आम लोगों की बुनियादी जरूरत बन चुकी डिजिटल तकनीकें पर्यावरण पर भी गहरा असर डालती हैं, ऐसे में इनका विवेकपूर्ण उपयोग बेहद जरूरी है; फोटो: आईस्टॉक 
पर्यावरण

कैसे पर्यावरण के लिहाज से महंगी पड़ रही डिजिटल अर्थव्यवस्था?

Lalit Maurya

मौजूदा समय में डिजिटल अर्थव्यवस्था तेजी से फल फूल रही है। बात पैसे भेजने की हो या ऑनलाइन खरीदारी की सब कुछ डिजिटल है। देश-दुनिया में आर्टिफिशियल इंटैलीजेंस (एआई) और क्रिप्टोकरेन्सी जैसी तकनीकें तेजी से उभर रही हैं। एक तरफ इस डिजिटल दुनिया में जिंदगी आसान हो गई है, लेकिन साथ ही इससे जुड़ी कुछ ऐसी समस्याएं भी हैं जिनपर गौर करना बेहद जरूरी है। इनमें पर्यावरण पर बढ़ता दबाव भी शामिल है, जिसको नजरअंदाज करना उचित नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास संगठन यूनाइटेट नेशन कांफ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट (यूएनसीटीडी) ने भी अपनी नई रिपोर्ट में डिजिटल तकनीकों के साथ बढ़ती समस्याओं और उनसे कैसे पार पाया जा सकता है, इस पर प्रकाश डाला है।

डिजिटल इकोनॉमी रिपोर्ट 2024” के मुताबिक डिजिटल क्षेत्र तेजी से पैर पसार रहा है, लेकिन साथ ही रिपोर्ट में आगाह किया है कि उसके पर्यावरण पर पड़ते प्रभावों को भी भी कहीं ज्यादा गम्भीरता से लिए जाने की जरूरत है।

रिपोर्ट में अक्षय ऊर्जा में निवेश बढ़ाने पर भी जोर दिया है।

यह तकनीकें और उनसे जुड़ा बुनियादी ढांचा कच्चे माल पर बहुत अधिक निर्भर है। दुनिया में जिस तरह अधिक से अधिक उपकरणों का उत्पादन किया जा रहा है, उसके उत्पादन के लिए कच्चे माल की आवश्यकता भी तेजी से बढ़ रही है। जो ग्रह पर भारी दबाव डाल रहा है।

पिछले कुछ वर्षों में इन तकनीकों के लिए पानी और ऊर्जा की मांग भी तेजी से बढ़ी है। इसके साथ ही इनकी वजह से पैदा हो रहा इलेक्ट्रॉनिक कचरा भी गंभीर समस्या बनता जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक डिजिटल उपकरण, डेटा केंद्र और नेटवर्कों का उत्पादन एवं उपयोग दुनिया की छह से 12 फीसदी बिजली उपयोग कर रहा है।

आज दुनिया में 540 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, जोकि सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से एक अच्छी खबर है। इससे न केवल किसी एक को बल्कि पूरे समाज को बढ़ने का मौका मिल रहा है। हालांकि इसकी वजह से प्राकृतिक संसाधनों पर भी दबाव बढ़ रहा है, जिसे नजरअंदाज करना समझदारी नहीं है। ऐसे में इन तकनीकों का विवेकपूर्ण उपयोग बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है।

न केवल शहरों बल्कि गांवों में भी कंप्यूटर, लैपटॉप का चलन तेजी से बढ़ रहा है। यह जरूरी भी है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि दो किलोग्राम वजन के कम्प्यूटर को तैयार करने में करीब 800 किलोग्राम कच्चे माल की आवश्यकता होती है। इसी तरह एक स्मार्टफोन के उत्पादन से लेकर निपटान तक करीब 70 किलोग्राम कच्चे माल की जरूरत पड़ती है। जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि कहीं न कहीं यह डिजिटल अर्थव्यवस्था संसाधनों की भूखी है।

2010 के बाद से देखें तो सालाना स्मार्टफोन का होता शिपमेंट दोगुने से अधिक हो गया है, जो 2023 में 120 करोड़ तक पहुंच गया। इसी इंटरनेट ऑफ थिंग्स डिवाइसों के ढाई गुणा बढ़ने की उम्मीद है, जो 2029 तक 3,900 करोड़ तक पहुंच सकता है।

दुनिया की 75 फीसदी जीडीपी का प्रतिनिधित्व करने वाले 43 देशों के आंकड़ों से पता चला है कि 2016 से 2022 के बीच ई-कॉमर्स के जरिए व्यापार करीब 60 फीसदी बढ़ गया है। यह व्यापार आज 27,00,000 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया है। यह वृद्धि पर्यावरण पर भी गहरा दबाव डाल रही है।

