रामचंद्र गुहा देश के प्रमुख इतिहासकारों और पर्यावरणविदों में हैं। हाल ही में हार्पर कॉलिंस से उनकी नई किताब-‘स्पीकिंग विद नेचर: द ओरिजिंस ऑफ इंडियन इनवायरनमेंटलिज्म’ प्रकाशित हुई है। किताब में रामचंद्र गुहा ने उन 10 अग्रणी विचारकों पर प्रकाश डाला है, जिन्होंने भारतीय संदर्भ में पर्यावरण के दुरुपयोग के खतरों के बारे में गहरी अंतर्दृष्टि के साथ लिखा और इस धारणा को चुनौती दी कि भारत जैसे देश ‘ आर्थिक रूप से गरीब होते हुए भी प्राकृतिक संसाधनों के मामले में अमीर हैं’।
डाउन टू अर्थ ने गुहा की हाल की दिल्ली-यात्रा के दौरान उनसे मुलाकात की और इस किताब के बारे में बात की। गुहा ने इस दौरान विकास और पर्यावरण के प्रतिमानों, ब्रिटिश और आजादी के बाद के भारत में पर्यावरणवाद, आज के दौर में पर्यावरण के आपातकाल से लेकर एक पर्यावरणविद के रूप में महात्मा गांधी और अन्य, जैसे अलग-अलग विषयों पर बात की। गुहा ने भारत में पर्यावरण संबंधी मुद्दों के प्रति सरकारों की उदासीनता की तीखी आलोचना की। उन्होंने देश के विपरीत हिस्सों - हिमालय और पश्चिमी घाटों में हाल ही में हुई आपदाओं के बारे में भी बात की और इस पर भी कि क्या भारत में कभी मुख्यधारा की ग्रीन पार्टी बन पाएगी। बातचीत के मुख्य अंश:
यह किताब ऐसे समय में आई है जब पर्यावरण-आंदोलनों या प्रतिरोध की अभिव्यक्तियों को लेकर खामोशी छाई हुई है या फिर उनकी लगभग हारने की स्थिति है। कम से कम ऐसा तब लगता है जब कोई आज के माहौल की तुलना 1980 के दशक से करता है। क्या आपको लगता है कि विकास बनाम पर्यावरण के बीच बहस इस तथ्य से कुछ हद तक मेल खाती है कि विकास ही प्राथमिकता है ?
मैं कहूंगा कि यह गलतफहमी है कि विकास को पर्यावरण के खिलाफ होने जैसी स्थिति में रखा जाए। इस तरह की तुलना करना साहित्य में बहुत सामान्य बात है, जिसे उद्योगपति और राजनेता पंसद करते हैं। यह आंशिक तौर पर अज्ञानता के कारण है क्योंकि उन्हें उन पर्यावरणीय समस्याओं की गहरी समझ नहीं है, जिनका हम सामना करते हैं और आंशिक तौर पर इसलिए क्योंकि वे मानते हैं कि पर्यावरणविद, विकास के खिलाफ हैं।
हालांकि मेरी किताब में यह तर्क है कि भारत को यूरोप और उत्तरी अमेरिका के विपरीत विकास का ऐसा मॉडल अपनाना होगा जो पर्यावरण के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो। ऐसा इसलिए क्योंकि यह वह देश है, जहां आबादी का घनत्व यूरोप और उत्तरी अमेरिका से कहीं ज्यादा है। इसके अलावा, उष्णकटिबंधीय पारिस्थितिकी मानसून के कारण समशीतोष्ण पारिस्थितिकी की तुलना में बहुत अधिक नाजुक होती है। और अंततः क्योंकि यूरोप और उत्तरी अमेरिका के विपरीत, भारत के पास ऐसे उपनिवेश नहीं थे जिनके संसाधनों का वह दोहन कर सके।
भारत को विकास का पर्यावरण के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील रूप अपनाना है, जो सामुदायिक अधिकारों को ध्यान में रखता हो और जो सामाजिक न्याय और पर्यावरणीय स्थिरता का मेल हो। ये वे तर्क हैं, जो 1970 और 1980 के दशक में चिपको, नर्मदा और अन्य जैसे आंदोलनों द्वारा गढ़े गए थे।
