आप एंटोनियो ग्राम्शी के “ए टाइम ऑफ मॉन्स्टर्स” का जिक्र करते हुए आज की चरम मौसम की घटनाओं की तुलना “मॉन्स्टर्स” यानी शैतानों से करते हैं। आपको इस दिशा में सोचने की प्रेरणा कैसे मिली?
ये केवल मौसम की घटनाएं न होकर राजनीतिक घटनाएं भी हैं। ग्राम्शी ने एक व्यवस्था के खत्म होने और दूसरी के जन्म लेने के बीच की प्रतीक्षा के अंतराल को “मॉन्स्टर्स” का समय बताया था । दरअसल वह फासीवादियों के बारे में बात कर रहे थे जो विशुद्ध रूप से राजनीतिक प्राणी होते हैं। लेकिन वर्तमान में हम इन पर्यावरणीय मॉन्स्टर्स से भी घिरे हैं और यह पूर्णतया राजनीतिक है क्योंकि जलवायु परिवर्तन अपने आप में गहन रूप से राजनीतिक है। यह राष्ट्रीय असमानताओं और चरम भू-राजनीतिक पदानुक्रमों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। इसलिए हम अब यह नहीं कह सकते कि वे केवल पर्यावरणीय आपदाएं हैं। गहराई से देखे जाने पर वे राजनीतिक आपदाएं दिखेंगी।
आप मौजूदा जलवायु राजनीति और वार्ता को कैसे देखते हैं?
मुझे नहीं पता कि यह किसी के लिए आश्चर्य की बात थी या नहीं। यह निश्चित रूप से मेरे लिए आश्चर्य की बात तो नहीं थी। मेरे लिए यह पूरी तरह से स्पष्ट था कि बातचीत विफल होगी क्योंकि यह वार्ता अनिवार्य रूप से असमानताओं को बनाए रखने पर केंद्रित है। यथास्थितिवादी शक्तियां दुनिया में अपने महान विशेषाधिकारों को बचाकर रखना चाहती हैं। जाहिर है जो लोग पहले वंचित थे, वे यह नहीं चाहते कि दुनिया पहले ही की तरह चलती रहे। मुझे लगता है कि यह वह मोड़ या पड़ाव है जिसे पार करना असंभव है। पश्चिम के समृद्ध देश बार-बार कहते हैं कि जलवायु शमन के लिए उनके पास पैसा नहीं है। उन्होंने शमन के लिए बहुत ही मामूली राशि की पेशकश की। साथ ही वे अपने रक्षा खर्च में भी भारी वृद्धि कर रहे हैं। वे ऐसा कैसे कर पाते हैं इसकी कल्पना करना भी मेरे लिए मुश्किल है। इसमें से किसी चीज का कोई मतलब नहीं निकलता।
आप लिखते हैं कि जलवायु परिवर्तन और प्रवास एक ही चीज के दो समान पहलू हैं। क्या आप इस विषय को विस्तार से बताएंगे?
कुछ ऐसे लोग हैं जो “जलवायु प्रवास” की बात करते हैं। हालांकि मेरी समझ से यह एक गलत नाम है क्योंकि आज दुनिया भर में हम जिस तरह के प्रवास देख रहे हैं, वे सिर्फ जलवायु का ही परिणाम नहीं हैं (हालांकि जलवायु आपदाओं का इससे बहुत कुछ लेना-देना है) बल्कि जनसमुदायों की इन विशाल गतिविधियों के कई अलग-अलग पहलू हैं।
लोगों के इस विशाल प्रवास को गति देने वाली चीजों में से एक संचार तकनीक या सेलफोन तकनीक है। ये आंदोलन पूरी तरह से सेलफोन तकनीक पर आधारित हैं। प्रवासी की यात्रा का हर पहलू सेलफोन द्वारा तय किया जाता है। वे सेलफोन के जरिए अपने दलालों को पैसे देते हैं।
वे सेलफोन के माध्यम से अपना रास्ता खोजते हैं। वे सेलफोन के माध्यम से एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। सारी जानकारी एकत्रित करने का काम सेलफोन के माध्यम से होता है। इसलिए आप अंतरमहाद्वीपीय यातायात के ऐसे पैटर्न बनाते हैं जो इस प्रकार से निर्देशित होते हैं ताकि आप उत्पादन प्रक्रिया को लगातार संचालित कर सकें। लेकिन किसी एक बिंदु पर जाकर ये स्पष्ट रूप से लोगों की गतिविधियों में मिल जाते हैं। और यही हम अभी देख रहे हैं।
आप लिखते हैं कि 2015 का यूरोपीय प्रवासी संकट शीत युद्ध जीतने के उन्माद में पश्चिम की अपनी कार्रवाई का परिणाम था। अपनी 2019 की पुस्तक “दिस लैंड इज आवर लैंड: एन इमिग्रेंट्स मेनिफेस्टो” में सुकेतु मेहता लिखते हैं कि वैश्विक दक्षिण से उत्तर की ओर हुए सभी प्रवासन पश्चिमी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का परिणाम थे। वह लिखते हैं, “हम यहां इसलिए हैं क्योंकि आप वहां थे।” क्या आप इससे सहमत हैं?