यह सही है कि इन तकनीकों का उत्पादन पर्यावरण पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है, लेकिन अपने जीवनकाल में यह कई अन्य तरीकों से भी पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए एक स्मार्टफोन के उत्पादन के दौरान करीब 80 फीसदी उत्सर्जन होता है, लेकिन वो अपने जीवनचक्र के दौरान पर्यावरण को कई तरह से नुकसान पहुंचाता है, इनमें ऑनलाइन शॉपिंग के लिए किया जाने वाला इनका उपयोग भी शामिल है।

34 गुणा बढ़ गई है बिटकॉइन माइनिंग की कुल ऊर्जा खपत

ऐसा ही एक उदाहरण बिटकॉयन है, जोकि एक डिजिटल करेंसी है। इसके लिए डेटा जुटाने और वैब पेज को खंगालने पर पिछले साल 2023 में 121 टैरावॉट घंटे ऊर्जा की खपत हुई थी। ऊर्जा की यह खपत कितनी ज्यादा है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह बेल्जियम या फिनलैंड जैसी ज्यादातर छोटे देशों की सालाना ऊर्जा खपत से भी ज्यादा है। वहीं 2015 से 2020 के आंकड़ों पर गौर करें तो इस दौरान दुनिया में बिटकॉइन माइनिंग की कुल ऊर्जा खपत 34 गुणा बढ़ गई है।

ऐसा ही कुछ दुनिया भर में चल रहे डेटा सेंटर्स के मामले में भी देखा गया, जिन्होंने 2022 में करीब 460 टेरावाट घंटे बिजली की खपत की। यह खपत एक साल में 4.2 करोड़ अमेरिकी घरों द्वारा उपयोग की जाने वाली बिजली की कुल खपत के बराबर है।

रिपोर्ट में अंदेशा जताया है कि यह आंकड़ा 2026 तक दोगुणा हो सकता है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि 2018 से 2022 के बीच 13 प्रमुख डेटा सेंटर्स पर बिजली की खपत दोगुने से ज्यादा बढ़ गई है।

इसकी पुष्टि इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के आंकड़े भी करते हैं, जिनके मुताबिक ब्लॉकचेन गतिविधियों के चलते ऊर्जा की खपत में 2015 से 2022 के बीच 3,500 फीसदी तक की वृद्धि हुई है।

आज इलेक्ट्रॉनिक कचरा हमारी क्षमता से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। 2010 से 2022 के बीच स्क्रीन और छोटे आईटी उपकरणों से निकलने वाले कचरे में 30 फीसदी की वृद्धि हुई है, जो 1.05 करोड़ टन तक पहुंच गया है। इसके अनुचित निपटान से न केवल प्रदूषण बल्कि स्वास्थ्य पर भी खतरा मंडराने लगा है।

रिपोर्ट में डिजिटल सैक्टर के जलवायु पर पड़ते प्रभावों को उजागर करते हुए लिखा है कि यह क्षेत्र वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के करीब 3.2 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेवार है। यह आंकड़ा वायु परिवहन और शिपिंग द्वारा किए जा रहे उत्सर्जन के बराबर ही है।

इन तकनीकों के उपयोग से जल संसाधन पर भी दबाव बढ़ रहा है, उदाहरण के लिए गूगल ने अपनी रिपोर्ट में जानकारी दी है कि 2022 के दौरान उसके डेटा सेंटर्स और ऑफिसों ने 560 करोड़ गैलन यानी 2.12 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी की खपत की है।

माइक्रोसाफ्ट ने भी जानकारी दी है कि साल में उसकी पानी कुल खपत 64 लाख क्यूबिक मीटर थी। यह डेटा सेंटर इतनी ज्यादा मात्रा में पानी का इस्तेमाल कर रहें हैं, जिससे अनेक देशों में पानी को लेकर स्थानीय समुदायों के साथ तनाव भड़का है।

यूएनसीटीडी प्रमुख रैबेका ग्रीनस्पैन ने इस बारे में पत्रकारों के साथ जानकारी साझा करते हुए कहा है कि, "आर्टिफिशियल इंटैलीजेंस (एआई) और क्रिप्टोकरेन्सी जैसी तकनीकें तेजी से पैर पसार रही हैं, लेकिन साथ ही उनकी ऊर्जा खपत में भी भारी वृद्धि हुई है।"

उन्होंने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, अक्सर यह बात कही जाती है कि डिजिटल तकनीकों से कागज के इस्तेमाल में कमी आ सकती है। साथ ही इससे ऊर्जा दक्षता बेहतर होती है। इससे परिवहन, निर्माण, कृषि व ऊर्जा क्षेत्र के बढ़ते उत्सर्जन को कम किया जा सकता है, लेकिन इसके दूसरे पक्ष पर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं हो रही।"

उन्होंने ध्यान दिलाया कि यह डिजिटलीकरण काफी हद तक मैटेरियल के इस्तेमाल पर निर्भर है और इसके लिए बिजली की आवश्यकता होती है जो जीवश्म ईंधन पर निर्भर है।