अगर आप चर्चित अहिंसक नागरिक अवज्ञा आंदोलनों को देखें तो 1970 और 1980 के दशक इसके शिखर थे, लेकिन इसके साथ ही आज के युवाओं में पर्यावरणीय संकट को लेकर जागरुकता बढ़ी है। इनमें भूजल की कमी, संसाधनों, वायु प्रदूषण और जैव-विविधता जैसे मुद्दे शामिल हैं जो जलवायु परिवर्तन से जुड़़े भी हैं और साथ ही उससे असंबद्ध भी हैं।
तो आज के युवा भारतीयों में, स्थिरता के संबंध में भारत और मानवता के सामने मौजूद अस्तित्वगत संकट के बारे में ज्यादा जागरुकता है। युवाओं में यह जागरुकता, जो पिछले कुछ दशकों में काफी बढ़ी है, मुख्यधारा की मीडिया का ध्यान नहीं खींचती है। इसका मतलब यह नहीं है कि राजनेता इस पर ध्यान देते हैं और इस पर प्रतिक्रिया देते हैं। हालांकि मुझे लगता है कि आज की युवा पीढ़ी में पर्यावरण संकट के बारे में उससे पंाच पीढ़़ी पहले की तुलना में कहीं अधिक जागरुकता होना उत्साहजनक है। यह सक्रियता कार्रवाई में बदलेगी, लोगों की सक्रियता बढ़ेगी और इससे सरकार और औद्योगिक वर्गों पर उचित दबाव डालने में मदद मिलेगी, जो वास्तव में मुख्य प्रदूषणकर्ता हैं।
फिर से 1980 की बात करें तो उस समय पर्यावरणीय आंदोलन का नेतृत्व जमीनी लोग और पत्रकार कर रहे थे। हमारे पास उस समय इस क्षेत्र में काम करने वाले ज्यादा वैज्ञानिक नहीं थे। पिछले 40 सालों में भारत ने पारिथितिकी, जलविज्ञान, भूमि विज्ञान, जैवविविधता, प्रदूषण में कमी, नगर - योजना, ऊर्जा प्रबंधन जैसे विषयों में बड़ी तादाद में वैज्ञानिक विशेषज्ञ पैदा किए हैं। अगर इस वैज्ञानिक विशेषज्ञता का इस्तेमाल किया जाए, तो यह हमें एक स्थायी मार्ग पर ले जा सकती है। यह दुखद है कि इन भारतीय वैज्ञानिकों से कभी परामर्श नहीं किया जाता है। या फिर यदि उनसे परामर्श लिया जाता है तो उनकी सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जैसा गाडगिल समिति के साथ हुआ था। और हम जानते हैं कि गाडगिल समिति की सिफारिशों की उपेक्षा के क्या परिणाम हुए।
इसलिए, स्थिति बहुत आशाजनक नहीं है। फिर भी यह उतना निराशाजनक नहीं है जितना कि कोई उम्मीद कर सकता है क्योंकि युवाओं में चेतना बढ़ रही है। इसलिए भी क्योंकि आज हमारे पास वह है जो पहले कभी नहीं था यानी कि आज हमारे पास टिकाऊ नीतियां बनाने के लिए काफी अच्छी और उच्च गुणवत्ता वाली वैज्ञानिक विशेषज्ञता है।
आप लिखते हैं: ‘भारत में जैसा कि मैं इसे परिभाषित करता हूं, पर्यावरणवाद केवल तभी मुमकिन हुआ, जब यह उपमहा़द्वीप ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के नियंत्रण में आया। औपनिवेशिक शासन ने एक पारिस्थितिकीय जलविभाजक का गठन किया, जिससे यह प्रकृति को नियंत्रित करने, हेरफेर करने, नया आकार देने और नष्ट करने की नई तकनीकें लायां।’ स्वतंत्रता के बाद का भारत अपने पूर्ववर्ती के समान ही दिखता है। विकास को बढ़ावा देने के लिए संसाधनों का दोहन जारी है और हमारे अधिकांश जमीनी प्रतिरोध भूमि, जल और जंगलों के इर्द-गिर्द हैं। आपके विचार में, क्या ब्रिटिश भारत में शुरू हुई प्रक्रिया केवल चरित्र में बदलाव के साथ जारी है?
