पर्यावरण

हिमालयी राज्यों का ग्रीन बोनस 10 से बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया जाए

पूर्व नौकरशाहों के समूह ने सवाल उठाया है कि क्या देश हिमालय के विनाश का जोखिम उठा सकता है?

Bhagirath

पूर्व नौकरशाहों (प्रशासनिक अधिकारियों) के कॉन्स्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप ने 16वें वित्त आयोग के अध्यक्ष अरविंद पनगड़िया को पत्र लिखकर हिमालयी राज्यों की तरफ विशेष ध्यान देने की गुजारिश की है और पारिस्थितिक सेवाओं के बदले मिलने वाले ग्रीन बोनस को 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत करने की मांग की है।

समूह के 103 पूर्व नौकरशाहों ने पनगड़िया को लिखे पत्र में कहा है कि आपके नेतृत्व में 16वां वित्त आयोग इस समय विभिन्न राज्य सरकारों से संवाद कर रहा है और केंद्र से राज्यों को धन के बंटवारे से संबंधित अपनी सिफारिशें तैयार कर रहा है। हमें लगता है कि यह उपयुक्त समय है कि हम आपका ध्यान एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर आकर्षित करें। यह एक ऐसा मुद्दा है जो हमारे उत्तरी राज्यों की पर्यावरणीय अखंडता और अस्तित्व से जुड़ा है और जिसे जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान के इस दौर में वह महत्व नहीं मिला है, जिसका वह हकदार है।

आपदाओं की मार

समूह के अनुसार, हिमालयी राज्य जैसे हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, कश्मीर और सिक्किम बादल फटने, अचानक आई बाढ़ों, भूमि धंसने और ढहते बुनियादी ढांचे की मार के तले सचमुच “टूट” रहे हैं। समूह ने सवाल उठाया है कि क्या देश हिमालय के विनाश का जोखिम उठा सकता है? और क्या इन हिमालयी राज्यों को सहायता की आवश्यकता नहीं है?

समूह के अनुसार, उत्तर भारत और उसका गंगा का मैदानी क्षेत्र हिमाचल, कश्मीर और उत्तराखंड के वनों, हिमनदों और नदियों के बिना जीवित नहीं रह सकता। इनके बिना यह इलाका शीघ्र ही रेगिस्तान बन जाएगा। यहां की नदियां लगभग 40 करोड़ लोगों को जीवन देती हैं और अनेक नगरों की जीवनरेखा हैं।

समूह ने आगे लिखा है कि इन हिमालयी राज्यों के पास आय का एकमात्र अपेक्षाकृत सरल स्रोत है- उनके प्राकृतिक संसाधन, अर्थात वन और नदियां और यही कारण है कि इनका अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, विशेषकर जलविद्युत परियोजनाओं और पर्यटन के नाम पर।

पिछले 20 वर्षों में ही हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड ने क्रमशः 11,000 हेक्टेयर और 50,000 हेक्टेयर घने वन क्षेत्र गैर-वानिकी परियोजनाओं के लिए हस्तांतरित कर दिए हैं। उत्तर-पूर्वी हिमालयी राज्यों में वनों के क्षरण की स्थिति और भी भयावह है।

हरित आवरण के इस विनाश के घातक परिणामों को जलवायु परिवर्तन और अधिक गंभीर बना रहा है जो नदियों की जल-प्रणाली को असंतुलित कर रहा है, ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ा रहा है और ग्लोफ (ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड) का खतरा बढ़ा रहा है। इन राज्यों की प्राकृतिक पूंजी का यह लापरवाह दोहन राष्ट्रीय हित में तुरंत रोका जाना आवश्यक है।

प्रतिपूर्ति से टलेगा संकट

समूह के अनुसार, यदि केवल केंद्र सरकार और वित्त आयोग यह समझ लें कि इन राज्यों की वास्तविक संपदा और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तथा जनकल्याण में उनका योगदान क्या है और उसके अनुरूप उन्हें प्रतिपूर्ति दी जाए तो यह संकट टल सकता है।

हिमाचल और अन्य हिमालयी राज्य को केंद्र सरकार से उनके अमूल्य, यद्यपि गैर-मौद्रिक, योगदान के लिए क्षतिपूर्ति मिलनी चाहिए, विशेष रूप से देश के कल्याण, जीवन-गुणवत्ता और कृषि, जलवायु नियंत्रण, जलविद्युत, कार्बन अवशोषण तथा पर्यटन जैसे क्षेत्रों में उनके योगदान के लिए।

वित्त आयोग केंद्र से राज्यों को मिलने वाले धन के बंटवारे का सूत्र तय करता है।
12वें वित्त आयोग ने इस दिशा में पहला कदम उठाया था, जब उसने इस उद्देश्य के लिए कुल 1,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया था, जिसे “ग्रीन बोनस” कहा गया। हिमाचल प्रदेश का हिस्सा इसमें मात्र 20 करोड़ रुपए था जो नगण्य है।

समूह ने आगे कहा है वर्तमान (15वें वित्त आयोग) में वनों और पारिस्थितिक सेवाओं के लिए जो भारांक निर्धारित किया गया है, वह केवल 10 प्रतिशत है। यह अत्यंत अपर्याप्त है, विशेषकर जलवायु नियंत्रण लक्ष्यों की अनिवार्यता को देखते हुए। यह राज्यों को अधिक हरित क्षेत्र बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देने के बजाय हतोत्साहित करता है। इस भारांक को कम से कम 20 प्रतिशत तक बढ़ाया जाना चाहिए। अतिरिक्त 10 प्रतिशत भारांक को अन्य सूचकों से घटाकर संतुलित किया जा सकता है। जैसे, “जनसंख्या” का भारांक 15 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत किया जा सकता है, इसी प्रकार, “आय दूरी” का भारांक वर्तमान 45 प्रतिशत से घटाकर 35 प्रतिशत किया जा सकता है, क्योंकि यह उच्च प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों को दंडित करता है।

