पर्यावरण

प्रकृति से बिगड़ता रिश्ता: 220 सालों में 60 फीसदी तक कमजोर हुआ नाता

प्रकृति से हमारा रिश्ता सिर्फ जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों तक सीमित नहीं है, यह हमारी संस्कृति, भाषा, अनुभव और भावनाओं का हिस्सा है

Lalit Maurya

दुनिया में विकास की अंधी दौड़ ने एक ऐसी होड़ शुरू कर दी है जिससे इंसान प्रकृति से दूर होता जा रहा है। आज शहर बस कंक्रीट का जंगल रह गए हैं, स्थिति यह है कि जो लोग कभी पक्षियों की चहचहाहट से जागा करते थे, वो अब मोबाइल के अलार्म से उठते हैं।

देखा जाए तो विकास की राह पर चलते हुए हम प्रकृति से अपने रिश्तों को भूलते जा रहे हैं।

रिसर्च से पता चला है कि बीते 220 वर्षों में इंसान और प्रकृति के बीच का रिश्ता धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। हालात यह हैं कि यह नाता 60 फीसदी तक कमजोर पड़ चुका है। यह चौंकाने वाली जानकारी यूनिवर्सिटी ऑफ डर्बी से जुड़े प्रोफेसर माइल्स रिचर्डसन के नेतृत्व में किए एक अध्ययन में सामने आई है।

इस अध्ययन के नतीजे जर्नल अर्थ में प्रकाशित हुए हैं।

अध्ययन में सामने आया है कि 1800 से 2020 के बीच इंसानों का प्रकृति से जुड़ाव लगातार घटता गया है और अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाली पीढ़ियां शायद प्रकृति को सिर्फ किताबों और डिजिटल स्क्रीन पर ही देख पाएंगी।

प्रकृति से दूरी, संकट की जड़

अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला है, आज हम जिस पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं, उसकी एक गहरी वजह, प्रकृति से कटते हमारे रिश्ते हैं। देखा जाए तो जब इंसान प्रकृति को महसूस करना और सराहना छोड़ देता है, तो उसके संरक्षण की भावना भी कमजोर पड़ जाती है।

भारत का उदाहरण ले तो कभी शहरों, नगरों के नाम भी प्राकृतिक चीजों पर रखे जाते थे। संस्कृति से साहित्य तक में प्रकृति का समावेश होता था, लेकिन यह सम्बन्ध कहीं न कहीं विच्छेद होता जा रहा है। शायद यही 'एन्थ्रोपोसीन' यानी मानव युग है।

प्रकृति-इंसान के संबंधों में आती इस दरार को समझने के लिए रिचर्डसन और उनकी टीम ने एक अनूठा कंप्यूटर मॉडल बनाया है, जिसमें 1800 से 2020 के बीच शहरीकरण, परिवारों में अनुभवों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत, और प्राकृतिक परिवेश से जुड़ाव जैसे कारकों का विश्लेषण किया गया है।

शब्दों में भी दिखता प्रकृति से मोहभंग

स्टडी में पाया गया कि बीती दो सदियों में साहित्य और आम बोलचाल की भाषा में “नदी”, “फूल”, “काई” जैसे प्राकृतिक शब्दों का उपयोग 60 फीसदी तक कम हो गया। यह इस बात का संकेत है कि हमारी संवेदनाएं और सोच अब प्रकृति से कितनी दूर जा चुकी हैं।

इतिहास पर नजर डालें तो सभ्यता और संस्कृति के आरंभिक दिनों में मानव प्रकृति की गोद में फलता-फूलता था। धीरे-धीरे वह इससे विलग होता जा रहा है।

भविष्य में और कमजोर होगा यह रिश्ता

मॉडल के अनुसार, अगर यह प्रवृत्ति जारी रही, तो आने वाली पीढ़ियां प्रकृति को 'अनुभव' ही नहीं कर पाएंगी। शहरीकरण और परिवारों में प्रकृति से जुड़ी परंपराओं का अभाव इस 'अनुभव के विलुप्त होने' को और गहरा करेगा।

देखा जाए तो सिर्फ पार्क बनाने या लोगों को बाहर खुले में जाने के लिए प्रेरित करना ही काफी नहीं। अगर शहरों को प्रकृति से फिर से जोड़ना है, तो उन्हें आज से 10 गुना ज्यादा हरा-भरा बनाना होगा।

स्टडी में सामने आया है कि 1800 से 2020 के बीच किताबों में प्रकृति से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल 60.6 फीसदी तक घट गया था, और 1990 में यह अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। हालांकि अब स्थिति थोड़ी बेहतर है और यह गिरावट 52.4 फीसदी पर आ गई है।

देखा जाए तो प्रकृति से हमारा रिश्ता सिर्फ जंगलों, पेड़ों, पहाड़ों तक सीमित नहीं है, यह हमारी संस्कृति, भाषा, अनुभव और भावनाओं का हिस्सा है। यह सच है कि इसे पुनर्जीवित करना आसान नहीं होगा, लेकिन प्रयास किए जाएं तो यह काम नामुमकिन भी नहीं।