आस्था जब अंतर्मुखी हो तो वह आत्मिक चेतना के उच्चतम स्तर तक ले जाती है और व्यक्ति को मैं-मेरे के भाव से परे समस्त मानव समाज, जीव-जंतु और प्रकृति से जोड़ती है लेकिन उसके बहिर्मुख होने से समाज में विभिन्न प्रकार की विसंगतियां और पाखंड फैलता है। आस्था के बहाने स्वार्थी और मूढ़ स्वभाव वाले धर्म या संस्कृति के नाम पर समाज को पथभ्रष्ट करते हैं, क्योंकि उन्हें धर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता।
आध्यात्मिक ज्ञान की जिज्ञासा भारतीय जनमानस को हिमालय की ओर खींच ले जाती है। इसीलिए हिमालय शताब्दियों से आध्यात्मिक ज्ञान के एकांत साधकों की तपस्थली के रूप में जाना जाता था लेकिन बढ़ते समय के साथ अब वह सब तिरोहित हो गया है। अब यह सैर-सपाटे, तरह-तरह के साहसिक अभियानों, रोमांचक खेलों और व्यावसायिक गतिविधियों का आकर्षण बन गया है। यही कारण है कि आज दुनिया के सर्वोच्च शिखर एवरेस्ट पर पर्वतारोहियों की भीड़ से ट्रैफिक जाम हो जाता है।
ऐसा ही हाल उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में प्रत्येक बारह वर्ष में करीब तीन सप्ताह तक होने वाली नंदा देवी राज जात यात्रा में उमड़ी यात्रियों की भीड़ के दौरान दिखाई देता है। उसके बाद तो यात्रा-पथ में लगे कूड़े के ढेरों से निपटना बड़ा मुश्किल काम हो जाता है।
उत्तराखंड के कुछ सर्वाधिक प्रसिद्ध धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों में से एक नंदा देवी राज जात की शुरुआत सातवीं सदी के आसपास हुई थी। यात्रा में कुमाऊं और गढ़वाल के अलावा देश के अन्य हिस्सों तथा दुनिया के कई देशों से भी लोग शामिल होते हैं।
देश के उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में प्रत्येक बारह वर्ष में करीब तीन सप्ताह तक होने वाली नंदा देवी राज जात एशिया की सबसे लंबी पैदल धार्मिक-सांस्कृतिक यात्रा है। उत्तराखंड में जात का मतलब 'देव-यात्रा' से होता है। गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुमाऊं के कत्यूरी राजवंश की इष्ट देवी मां नंदा को समर्पित लगभग 280 किमी. की यह यात्रा तीन सप्ताह तक कई निर्जन पड़ावों से होकर गुजरती है। चमोली जिले के एक छोटे-से गांव नौटी से प्रारभ होकर अधिकतम 19000 फुट की ऊँचाई तक होते हुए 13500 फुट पर स्थित होमकुंड में समाप्त होने वाली यह संसार की कठिनतम और साहसिक यात्रा है।
नंदा राजजात यात्रा के बाद कूड़े के ढेर लगे
2014 में 14 साल बाद हुई नंदा राजजात यात्रा के बाद रास्तों और चमोली के आखिरी गांव वाण से करीब 14 किलोमीटर आगे ट्रैक रूट पर स्थित बेदिनी बुग्याल में कूड़े के ढेर लग गए थे। समुद्र तल से 11004 फीट ऊंचाई पर स्थित यह बुग्याल ब्रह्म कमल जैसे दुर्लभ पुष्पों, वैतरणी ताल और हिमालय की त्रिशूल और नंदा घूंटी चोटियों के मनोरम दृश्यों के लिए देश-दुनिया में जाना जाता है।
दस वर्ष पहले 2014 में यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए बेदनी बुग्याल में गढ़वाल मंडल विकास निगम ने 250, नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग (निम) उत्तरकाशी ने 250 से भी अधिक बड़े-बड़े टैंट लगाए थे। जबकि यात्रा में शामिल वीआइपी लोगों, आइटीबीपी, निम, एसडीआरआफ जवानों के अपने टैंट अलग थे। इनके अलावा यात्रियों ने भी जहां-तहां अपने छोटे-बड़े टैंट लगा दिए थे। टैंट में पानी घुसने से बचाने के लिए चारों ओर गड्ढे खोदे गए, लेकिन टैंट हटाने के बाद गड्ढे भरे नहीं गए। यात्रियों ने अपने टेंट उखाड़कर वापस भेज दिए, लेकिन अपना ही जहां-तहां बिखरा पड़ा थर्माकोल की प्लेटों, ग्लासों, प्लास्टिक की थैलियों, खाली बोतलों का कचरा साफ नहीं किया।
उस यात्रा के दौरान इस बुग्याल की कोमल घास को जो नुकसान पहुंचा, उससे इसकी तस्वीर ही बिगड़ गई। घास की हरी चादर कई जगह पीली पड़ गई, जबकि कई जगह तो मिट्टी तक उधड़ गई। करीब सवा लाख यात्रियों के एक हजार से अधिक टेंटों और प्लास्टिक कचरे के ढेरों का बोझ झेलने के बाद यह बुग्याल बेहाल हो गया था। उस कचरे को उठाने के लिए गढ़वाल मंडल विकास निगम ने स्वयंसेवकों की मदद ली जिन्होंने हफ्तों तक यहां-वहां बिखरा टनों कचरा एकत्र कर उसका विधिवत निस्तारण किया था।
संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र बचाने के प्रयास