ट्री लाइन से ऊपर का हिस्सा वनों की श्रेणी में शामिल हो

नौकरशाहों के समूह के अनुसार, वर्तमान पद्धति जिसके तहत “वन और पारिस्थितिकी क्षेत्र” की गणना की जाती है, दोषपूर्ण है और पर्वतीय राज्यों को नुकसान पहुंचाती है, क्योंकि इसमें ट्री-लाइन के ऊपर का क्षेत्र शामिल नहीं किया जाता। इन राज्यों का भौगोलिक क्षेत्र का बड़ा हिस्सा इस ट्री-लाइन से ऊपर स्थित है जहां हिम क्षेत्र, अल्पाइन चारागाह और ग्लेशियर हैं।
ये क्षेत्र अनेक दुर्लभ और संकटग्रस्त जीवों के प्राकृतिक आवास हैं तथा अपनी विशिष्ट पारिस्थितिक महत्ता रखते हैं। ये “जल टावर” के रूप में भी कार्य करते हैं, जो नदियों को जल प्रदान करते हैं। इन क्षेत्रों के पारिस्थितिक मूल्य को भारांक गणना में नकारना न केवल अवैज्ञानिक बल्कि आत्मविरोधी है। अतः इन्हें वनों की परिभाषा में सम्मिलित किया जाना चाहिए।

समर्थन के साथ चिताएं

पूर्व नौकरशाहों द्वारा की गई मांग का पीपल फॉर हिमालय अभियान ने स्वागत करने के साथ ही कुछ चिताएं भी जाहिर की हैं। अभियान के अनुसार, हिमालयी राज्यों के सामने एक गहरी विडंबना है। वे देश के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने की जिम्मेदारी निभाते हैं, जबकि आपदाएं, ढांचागत क्षति और सीमित आर्थिक अवसर उनकी ही जमीन और जीवन को संकट में डाल रहे हैं। इस संदर्भ में ग्रीन बोनस की मांग वित्तीय न्याय का एक वैध और आवश्यक दावा है।

लेकिन यह पहल केवल ऑफसेटिंग और क्षतिपूर्ति का एक नया रूप नहीं बननी चाहिए। अगर ग्रीन बोनस को केवल वनों, कार्बन या नदियों के आर्थिक मूल्यांकन तक सीमित कर दिया गया, तो यह पहाड़ों की असमानता और हाशियाकरण को और गहरा करेगा। इसलिए हमें केवल एक नए फंड की नहीं, बल्कि उन संरचनात्मक और संस्थागत सुधारों की जरूरत है जो पहाड़ों के शासन, संसाधन प्रबंधन और निर्णय प्रक्रियाओं को न्यायपूर्ण बनाएं। अभियान के अनुसार, हमारा मानना है कि ग्रीन बोनस की मांग उचित और जरूरी है परंतु हिमालय के विकास के मानकों को भी निर्धारित किया जाना चाहिए जिस पर हिमालय राज्यों की सरकारों तथा लोगों से व्यापक चर्चा होनी चाहिए l 

इस श्रेणी के क्षेत्र को इको सेंसेटिव जोन/सुरक्षित क्षेत्र घोषित किया जा सकता है तथा इस क्षेत्र में किसी तरह के बड़े निर्माण, बड़े उद्योग, हाइड्रो प्रोजेक्ट की बड़े परियोजनाओं पर प्रतिबंध, सड़कों के अति चौड़ाकारण पर रोक इत्यादि के प्रावधान पूर्व निर्धारित किए जाने चाहिए l केंद्र को ग्रीन बोनस के तहत विकास के मानक निर्धारित करने होंगे, तभी यह पर्यावरण संरक्षण और हिमालय की रक्षा का महत्वपूर्ण कार्य हो सकता है l

अभियान ने आगे कहा है कि पारदर्शिता और जवाबदेही आवश्यक हैं, पर नियमन भी उतना ही जरूरी है। यदि पर्यावरणीय नियमों और उनके प्रवर्तन को मजबूत नहीं किया गया, तो कोई भी वित्तीय प्रोत्साहन टिकाऊ नहीं रहेगा। ग्रीन फंड को कठोर पारिस्थितिक मानदंडों और स्वतंत्र निगरानी के साथ जोड़ा जाना चाहिए, ताकि यह “ग्रीन ग्रोथ” के नाम पर बांधों, सड़कों और अव्यवस्थित पर्यटन को प्रोत्साहित करने का औजार न बन जाए।

अभियान के अनुसार, यदि ग्रीन बोनस को न्यायपूर्ण ढंग से लागू किया जाए तो यह आर्थिक, वित्तीय, पर्यावरणीय और सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकता है। पर यदि इसे केवल क्षतिपूर्ति के रूप में देखा गया, तो यह हिमालय की गिरती हुई संरचना पर एक और मूल्य टैग मात्र रह जाएगा। हम वित्त आयोग और भारत सरकार से आग्रह करते हैं कि इसे दान नहीं, बल्कि सुधार और पुनर्संतुलन का अवसर समझें जिससे हिमालय, उसके लोग और उनके अधिकार भारत के जलवायु भविष्य के केंद्र में आएं।