हां। मैं अपने अनुभव कहूं तो दोनों का एक-दूसरे से बहुत कुछ लेना-देना है। उदाहरण के लिए ब्रिटेन का विशाल भारतीय प्रवासी समाज पूरी तरह से पहले से मौजूद नेटवर्क के कारण ही यहां आया था क्योंकि अंग्रेज यहां थे। वे नाविकों को काम पर रखते थे जिन्हें लस्कर के नाम से जाना जाता था। इन लस्करों ने आवागमन के ये अंतरमहाद्वीपीय नेटवर्क बनाए। इसलिए ये सब बिल्कुल उसी से जुड़ा हुआ है। सुकेतु का यह तर्क बिल्कुल सही है।
मुझे लगता है कि आज की स्थिति कुछ मायनों में अलग है क्योंकि जिस तरह से प्रवास और आवागमन हो रहा है वह भी कल्पना और इच्छा की संरचनाओं से निर्देशित होता है। उदाहरण के लिए हम इन गुजराती परिवारों के बारे में पढ़ते रहते हैं जो अमेरिका की सीमा में प्रवेश करने की कोशिश में अमेरिका-कनाडा सीमा पर ठंड से मर जाते हैं। ये लोग गरीब नहीं हैं। वे गुजरात के अपेक्षाकृत संपन्न परिवारों से आते हैं। फिर ऐसा क्या है जो उन्हें अमेरिका ले जा रहा है? यह दरअसल एक तरह की फंतासी है जो वे “अच्छे जीवन” या “बेहतर जीवन” को लेकर बनाते हैं।
आप मानव प्रवासन का भविष्य किस प्रकार से देखते हैं?
यह एक युद्ध का मैदान बनने जा रहा है। उदाहरण के लिए अमेरिका में यह पहले ही शुरू हो चुका है। प्रवासियों को निगरानी समूहों और विभिन्न प्रकार की कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा शिकार बनाया जाता है। यह प्रक्रिया अविश्वसनीय रूप से खूनी और हिंसक बन गई है।
यही बात यूरोप और भूमध्य सागर के लिए भी सच है। अब हम देखते हैं कि यूरोपीय तटरक्षक लोगों को समुद्र में डूबने के लिए छोड़ देते हैं। यह पूरी तरह से समुद्री कानून और अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ है लेकिन आजकल यही हो रहा है।
यह सचमुच एक युद्ध का मैदान बन गया है। हालांकि क्या यह लोगों को प्रयास करने से रोकेगा? मुझे ऐसा नहीं लगता। मेरी मानें तो प्रवास के प्रयास और बढ़ने वाले हैं। इसके अलावा जैसा कि मैंने वाइल्ड फिक्शन में कहा है, यूरोपीय राज्यों ने भूमध्य सागर के आसपास ऐसी अस्थिरता पैदा कर दी है कि ये प्रयास अब और बढ़ने ही वाले हैं। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया और लीबिया में युद्ध हुए। जब आप एक पूरे समाज को नष्ट कर देते हैं तो आप क्या उम्मीद करते हैं? लीबिया वास्तव में एक मध्यम आय वाला देश था। वहां मुफ्त शिक्षा थी और यह एक कल्याणकारी राज्य था। लेकिन चूंकि मुअम्मर गद्दाफी का पश्चिमी विरोधी रुख था इसलिए उन्हें रास्ते से हटाना पड़ा। लीबिया को नष्ट कर दिया और हम कह सकते हैं कि इससे सब्र का “बांध टूट गया।”
मैंने यूरोप में कई बांग्लादेशी और भारतीय प्रवासियों का साक्षात्कार लिया था। उनमें से कई लीबिया से आए थे। उनमें से कोई भी यूरोप नहीं जाना चाहता था। वे लीबिया में बहुत अच्छा जीवन बसर कर रहे थे। वे पैसे बचा रहे थे और उसे वापस घर भेज रहे थे। और एक दिन ऐसा आया कि अचानक ही उनके लिए कोई काम नहीं बचा था। पूरा संस्थागत ढांचा ध्वस्त हो गया। ऐसे में वे और कहां जा सकते हैं?
