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पर्यावरण

यह अरावली का नहीं, उत्तर-पश्चिम भारत का डैथ वारंट जारी किया गया है?

अरावली के उत्तरी विस्तार दिल्ली रिज को विशेष रूप से दिल्ली का 'ग्रीन लंग्स' कहा जाता है, जो शहर को थार की गर्म हवाओं से बचाता है

Shyam Singh Rawat

अरावली की नई परिभाषा अरावली को ही नहीं, बल्कि सारे देश को व्यापक स्तर पर स्थायी नुकसान पहुंचाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय की सिफारिश को स्वीकार किया कि केवल वे ही भू-आकार/हिल्स जिन्हें स्थानीय भिन्नता से 100 मीटर या अधिक ऊंचाई है, उन्हें ही 'अरावली हिल्स' के रूप में माना जाएगा। 

इस परिभाषा के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से शुरू होकर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात तक विस्तृत 692 कि.मी. लंबी पर्वत शृंखला की 100 मीटर से नीचे की छोटी पहाड़ियां और ढलानें अब ‘अरावली’ नहीं मानी जाएंगी। विशेषज्ञों के अनुसार, इस नई ऊंचाई-आधारित परिभाषा से लगभग 90 प्रतिशत अरावली क्षेत्र ‘अरावली’ के दायरे से बाहर हो सकता है। 

इसका अर्थ यह है कि अरावली को पिछले तीन दशकों में मिला कानूनी संरक्षण अब खत्म हो गया है और इसके ज्यादातर क्षेत्र खनन कारोबारियों के लिए खोल दिए जाएंगे। यानी सत्ता चाहे तो इस 100 मीटर से निचले इलाकों को अपने वित्त पोषकों के हवाले कर उससे ऊंची चोटियों को धराशाही करने की छूट दे सकती है। इससे वे हिस्से अब पुराने प्रोटेक्शन नियमों से मुक्त हो सकते हैं और उन पर खनन, निर्माण और अन्य विकास गतिविधियों का दबाव बढ़ सकता है। 

अरावली पर्वत शृंखला थार मरुस्थल और पूर्वी मैदानों के बीच एक प्राकृतिक अवरोधक का काम करती है जो पश्चिम से आने वाली गर्म और शुष्क हवाओं (लू और धूल भरी आंधियां) को काफी हद तक रोकती या धीमा करती है, जिससे राजस्थान के पूर्वी भाग, हरियाणा और दिल्ली में इन हवाओं का असर कम होता है।

यह देश के उत्तर-पश्चिम में रेगिस्तान के फैलाव को रोकने, भू-जल रिचार्ज और हवा को साफ रखने का काम करती है। इस विस्तृत भू-भाग में जलवायु को संतुलित रखने में अरावली पर्वतमाला की भूमिका महत्वपूर्ण है।

इससे दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और पूर्वी राजस्थान में धूल की आंधियां कम आती हैं, तापमान कुछ हद तक नियंत्रित रहता है। जिससे गर्मियों में यह 2-3 डिग्री सेल्सियस तक कम प्रभावी हो जाता है और मरुस्थलीकरण की गति धीमी पड़ती है।

अरावली के उत्तरी विस्तार दिल्ली रिज को विशेष रूप से दिल्ली का 'ग्रीन लंग्स' कहा जाता है, जो शहर को थार की गर्म हवाओं से बचाता है। यदि अरावली में खनन वृद्धि से इसकी हरियाली का क्षरण होता रहा तो यह क्षेत्र अर्ध-मरुस्थलीय हो सकते हैं।

दिल्ली-एनसीआर और आसपास के इलाकों में धूल, जल संकट और पारिस्थितिक असंतुलन की आशंका बढ़ सकती है। प्रदूषण बढ़ेगा और गर्मी का असर और भी अधिक तीव्र होगा।

हालांकि अरावली अब बहुत ऊंची नहीं रही और कुछ जगहों पर गैप हो गए हैं, इससे यह पश्चिम से आने वाली गर्म आंधियों को पूरी तरह से रोक नहीं देती लेकिन इसका महत्वपूर्ण मॉडरेटिंग प्रभाव अवश्य है।

यही कारण है कि हाल के वर्षों में अरावली की रक्षा के लिए 'अरावली बचाओ' अभियान और अफ्रीका में सहारा मरुस्थल के विस्तार को रोकने के लिए शुरू की गई 'ग्रेट ग्रीन वॉल पहल' से प्रेरित भारत सरकार की महत्वाकांक्षी पर्यावरणीय पहल 'अरावली हरित दीवार परियोजना' में अरावली पर्वत शृंखला के आसपास 5 कि.मी. चौड़ी और लगभग 1,400 कि.मी. लंबी हरित पट्टी विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।

