विकास या विनाश की राह पर मानवता; फोटो: आईस्टॉक 
पर्यावरण

एन्थ्रोपोसीन: भूमि उपयोग में आ रहे बदलावों से गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही 303.8 करोड़ हेक्टेयर भूमि

Lalit Maurya

यह एन्थ्रोपोसीन यानी मानव युग है, जो मनुष्य और प्रकृति के बीच बढ़ती दूरी को दर्शाता है। बढ़ती महत्वाकांक्षा आज इस कदर हमारी प्रजाति पर हावी हो चुकी है कि वो अपने विनाश से भी गुरेज नहीं कर रहा। कभी प्रकृति का अभिन्न हिस्सा रहा मनुष्य आज खुद उसका बेतहाशा दोहन करने में लगा है। ऐसा किसी एक के साथ नहीं हो रहा, बात चाहे जल, जंगल, जमीन या हवा की हो सभी प्राकृतिक संसाधन इंसानी दबाव का सामना कर रहे हैं।

इस कड़ी में भूमि पर बढ़ते इंसानी प्रभावों को लेकर की गई एक नई रिसर्च से पता चला है कि बढ़ती आबादी, कृषि, वन विनाश, शहरीकरण, और औद्योगिक गतिविधियों के चलते दुनिया में 23 फीसदी जमीन गहरे दबाव का सामना कर रही है।

इसका मतलब है कि दुनिया में 303.8 करोड़ हेक्टेयर जमीन, भूमि उपयोग में आते बदलावों की वजह से गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है। अंतराष्ट्रीय संगठन द नेचर कन्जर्वेंसी से जुड़े शोधकर्ताओं के मुताबिक यह दबाव 200 देशों को प्रभावित कर रहा है। इस अध्ययन के नतीजे अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर साइंटिफिक डाटा में प्रकाशित हुए हैं।

अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात की भी आशंका जताई है कि भूमि उपयोग में आता यह बदलाव इंसानी प्रभाव से अब तक अछूती बची 46 करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा भूमि को प्रभावित कर सकता है। गौरतलब है कि यह वो अनछुए प्राकृतिक आवास हैं जो पर्यावरण, जैवविविधता और कार्बन भंडारण के दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण हैं।

अध्ययन के मुताबिक प्रकृति को बचाने के लिए यह पता लगाना महत्वपूर्ण है कि भूमि में कहां परिवर्तन हो सकता है। आवासों को होते नुकसान की भविष्यवाणी करने के पिछले प्रयासों में मुख्य रूप से वन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया गया था। हालांकि इस नुकसान से जुड़े सभी कारणों पर विचार नहीं किया गया।

यही वजह है कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भूमि उपयोग में आते बदलावों का एक किलोमीटर रिजॉल्यूशन का वैश्विक मानचित्र तैयार किया है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने कन्वर्जन प्रेशर इंडेक्स तैयार किया है, जो दर्शाता है कि भूमि में किस जगह बदलाव होने की आशंका है। यह इंडेक्स मनुष्यों द्वारा किए पिछले बदलावों को भविष्य में विकास की भविष्यवाणी करने वाले मानचित्रों के साथ जोड़ता है।

विकास या विनाश की राह पर मानवता

मतलब की सीपीआई केवल भूमि के आवरण में आते बदलावों को देखने के बजाय यह मापने का एक नया तरीका है कि मानवीय गतिविधियां भूमि पर कितना दबाव डाल रही हैं। अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कृषि, ऊर्जा, खनन, तेल और गैस के साथ औद्योगिक गतिविधियों की वजह से भूमि में आते बदलावों का अध्ययन किया है।

बता दें कि पिछले ढाई दशकों में इंसानी गतिविधियों की वजह से प्राकृतिक आवासों में आते बदलावों में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है। नतीजन इसकी वजह से वैश्विक जैव विविधता और प्रकृति से इंसानों को मिलने वाले लाभों में भारी कमी आई है। हाल में किए एक अन्य अध्ययन से भी पता चला है कि ऊर्जा, खनन और संबंधित बुनियादी ढांचे के कारण 2050 तक भूमि उपयोग में 40 फीसदी तक बदलाव होने की आशंका है।

रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर 23 फीसदी भू-क्षेत्र गहरे दबाव का सामना कर रहा है। अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीपों में 200 देशों में ऐसे क्षेत्र हैं जो बड़े पैमाने पर होते बदलावों का सामना कर रहे हैं। वहीं मलेशिया सहित 48 देशों में यह दबाव बहुत ज्यादा है। इनमें 19 अफ्रीकी देश शामिल हैं, जबकि 13 देश मध्य अमेरिका में और 16 पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया में हैं।

ऐसे में सीमित संसाधनों के साथ, हमें आवासों को और अधिक नुकसान से बचाने के लिए कहीं ज्यादा प्रयास करने की आवश्यकता है। उन क्षेत्रों पर ध्यान देना जरूरी है, जहां भूमि भारी दबाव का सामना कर रही है और उनको बचाने के लिए संरक्षण के सक्रिय प्रयासों की आवश्यकता है।

गौरतलब है कि भारत सहित 200 देशों ने भूमि और जैव विविधता को होने वाले नुकसान को ‘रोकने' के लिए 2022 में एक ऐतिहासिक समझौता किया था। इस समझौते को ‘कुनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क’ के नाम से जाना जाता है। इसके तहत 2030 तक कम से कम 30 फीसदी भूमि, जल और तटीय एवं समुद्री क्षेत्रों में जैव विविधता के संरक्षण और प्रबंधन का लक्ष्य रखा गया था।

लेकिन देखा जाए तो जिस रफ्तार से हम इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, उसको देखते हुए इन लक्ष्यों को हासिल करना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है।

देखा जाए तो जिस तरह से मनुष्य प्रकृति पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास कर रहा है, उसकी हम इंसानों को भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है। इसके प्रभाव अब खुलकर सामने आने लगे हैं, जिनमें जलवायु परिवर्तन से लेकर जीवों का विलुप्त होना तक शामिल है। ऐसे में यदि हम आज नहीं चेते तो हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।