आप लिखते हैं कि यह कल्पना एक भ्रम है कि समुदायों को संरक्षित करने का सबसे अच्छा तरीका अन्य मनुष्यों को बाहर करना है। लेकिन यह भावना पश्चिम या फिर भारत के लोगों को क्यों आकर्षित नहीं कर रही है?
यथार्थवादी रूप से कहें तो कहीं बाहर के बहुत से लोगों को अपने समाज में समाहित करना आसान नहीं है। लेकिन यह अच्छी तरह से किया जा सकता है। मेरे लिए सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि यदि आप भारत के अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध पश्चिमी तट पर जाते हैं तो आप पाएंगे कि वहां का पूरा श्रमिक वर्ग पूर्वी भारत से है, जैसे झारखंड, बंगाल, ओडिशा इत्यादि। उदाहरण के लिए गोवा में सभी वेटर और मैनुअल वर्कर पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत से हैं। मैं कहूंगा कि वे तुलनात्मक रूप से गोवा के जीवन में अच्छी तरह समाहित हो गए हैं। यह केरल और कर्नाटक के लिए भी सच है, वास्तव में यही सच में हो रहा है। इसके अलावा ये जगहें प्रवासियों के बिना नहीं चल सकतीं। अब गोवा में कोई भी मूल गोवावासी कुछ खास तरह के शारीरिक श्रम वाले काम नहीं करेगा जैसे वेटर, माली आदि।
यह यूरोप और अमेरिका के लिए भी उतना ही सच है। यूरोप में बुजुर्गों की कुछ खास तरह की देखभाल पूरी तरह से प्रवासियों के सहारे चलती है। अमेरिका में पूरी कृषि व्यवस्था प्रवासियों द्वारा चलाई जाती है। यही बात इटली में बांग्लादेशियों और भारतीयों के लिए भी सच है। इस प्रकार यह एक अजीब विरोधाभास है। इन समाजों में ऐसी परिस्थितियां बना दी गईं हैं जहां वे प्रवासियों के बिना काम नहीं कर पाएंगे। वहीं दूसरी तरफ प्रवासियों के प्रति तीव्र घृणा भी पैदा की जा रही है। यह एक अविश्वसनीय रूप से विस्फोटक और खतरनाक स्थिति है।
इस सर्दी में पश्चिम में लाहौर से लेकर पूर्व में ढाका तक का सिंधु-गंगा का मैदान एक बड़े गैस चैंबर में बदल गया था। इसका समाधान क्या हो सकता है, विशेषकर तब जब यह पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र का मुद्दा बन गया है?
यह लंबे समय से पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र का मुद्दा रहा है। दक्षिण एशिया के ऊपर एक विशाल भूरा बादल मंडराता रहता है जो ज्यादातर मानवजनित एरोसोल से बना है। दक्षिण एशिया के किसी भी हिस्से में आप इससे बच नहीं सकते। लोगों को लगता है कि गोवा जाने से वे खराब हवा से बच सकते हैं। गोवा की हवा दिल्ली से तो बेहतर है लेकिन उसे अच्छा नहीं कह सकते। आने वाले समय में यह भूरा बादल माॅनसून में बाधा डालेगा और बड़े स्तर पर तबाही का कारण बनेगा।
इसके बारे में क्या किया जा सकता है? जाहिर है इसका जवाब है जीवाश्म ईंधन को अंधाधुंध जलाना बंद करना। क्या ऐसा होने वाला है?