वास्तव में यह प्रक्रिया तेज हो गई है। ब्रिटिश भारत में औद्योगीकरण के नए तरीके लेकर आये, वे ऊर्जा के इस्तेमाल, केंद्रीकृत और प्रदूषणकारी तकनीकें लेकर आए। मेरी किताब में कुछ शुरुआती शख्सियतें जैसे रबींद्रनाथ टैगोर, राधाकमल मुखर्जी और कुछ गांधीवादी 1920 और 1930 के दशक में इस बारे में लिखते हैं, जबकि हम अभी भी एक उपनिवेश थे। तो जब हमें राजनीतिक आजादी मिली तो इस देश को आर्थिक विकास का अपना माडल अपनाना था, जो अपने संसाधनों, आबादी और पारिस्थितिक बाधाओं को ध्यान में रखकर तैयार होना था। अपने औद्योगिक विकास के लिए भारत आंख मूंदकर ब्रिटिश काल के ऊर्जा, पूंजी और संसाधनों पर आधारित केंद्रीकृत मॉडल का अनुसरण नहीं कर सकता था। अपनी किताब में जिन अग्रजों मैंने जिक्र किया कि वे बड़े अधिकार और विस्तार से विकास के वैकल्पिक मॉडल की पैरवी करते दिखते हैं।
बदकिस्मती से उन्हें नजरअंदाज किया गया। 1950 और 1960 के दशकों में, आजादी के बाद के पहले ढाई दशक में औद्योगीकरण के उसी मॉडल का और तेजी के साथ अनुसरण किया गया। यह किसी लालच के चलते नहीं किया गया था बल्कि गलती से बनाये गए इस विश्वास के चलते कि औद्योगिक और आर्थिक विकास में पीछे रहने की वजह से ही हम उपनिवेश बने हुए थे। इसके पीछे यह सोच भी थी कि अगर हमें दुनिया में अपनी जगह बनानी है और पश्चिम के बराबर आना है तो उसी की तर्ज पर विकास का वही मॉडल अपनाना होगा।
हालांकि यह हमारी खास प्रकृति, हमारी खास पारिस्थितिकी संरचना, तथा इस तथ्य के बारे में गहरी गलतफहमी थी कि लाखों भारतीय अपनी आजीविका के लिए स्थायी प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं। चिपको जैसे आंदोलनों ने इस बहस को फिर से हवा दी और अब इस बहस की तीसरी लहर आ रही है, जिसमें मेरी पुस्तक योगदान देने की उम्मीद करती है।
जैसा कि आपने किताब में परिभाषित किया है, आप कैसे पहले से ‘पर्यावरणवाद की तीसरी लहर’ का अंदाजा लगा रहे हैं ? इसके अलावा एंथ्रोपोसीन यानी मानवीय गतिविधियों द्वारा निर्धारित एक युग भी है। इस संदर्भ में क्या ‘तीसरी लहर’ एक तरह से उ़द्धार करने वाली होगी?
इतिहासकारों का काम पूर्वानुमान लगाना नहीं है। मैंने इतिहास का अध्ययन करके वर्तमान को स्पष्ट देखने की कोशिश की है। हालांकि मैं भविष्य में नहीं जा सकता, अपनी किताब के जरिये मैं यह कह रहा हूं कि हमारे राजनीतिक इतिहास में, बौद्धिक परंपराओं और राष्ट्रीय आंदोलनों में ऐसे बौद्धिक मार्ग-दर्शक रहे हैं जो हमें रास्ता दिखा सकते हैं और हमारी सोच को गहरा कर सकते हैं कि वास्तव में इस देश की जरूरत क्या है। ये विचार कैसे आगे ले जाए जा सकते हैं, यह मैं नहीं कह सकता।
हालांकि मैं एक बात कहूंगा। इय किताब का एक निर्विवाद तर्क यह है कि जलवायु परिवर्तन का अस्तित्व नहीं होता, तो भी भारत पर्यावरण के लिहाज से खतरनाक क्षेत्र होता। मैं आपसे दिल्ली में अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में बात कर रहा हूं। मैं आज अपने गृहनगर बेंगलुरू से आया हूं, जहां एयर क्वालिटी इंडेक्स 60 है। दिल्ली में यह 360 है और यहां हालत उससे भी खराब होने वाली है। इसका जलवायु परिवर्तन से कुछ लेना-देना नहीं है। वायु प्रदूषण और उसका स्वास्थ्य पर असर, खासकर काम करने वाले गरीबों के लिए, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से मुक्त है। पंजाब और दूसरी जगहों पर भूजलस्तर का नीचे जाना, जलवायु परिवर्तन से अलग है। यही बात हमारी नदियों के बारे में है। जलवायु परिवर्तन की बजाय, हमारी गलत नीतियों की वजह से जंगलों को काटा जा रहा है और जैवविविधता में कमी की जा रही है। इसलिए अगर जलवायु परिवर्तन नहीं होता तो भी हम अपने अस्तित्व के संकट का सामना करेंगे। जलवायु परिवर्तन इसे और भी बदतर बना देता है, क्योंकि बाढ़, आग और सूखे के अप्रत्याशित नतीजे हमारी आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक स्थिति को और भी खराब कर देते हैं। हालांकि युवाओं को यह समझना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन भी इन समस्याओं के साथ जुड़ा है। इन समस्याओं की जड़ें़ बहुत गहरी हैं और वे जलवायु परिवर्तन से मुक्त हैं। यहीं पर ये विचारक (जिनका जिक्र मेरी किताब में है) काम आते हैं क्योंकि वे जलवायु परिवर्तन से पहले भी लिख रहे थे, तर्क दे रहे थे और चिंतन कर रहे थे। वे कह रहे थे कि हमें आर्थिक प्रगति के लिए पश्चिम की तुलना में लोगों की कहीं अधिक परवाह करने वाला, टिकाऊ और न्यायसंगत रास्ता अपनाना होगा।
गांधीजी ने ‘पर्यावरणवाद’ की अवधारणा का कभी निदान के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया लेकिन समकालीन पर्यावरणवाद को परिभाषित करने के लिए उनके विचार और सिद्धांत व्यपाक तौर पर उपयोग किए जाते हैं। तो क्या उन्हें समकालीन पर्यावरणविद के तौर पर पेश किया जा सकता है ?
गांधी के जीवन के तीन पहलू हैं जो उन्हें पर्यावरण के प्रतीक के तौर पर पेश करने में मदद कर सकते हैं। पहला- सत्याग्रह की तकनीक है। हम अन्याय का, विभाजनकारी नीतियों का अहिसंक तरीके से विरोध करेंगे। हम सभी तरह के चरमपंथियों के तरीको के उलट, बंदूक नहीं उठाएंगे।
यही वजह है कि चिपको आंदोलन के बाद से ही कई जमीनी स्तर के पर्यावरण संघर्षकारी दो अक्टूबर को अपना विरोध-प्रदर्शन शुरू कर देते हैं। उदाहरण के लिए आलोक शुक्ला को ही लें, जो हमारे सबसे प्रशंसनीय जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं में से एक हैं, जिन्हें हाल ही में छत्तीसगढ़ के हसदेव वन में उनके काम के लिए प्रतिष्ठित गोल्डमैन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके संगठन ने विनाशकारी खनन के खिलाफ अपना अभियान दो अक्टूबर को शुरू किया, क्योंकि गांधी कहते हैं कि हम अन्याय का विरोध करेंगे, लेकिन इसे अहिंसक तरीके से करेंगे। यह गांधी की विरासत का एक हिस्सा है।
दूसरा पहलू है - लाइफस्टाइल। अपनी लाइफस्टाइल को सरल बनाने की कोशिश करें। एक इंसान के तौर पर धरती से ज्यादा कुछ मांगे नहीं।
तीसरा पहलू उनकी सहज समझ है। किताब के उपशीर्षक में गांधीजी के हवाले से कहा गया है कि, ‘अगर भारत पश्चिम की तरह औद्योगिकीकरण की ओर बढ़ता है, तो यह दुनिया को टिड्डियों की तरह उजाड़ देगा।’ उन्होंने इस विचार को और विकसित नहीं किया क्योंकि वे स्वतंत्रता संग्राम, महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में लाने, अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान, हिंदू-मुस्लिम सद्भाव को बढ़ावा देने जैसे कई अन्य कामों में लगे हुए थे। इस हिसाब से गांधी पर्यावरणविद नहीं थे लेकिन उनकी इस समझ को उनके कई अनुयायियों ने अपनाया कि आर्थिक सुरक्षा के लिए भारत को अलग रास्ता चुनना चाहिए।
तो, मेरी किताब में गांधी पर कोई अध्याय नहीं है बल्कि उनके दो खास शिष्यों पर है। ये हैं अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा और जमीनी स्तर की एक्टिविस्ट रही मीराबेन, जिनका असली नाम मैडलिन स्लेड था और जिन्होंने हिमालयों में काम किया। इन लोगों ने गांधी के दार्शनिक विचारों को अपने जीवन में उतारा और प्रयोग के स्तर पर काम में लाये। मैंने गांधी पर अध्याय शामिल करने के बारे में काफी सोचा और अंततः इसे नहीं करने का फैसला किया। वैसे, वह पूरी किताब में मौजूद हैं। हालांकि किताब में जो दो गांधीवादी हैं, उनके विचार युवा पाठकों को काफी पसंद आने चाहिए।
इस साल भोपाल गैस त्रासदी को 40 साल और चिपको आंदोलन को 50 साल पूरे हो गये। स्टॉकहोम सम्मेलन को 50 साल से ज्यादा हो गये। इनमें से हर एक पर्यावरण की दुनिया के लिहाज से मील का पत्थर है। अगर मैं आपसे पूछूं कि हाल की किस घटना को आप इस श्रेणी में रखेंगे तो वह कोैन सी होगी?
