्शन और विचारों की प्रधानता नहीं थी। मनुष्य जब सोचता था तो उसके मन में प्रकृति के सभी जीव-अजीव आते थे, लेकिन पश्चिमी आधुनिकता ने हमें प्रकृति को पराजय करने को प्रेरित किया।

हमने माना कि प्रकृति हमसे है, और इनका अस्तित्व हमारे उपभोग के लिए ही है। हमने  प्रकृति को एक साधन मात्र माना। इस तरह की प्रेरणाओं ने मनुष्य के जीवन के प्रतीकात्मक पक्षों और कल्पनाओं को भी प्रभावित किया। हम मनुष्य को केंद्र में और प्रकृति को परिधि में रखकर सोचने लगे, इसलिए यह हमारी कल्पनाओं में जब भी आता है तो मनुष्य के हितों और स्वार्थों के अनुरूप ही आता है। जो हमारे स्वार्थों के साथ प्रकट तौर पर लाभकारी नहीं, हमने उनके अस्तित्व को या तो अस्वीकृत किया या फिर उन्हें अपनी कल्पनाओं में कम जगह दी।

हम उसके अप्रत्यक्ष योगदान को सामान्यतः समझने में अविवेकी रहे. हमारे लिए गुलाब के फूल तो प्रकृति के चित्रण का विषय बना, लेकिन कैक्टस और कंटीले झाड़ों को बाहर कर दिया। हमने बगीचों में मनुष्य का प्रकृति प्रेम देखा और जंगलों का सफाया कर दिया। हमने पालतू पशुओं में अपना पशु-प्रेम दिखाया, लेकिन वन के जानवरों को अप्राकृतिक और अनुपयोगी माना, और उनकी विलुप्ति का कारण बने।

प्रकृति को इस तरह देखने से हम इसके ‘एंट्रिन्सिक-वैल्यू’ या अन्तर्निहित-मूल्यों की उपेक्षा करते हैं। धरती पर अधिकांश जीव-अजीव तब से हैं, जबसे मानव का धरती पर विकास नहीं हुआ था। उनके होने ने हमारे होने को तय किया, लेकिन हमने इस सत्य को शायद ही स्वीकारा।

‘डीप-इकोलोजिकल मूवमेंट’ के प्रणेता अर्ने नैस ने प्रकृति के अन्तर्निहित-मूल्यों की उपेक्षा को एक गंभीर संकट के रूप में देखा। उन्होंने प्रकृति को साधन मानने की प्रवृति के बदले इसे अपने आप में एक साध्य के रूप में देखा। यह बताना रुचिकर है कि अर्ने नैस के विचारों पर गाँधी के विचारों का स्पष्ट प्रभाव था. उन्होंने प्रकृति को ‘नन-रिलेशनल’, ‘अपने आप में परिपूर्ण’, और ‘उपयोगिता से मुक्त’ माना। उन्होंने प्रस्थापना दिया कि सभी जीव अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि सब एक ही हैं, और “अदृश्य” तौर पर एक दूसरे से जुड़े हैं।

प्रकृति को मनुष्य के नजरिये से नहीं, बल्कि सभी जीवों के नजरिये से देखा जाना चाहिए. हम एक कल्पना करते हैं- ‘धरती जहां एक भी मनुष्य नहीं’। ऐसी स्थिति में क्या धरती का अस्तित्व रहेगा? उत्तर है- इसका अस्तित्व भी रहेगा और इसकी आयु भी बढ़ जाएगी। शेष सभी जीव जो विलुप्ति के कगार पर हैं वे भी फिर से धरती पर बहुतायात में मिलने लगेंगे। न ‘ग्लोबल वार्मिग’ होगी और न ‘बर्निंग’।

अब एक दूसरी कल्पना करते हैं- ‘धरती से केवल तमाम तितलियों और मधुमक्खियों का सफाया कर दिया जाए’। ऐसी स्थिति में क्या धरती का अस्तित्व रहेगा? उत्तर हमें असहज करता है। धरती पर मानव सहित अन्य जीवों के बचे रहने की कम सम्भावना प्रतीत होती है।

तितलियां और मधुमख्खियां परागण के माध्यम से वनस्पतियों की वृद्धि करती है। इन वनस्पतियों पर अन्य शाकाहारी जीवों का अस्तित्व निर्भर है और शाकाहारियों के शिकार से मांसाहारियों का अस्तित्व बना रहता है।

इससे एक अनुमानित निष्कर्ष निकाला जा सकता है- मनुष्य धरती के अस्तित्व के लिए एक गैरजरूरी-जीव है, लेकिन अन्य कोई भी जीव धरती के अस्तित्व के लिए गैर-जरुरी नहीं। मनुष्यों को चाहिए कि प्रकृति को एक साध्य के रूप में देखें, फिर इसकी परिकल्पनाओं में भी एक समावेशिता प्रकट होने लगेगी।