जमीन का मुद्दा हमारी पहचान से गहराई से जुड़ा है। दरअसल जंगल, नदी, ताल, चरागाह आदि सब जमीन है। खेती की जमीन बहुत कम है। जमीन यानी मिट्टी खोने का मतलब अपनी आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान खो देना। फ्लैट आपको तमाम प्रदूषण झेलता शहरी बनाता है, लेकिन आप असली हिमाली-पहाड़ी या उत्तराखण्डी नहीं रह जाते। आज हमारी लगभग पांच प्रतिशत कृषि भूमि बची होगी। 1958-1964 का भूमि बन्दोबस्त 40 साल के लिए था। नारायण दत्त तिवारी को एक बैठक में जब भूमि बन्दोबस्त की जरूरत बताई गई तो उन्होंने साफ कहा कि यह कठिन काम है और प्रभावशालियों के कब्जे के कारण यह और मुश्किल हो गया है। जो सेटलमेंट 2002-03 तक हो जाना था, वह अभी नहीं हुआ। राज्य को पता नहीं कि 60 वर्षों में कितनी कृषि भूमि गैरकृषि कामों में चली गई! सरकारें जानना भी नहीं चाहतीं।
हमारी समग्र पहचान पहाड़ (जमीन, पेड़, पशु-पक्षी, चरागाह, धारा-नौला-नदी, नहर, मुर्दाघाट, घराट, देवस्थान का समुच्चय) से बनती है। तराई-भाबर-दून इससे अभिन्न हैं। इन्हीं में हमारे गांव-समुदाय बसे-विकसित हुए। हम इन साझा संसाधनों (कॉमन्स) में कभी बेहद समृद्ध थे। नए राज्य में इनकी सुरक्षा और पुनर्जीवन की आशा जगी, लेकिन मामूली राजनीति ने इसे कामयाब नहीं किया। जमीन के गैरकृषि उपयोग को रोकने के लिए तिवारी और खंडूरी सरकारों ने निर्णय लिए, लेकिन बाद की सरकारों ने उन्हें कमजोर कर दिया। युवाओं, महिलाओं और राजनीतिक दलों ने भू-अधिनियम बनाने की मांग बार-बार उठाई, पर कानून नहीं आया। इसके बजाय समान नागरिक संहिता जैसे राष्ट्रीय मुद्दे को राज्य में लागू किया गया, जबकि भू-अधिनियम से कुछ जमीन बच सकती थी।
अब खनन धरती को, सड़क-बांध नदी को और शराब समाज को नष्ट कर रही है। यह राजनीति संचालित है। पूरी प्रकृति खंडित कर दी है। पहाड़ों में खेती-बागवानी सिमट रही है, पलायन बढ़ा है। देहरादून-हल्द्वानी जैसे शहरों में आकर प्रवासी महिलाएं स्वास्थ्य समस्याओं से जूझतीं हैं। जंगलों के संसाधनों का मूल्य गिरने से ग्रामीणों की जीवनशैली और कठिन होती जा रही है। राज्य का 71 प्रतिशत वन क्षेत्र और 45 प्रतिशत जंगल हैं। राज्य ने जंगलों के प्रबंधन में ग्रामीणों को हिस्सेदारी देने का साहस नहीं किया, जे.एफ.एम. में जरूर पंचायती जंगलों को लपेट लिया। ग्रामीण संरक्षित जंगलों को नहीं मांग रहे। बल्कि चाहते हैं कि गांव-स्तर पर वन पंचायतें दुरस्त बनें, जिन्हें वे अपने स्तर पर संभाल सकें।
(लेखक इतिहासकार हैं एवं पहाड़ के संपादक हैं)