ऐसी कोई एक घटना नहीं है लेकिन अगर मील का पथर जैसी चीज की बात की जाए तो मेरा मानना है कि दिल्ली के प्रदूषण को लेकर सरकार का कुछ नहीं करना, एक बड़ी नाकामी है। यह कहीं और की नहीं बल्कि देश की राजधानी की बात है। केंद्र सरकार अपना कद बढ़ाकर दिखाना चाहती है कि हम वैश्विक मामलों में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। भारत सुरक्षा परिषद में सदस्यता चाहता है। फिर भी हम अपनी राजधानी की हवा साफ नहीं कर सकते।
यह कोई दिल्ली की बात भी नहीं है। साल के ज्यादातर समय, दिल्ली का मीडिया इस बारे में नहीं लिखेगा। अक्टूबर और नवंबर में यही मीडिया इसे लेकर कुछ समीक्षात्मक रिपोर्ट छापेगा। खतरे की घंटी बजेगी लेकिन बाकी पूरे साल राजधानी के वायु प्रदूषण को लेकर कोई कदम नहीं उठाया जाएगा।
हालांकि आप अच्छी तरह से जानते हैं कि ये समस्या पूरे उत्तर भारत की हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब के शहर, यहां तक सीमा-पार, पाकिस्तान के लाहौर में यही हालत है। पिछले साल मैं देहरादून में था, जहां मैं बड़ा हुआ, वहां की हवा भी दिल्ली की हवा जैसी धुएं वाली थी।
मैं बिना किसी बनावट के यह कहूंगा कि किस तरह से वर्तमान प्रधानमंत्री तीन कार्यकाल में इस समस्या को लेकर कुछ नहीं करते हैं ? हम जानते हैं कि इसके तकनीकी और आर्थिक निराकरण हैं। पराली जलाने के विकल्प मौजूद हैं। किसानों को पराली जलाने से दूर रहने के लिए सब्सिडी दी जा सकती है। प्रदूषण कम करने के लिए तकनीकें मौजूद हैं। यह शर्मनाक है क्योंकि यह भोपाल की तरह कई गुना अधिक भयावह है। भोपाल में 2-3 दिसंबर 1984 की रात को एक भयानक त्रासदी हुई थी।
दिल्ली का वायु प्रदूषण एक छोटी त्रासदी है लेकिन इसका बढ़ता हुआ असर ज्यादा है क्योंकि यह पिछले 20 सालों से तीन महीने तक हर दिन हो रही है। यह चौंकाने वाली बात है कि कोई भी केंद्र सरकार इस पर उचित ध्यान नहीं देती है। वे बस राज्य सरकारों पर इसका दोष मढ़ देते हैं।
केरल और उत्तराखंड देश के अलग-अलग किनारों पर स्थित दो राज्य हैं। दोनों को कुदरत ने अपनी खूबसूरती से नवाजा है। फिर भी आजाद भारत में दोनों राज्यों ने भयंकर पर्यावरणीय हादसों का सामना किया है। दोनों ने देश को पर्यावरण के क्षेत्र में कुछ बड़ी हस्तियां भी दी हैं। क्या आपको इसमें कोई दिलचस्प संबंध नजर आता है?