क्या यह आदेश पारित करने से पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जलवायु परिवर्तन तथा पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकी तंत्र के विषय विशेषज्ञों की राय जानने की कोशिश की? और, वह भी तब जबकि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में लगातार बढ़ते वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआई से सांस और फेफड़े की बीमारियां फैल रही हैं, इनके रोगियों की बढ़ती भीड़ सम्हालने में अस्पतालों को कितनी मशक्कत करनी पड़ रही है, यह जगजाहिर है। यह एक तरह से मानव विनाश का संकेत है।

उधर, दूसरी तरफ छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह सहित, भारत में हाल के वर्षों में मुख्य रूप से असम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा में व्यापक स्तर पर वनों की कटाई लगातार जारी है। 

ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच की 2024-2025 रिपोर्ट्स के अनुसार, 2001-2024 के बीच भारत के वनाच्छादित क्षेत्र में कुल 60 प्रतिशत का नुकसान इन्हीं उत्तर-पूर्वी राज्यों में हुआ, जिसमें असम में सबसे अधिक नुकसान दर्ज किया गया। जिसके कारणों में झूम खेती, इंफ्रास्ट्रक्चर विकास, अवैध कटान और कृषि विस्तार शामिल हैं।

इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट (आईसीएफआर) 2023 के अनुसार कर्नाटक में वन क्षेत्र में बड़ी गिरावट दर्ज की गई। यह देशभर में वनों का दूसरा सबसे बड़ा नुकसान हुआ है। विकास परियोजनाएं, खनन और कृषि इसके प्रमुख कारण हैं। ओडिशा और झारखंड में खनन गतिविधियाँ (कोयला, बॉक्साइट आदि) के कारण व्यापक वन कटाई दर्ज हुई है। ये राज्य मध्य भारत के माइनिंग बेल्ट का हिस्सा हैं।

महाराष्ट्र और तमिलनाडु के पश्चिमी घाट क्षेत्र में हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स, खनन, प्लांटेशन और इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण वन क्षेत्र में कमी आई हैI

आईसीएफआर और अन्य रिपोर्ट्स में इन राज्यों के अधिकृत वन क्षेत्र में नकारात्मक वृद्धि दर्ज हुई है। ये आंकड़े मुख्य रूप से आईसीएफआर 2023 में कुछ राज्यों में वनाच्छादित क्षेत्र में कमी देखी गई है और ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच की हालिया डेटा (2024-2025 तक) पर आधारित हैं, जो सैटेलाइट इमेजरी से वनाच्छादित क्षेत्र को ट्रैक करती है। उत्तर-पूर्वी भारत में यह समस्या सबसे गंभीर है, जहाँ प्राकृतिक जंगलों का स्थायी नुकसान हो रहा है।

न्यायालय के इस ताज़ा फैसले का शायद एक कारण यह भी है कि अरावली संरक्षण के लिए कोई ठोस तथा अलग से कानून नहीं है। जबकि 1992 का कानून सीमित था; बाद के कोर्ट फैसलों को खनन माफिया ने तोड़ा। 

यह सब देखते हुए अरावली पहाड़ बचाने का अलग कानून अब जरूरी है। न्यायपालिका औद्योगिक दबाव में खनन की छूट दे रही है, जिससे अन्य राज्यों में हो रहे वनों के सफाये जैसा परिदृश्य अरावली पर्वत शृंखला में भी दिखाई देगा।

आज नदियों और तालाबों को बचाने के प्रयास सरकारी तथा गैर सरकारी दोनों ही स्तरों पर किये जा रहे हैं तो देर-सवेर वे अधिक नहीं तो कम ही सही, बहाल हो सकते हैं, लेकिन ध्वस्त हो गए पहाड़ों को पुनर्स्थापित कदापि नहीं किया जा सकता। खनन से नष्ट पहाड़ कभी पुनर्जीवित नहीं होते। इसीलिए अरावली फिर वैसी नहीं बन सकती।

सरकारों द्वारा वशीकरण योजना के तहत विकसित या रोपित वनों तथा प्राकृतिक रूप से निर्मित जंगलों में जो धरती-आसमान जितना अंतर होता है, उसे हमें समझना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए, क्योंकि यह मामला सिर्फ अरावली पर्वत शृंखला के संरक्षण का नहीं बल्कि सारे देश की जलवायु नियंत्रित करने वाले प्रकृति प्रदत्त बड़ी प्रणाली को यथावत बचाने की जरूरत का है। जिसके तहस-नहस होने से यह देश भयंकर आपदाओं के दुष्चक्र में फँस जाएगा, यह निश्चित है। यदि देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश उत्तर-पश्चिम भारत के डैथ वारंट पर हस्ताक्षर करने जैसा सिद्ध होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)