साल 1977 में पर्यटन व्यापार के कारण यहां के पारस्थितिकी तंत्र को होने वाले नुकसान की पहली रिपोर्ट ने पर्यावरण हलकों में चिंता पैदा कर दी थी। इससे चिंतित वैज्ञानिकों और वन्यजीव विशेषज्ञों की सिफारिश पर 1982 में नंदा देवी अभयारण्य को राष्ट्रीय उद्यान के स्तर पर उन्नत कर इसके मुख्य क्षेत्र में सभी ट्रेकिंग, अभियानों और चराई पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बाद नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान को साल 1988 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था।
साल 2005 में नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान में फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान को शामिल किया गया और इसका नाम बदलकर 'नंदा देवी और फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान' कर दिया गया। नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान और फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान दोनों मिलकर नंदा देवी बायोस्फ़ियर रिजर्व बनाते हैं।
यह बायोस्फियर रिजर्व उत्तराखंड के चमोली, बागेश्वर और पिथौरागढ़ इन तीन जिलों के 2,236.74 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और इसके चारों ओर 5,148.57 वर्ग किलोमीटर का बफ़र ज़ोन है। नंदा देवी बायोस्फियर रिजर्व देश के जैव-भौगोलिक क्षेत्र के हिमालयी उच्चभूमि (2 ए) क्षेत्र के अंतर्गत आता है जो साल 2004 से यूनेस्को की विश्व के बायोस्फियर रिजर्व की सूची में दर्ज है।
दुनिया जानती है कि हिमालयी क्षेत्र में लगातार बढ़ते मानव हस्तक्षेप से पर्यावरण और वहां के पारस्थितिकी तंत्र को अपूरणीय हानि हो रही है, इसके बावजूद आस्था के बहाने इस संवेदनशील इलाके में प्रकृति संरक्षण के उलट उसे नुकसान पहुंचाने वाले बड़े-बड़े धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजन, तीर्थ यात्राओं और मेलों के अलावा साहसिक अभियानों, रोमांचक खेलों और व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा रहा है।
कहां तो आत्मोद्धार के लिए आध्यात्मिक साधना व तप एकांतवास में और श्रद्धापूर्वक अत्यंत पवित्र भाव से तीर्थ यात्रा की जाती थी और कहां अब इतने बड़े तामझाम व जमावड़े के साथ की जा रही है। जिसमें अध्यात्म, तप-साधना और श्रद्धा तिरोहित हो गई है। तीर्थों का स्वरूप बदल कर मौज-मस्ती करने के पर्यटन स्थल जैसा होता जा रहा है।
इधर 2026 में प्रस्तावित नंदादेवी राजजात यात्रा को भव्य रूप में आयोजित करने के प्रयास शुरू हो गए हैं। इसके लिए गठित समिति के पदाधिकारियों तथा यात्रा मार्ग पिंडर क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों ने उप जिलाधिकारी थराली (चमोली) के माध्यम से जिलाधिकारी चमोली को एक सुझाव एवं मांग पत्र भेजा है। जिसमें कहा गया है कि राजजात यात्रा का सबसे अधिक दबाव नारायणबगड़, थराली और देवाल विकास खंडों पर रहता है।
इससे पहले 2014 में आयोजित राजजात यात्रा में लाखों की संख्या में नंदा भक्तों ने यात्रा में शिरकत की थी, तमाम सरकारी तामझाम के बावजूद भी यात्रा के दौरान कई कठनाइयां सामने आई थीं। जिनसे सबक लेना चाहिए। इस बार की राजजात यात्रा में पिछली यात्रा से काफी अधिक लोगों के प्रतिभाग करने की संभावना है लेकिन अब यात्रा के आयोजन में दो वर्ष से भी कम समय रह गया है और शासन, प्रशासन स्तर पर अपेक्षित कार्यवाही शुरू नहीं हो पाई है।
समिति ने यात्रा मार्ग की सभी मोटर सड़कों, पैदल मार्गों, नदी-नालों में पुल, पुलियाओं को समय रहते निर्मित करने, तय पड़ावों और उनके आसपास के गांवों में समुचित आवास, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शौचालयों, पार्किंग आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए विस्तृत कार्ययोजना तैयार कर इन पर युद्ध स्तर पर कार्य करने की जरूरत बताई गई है।
अब 'हिमालयी कुंभ' कही जा रही भगवती नंदा के नाम पर की जाने वाली राज जात में शामिल होने वाले लोगों के लिए अधिकाधिक सुख-सुविधाएं जुटाकर उसे भव्य स्वरूप देने के प्रयास तो किए जा रहे हैं लेकिन इसमें देश-दुनिया से आने वाले लाखों लोगों की अनियंत्रित भीड़ हिमालय के जल, जंगल, जमीन, जन और पर्यावरण व पारस्थितिकी तंत्र के लिए हानिकारक होगी, इसकी चिंता किसी को नहीं।
लेख में व्यक्त लेखक के निजी विचार हैं