देखा जाए तो मोबाइल फोन, कंप्यूटर, सहित दूसरे इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों को तैयार करने में कीमती खनिजों के साथ जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है, जिनका सतत उपयोग जरूरी है।

देखा जाए तो विकासशील देश डिजिटलीकरण की वजह से पर्यावरण पर बढ़ते दबाव का खामियाजा भुगत रहे हैं, जबकि उन्हें इसका बहुत कम लाभ मिल रहा है। वे जहां सस्ते में कच्चे माल का निर्यात करते हैं और महंगे उपकरणों का आयात करते हैं। इसकी वजह से इलेक्ट्रॉनिक कचरा भी बढ़ रहा है। इन देशों में प्रचुर मात्रा में मौजूद महत्वपूर्ण खनिजों को लेकर हो रहे राजनीतिक तनाव भी इनकी चुनौतियों को बढ़ा देते हैं।

समय के साथ जैसे-जैसे यह डिजिटल डिवाइस कहीं अधिक जटिल होते जा रहे हैं, उन्हें कहीं ज्यादा खनिज संसाधनों की जरूरत पड़ रही है। फोन का ही उदाहरण देखें तो जहां 1960 में इनके लिए पीरियोडिक टेबल के 10 एलिमेंट की जरूरत पड़ती थी। यह जरूरत 1990 में 27 से बढ़कर 2021 में 63 पर पहुंच गई। इसकी वजह से डिजिटल के साथ-साथ कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली तकनीकों जैसे सोलर पैनल के लिए भी महत्वपूर्ण खनिजों की मांग बढ़ रही है।

वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी अनुमान के मुताबिक दुनिया में बढ़ते डिजिटलीकरण के लिए खनिजों, जैसे ग्रेफाइट, लिथियम, कोबाल्ट की मांग अगले 26 वर्षों में 500 फीसदी तक बढ़ सकती है। इन खनिजों और धातुओं की वैश्विक आपूर्ति में विकासशील देशों की बड़ी भूमिका है। हालांकि यह खनिज कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में ही उपलब्ध हैं।

उदाहरण के लिए अफ्रीका में कोबाल्ट, ताम्बा, लिथियम समेत अन्य खनिजों के का अपार भंडार है, जोकि डिजिटल तकनीकों और अक्षय ऊर्जा की ओर कदम बढ़ाने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। आंकड़े भी पुष्टि करते हैं कि अफ्रीका में कोबाल्ट के 55 फीसदी, मैंगनीज के 47.65 फीसदी, ताम्बे के 5.9 फीसदी, निकल के 5.6 फीसदी और लीथियम के एक फीसदी भंडार मौजूद हैं।

समस्या में छुपा है समाधान

देखा जाए तो इन खनिजों की बढ़ती मांग इन संसाधन संपन्न देशों के लिए प्रगति करने का एक सुनहरा मौका है। इसकी मदद से वो अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकते हैं और विकास की राह में आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन साथ ही यह ध्यान रखना होगा इन तकनीकों को पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से कहीं अधिक दक्ष बनाने की जरूरत है।

ऐसे में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में नए व्यावसायिक मॉडल और सशक्त नीतियों को अपनाने का सुझाव दिया है, जिससे डिजिटल क्षेत्र में प्रगति को पर्यावरण अनुकूल बनाया जा सके। रिपोर्ट में बढ़ते कचरे और संसाधनों की बर्बादी को रोकने के लिए सर्कुलर इकोनॉमी को बढ़ावा देने की बात की है।

इसमें रीसाइक्लिंग के कचरे के दोबारा उपयोग को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है। बता दें कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में ऐसे कई कीमती मेटल होते हैं जिनका दोबारा प्रयोग किया जा सकता है। साथ ही इन संसाधनों की वजह से पर्यावरण पर जो दबाव बढ़ रहा है उसपर गंभीरता से ध्यान देना जरूरी है। कच्चे माल और संसाधनों के सर्वोत्तम और दक्षतापूर्ण उपयोग को बढ़ावा देने से जुड़ी योजनाओं को अमल में लाना जरूरी है।

अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देना होगा। साथ ही ऊर्जा दक्ष तकनीकों पर शोध और उनके विकास को समर्थन देना महत्वपूर्ण है। डिजिटल तकनीकों के शाश्वत उपयोग को बढ़ावा देना भी अहम है। इससे जुड़े नियमों को मजबूत करना होगा, इसमें पर्यावरण से जुड़े नियमों और मानकों का कड़ाई से पालन करना होगा, ताकि डिजिटल तकनीकों के पारिस्थितिकी तंत्रों पर पड़ते असर को सीमित किया जा सके।

रिपोर्ट में अन्तरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने की भी बात कही है। यह देशों को एक साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करेगा। इससे सभी देशों तक तकनीकों व संसाधनों की एकसमान पहुंच सुनिश्चित हो सकेगी, जो सबके विकास में योगदान देगी।