बहुत अच्छा सवाल है। आप केरल के पश्चिमी घाट और उत्तराखंड के हिमालयों की बात कर रहे हैं। हमारी दो महान पर्वत श्रृंखलाएँ, जो जैविक विविधता और जल के भंडार हैं और बहुत समृद्ध सांस्कृतिक सौंदर्य परंपराओं और जंगलों का घर हैं। हालांकि क्योंकि वे पर्वत श्रृंखलाएँ हैं, इसलिए वे पारिस्थितिक रूप से नाजुक भी हैं। व्यवसायिक वनीकरण के कारण यहां जमीन का कटाव हुआ और बाढ़ आई। उसके बाद आपको अनियंत्रित सड़कें भी बनानी हैं और खनन भी करना है।
आजाद भारत की नीतियों ने पर्यावरण और सामाजिक विनाश को चरम पर पहुँचाया है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में मध्य भारतीय वन क्षेत्र को भी इसी तरह की क्रूरता का सामना करना पड़ा होगा। हालांकि केरल और उत्तराखंड, इन दोनों क्षेत्रों में शिक्षा का स्तर अपेक्षाकृत उच्च है। केरल में तो साक्षरता सौ फीसदी है और उत्तराखंड से भी कई वैज्ञानिक, कवि और लेखक निकले हैं।
यह सच है कि इन दोनों क्षेत्रों को पर्यावरण की क्षति के कारण खतरनाक हादसों का शिकार बनना पड़ा, जिनमें तमाम लोगों की जानें गईं। दोनों इलाके जलवायु परिवर्तन के लिहाज से संवेदनशील हैं- हिमालयों में ऐसा ग्लैशियरों के सूखने की वजह से है तो केरल मे पश्चिमी घाटों के समुद्र के नजदीक होने की वजह से है।
दोनों राज्यों में ऐसे सच्चे उल्लेखनीय दूरदर्शी लोग भी हुए हैं, जिन्होंने वहां चल रही भयंकर घटनाओं की ओर आम लोगों का ध्यान खींचने की कोशिशें की।
क्या भारत में कभी पर्यावरणवाद मुख्यधारा का मुद्दा बन सकता है। क्या यूरोप, ऑस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड की तरह यहां भी मुख्यधारा की ग्रींस पार्टी बन सकती है?
नहीं, क्योंकि हमारे यहां ब्रिटेन का वेस्टिंस्टर मॉडल लागू है, जिसमें फर्स्ट-पास्ट - द पोस्ट चुनाव प्रणाली है। हमारे यहां 543 लोकसभा क्षेत्र हैं। अगर हर निर्वाचन क्षेत्र में 6 प्रत्याशी हैं और किसी एक को तीस फीसदी वोट भी मिल जाते हैं तो वह संसद के लिए चुन लिया जाता है।
जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व है, जहाँ आपको हर निर्वाचन क्षेत्र के आधार पर नहीं बल्कि आपके कुल वोट के अनुपात के आधार पर संसद में प्रतिनिधित्व मिलता है।
उदाहरण के लिए, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने ऐतिहासिक रूप से केवल 35-36 फीसदी वोट पाकर भी 300 से अधिक सीटों वाली संसद में बड़ा बहुमत हासिल किया है।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में उन्हें केवल 35 फीसदी सीटें मिलतीं। यहां एक ग्रीन पार्टी कभी भी बहुमत वाली पार्टी नहीं बन सकती लेकिन उन्हें गहरी समझ वाले 7- 8 फीसदी प्रतिबद्ध लोगों का समर्थन मिल सकता है। इतना काफी होगा क्योंकि इससे उन्हें संसद में प्रतिनिधित्व मिल जाएगा। जर्मनी की आधुनिक पर्यावरणीय नीतियों का एक कारण यह भी है कि वहां 1980 में बनी ग्रीन पार्टी को 6 से 10 फीसदी वोट मिलने लगा। कभी- कभी गठबंधन की स्थिति में वह सरकार में भी शामिल हुई। वह अगर सरकार में नहीं भी हो तो भी संसद में वह प्रभावी विपक्ष की भूमिका में रहकर इस मुद्दे को उठा सकती हैं। दूसरे पश्चिमी देशों का सच भी यही है।
सामान्य तौर पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली बेहतर है। भले ही हमारे राष्ट्र के संस्थापक सदस्यों ने संविधान बनाते समय इसे न चुना हो। अपनी जड़ता की वजह से यह तो मुश्किल है कि हम इससे दूर चले जाएं। यही वजह है कि भारत में ग्रीन पार्टी की कल्पना करना मुश्किल है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम हरियाली को लेकर सक्रिय नहीं हो सकते या आंदोलन नहीं कर सकते।
वैसे भी पर्यावरण का विचार तो हरे और लाल का संयोजन है। मेरी किताब में यह दलील दी गई है कि भारत जैसे देश में पर्यावरण की स्थिरता को सामाजिक न्याय से अलग करके देखा नहीं जा सकता। ऐसा इसलिए क्योंकि यह मुद्दा गरीब और हाशिये के लोगों से ज्यादा जुड़ा है, जिन्हें पर्यावरण की आपदाओं का ज्यादा शिकार बनना पड़ता है।