मुझे ऐसा होता नहीं दिख रहा है। लेकिन दिल्ली और उत्तर भारत के मामले में ऐसे कई नीतिगत उपाय हैं जो बदलाव ला सकते हैं। उदाहरण के लिए पराली जलाना पूरी तरह से नीतिगत प्रभाव है। कृषि चक्र में आए बदलाव के कारण किसानों को एक निश्चित समय पर रोपण करना पड़ता था। यह पूरी तरह से नीतिगत आपदा है। ऐसी स्थिति में इसे उलटना संभव होना चाहिए। सच कहूं तो मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों नहीं किया जा रहा है।
आप लिखते हैं कि ग्रेट निकोबार परियोजना एक पारिस्थितिकी विनाश और स्वदेशी आबादी का नरसंहार होगी। आपको क्या लगता है कि इस परियोजना की कल्पना क्यों की गई?
वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि बहुत से लोग बहुत सारा पैसा कमाएंगे। हालांकि यह केवल एक हिस्सा है। दूसरा हिस्सा रणनीतिक पहलू है क्योंकि वे बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर में शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए अंडमान में एक रणनीतिक आधार चाहते हैं। इसलिए ये दो तर्क एक साथ आते हैं। एक पैसा कमाना है और दूसरा सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करना है। यहीं से इस परियोजना ने अपनी गति पकड़ी है।
लेकिन यह परियोजना “आपदा पूंजीवाद” का एक आदर्श उदाहरण है। 2004 की हिंद महासागर सुनामी ने बहुत से लोगों को विस्थापित कर दिया और वे इस परियोजना को बनाने के लिए उस विस्थापन का लाभ उठा रहे हैं।
आप लिखते हैं कि मॉरीशस एक कुख्यात “चक्रवाती गली” में स्थित है। दक्षिणी अफ्रीका में एक के बाद एक विनाशकारी चक्रवात आते रहे हैं। जनसांख्यिकी दृष्टि से अफ्रीका सबसे युवा महाद्वीप है। अपनी आबादी के विकास सूचकांकों को नजरअंदाज किए बिना वह जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना कैसे कर सकता है?
जलवायु परिवर्तन के बारे में अजीब बात यह है कि यह एक वैश्विक घटना है जो स्थानीय स्तर पर प्रकट होती है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आपको स्थानीय स्तर पर सोचना होगा और मैं अफ्रीका में हर जगह की स्थानीय स्थिति के बारे में इतना नहीं जानता कि मैं इस पर कुछ कह सकूं। मैं पिछले कुछ वर्षों में केन्या और तंजानिया में काफी समय बिताता आया हूं। मुझे लगता है कि वे इससे निपटने के तरीके खोज लेंगे।
केन्या में आपको भारत जैसी अत्यधिक गरीबी नहीं दिखती। अगर आप कोविड महामारी के नतीजों को भी देखें तो सेनेगल में कुछ बेहतरीन नतीजे सामने आए। आमतौर पर पश्चिमी अफ्रीका ने अच्छा प्रदर्शन किया।
महामारी की शुरुआत में बिल गेट्स और अन्य लोगों ने कहा था कि अफ्रीका में “कोविड सर्वनाश” होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वास्तव में अफ्रीका में अमेरिका और ब्रिटेन से बहुत अलग नतीजे आए। इसका कारण यह है कि अफ्रीकी समाजों में सामाजिक विश्वास अधिक है। ये आदिवासी और कबीले पर आधारित समाज है। उनमें सामूहिक उद्देश्य की भावना भी है। ये व्यक्तिवादी समाज नहीं है। इसलिए लोग एकजुट रहते हैं। आने वाले लंबे समय में ये प्रतिरोध के वास्तविक स्रोत बनेंगे।
2024 में जलवायु के सारे रिकॉर्ड टूट गए। क्या हमारी धरती अपनी आखिरी सांसें गिन रही है?
हमारी धरती हमारे बिना भी रह लेगी। सब चलता रहेगा। असली खतरा मानवता और सभ्यता पर मंडरा रहा है। हमें धरती नहीं मानवता की चिंता करने की आवश्यकता है।