ऊर्जा

नई सरकार, नई उम्मीदें: अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य हासिल करने में कहीं 57 साल न लग जाएं!

Nivit Kumar Yadav, Binit Das, Rahul Jain, Arvind Poswal, Vaani Khanna

केंद्र की नई गठबंधन सरकार शपथ ले चुकी है। अब आगे सरकार की नीतियां और उनका तय किया गया रास्ता हमारा भविष्य तय करेगा। इस नई सरकार से देश को आखिर किन वास्तविक मुद्दों पर ठोस काम की उम्मीद करनी चाहिए ? नई सरकार, नई उम्मीदें नाम के इस सीरीज में हम आपको ऐसे ही जरूरी लेखों को सिलसिलेवार प्रस्तुत किया जा रहा है।

भारत के नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र को बढ़ावा देने के प्रयासों ने न सिर्फ थर्मल पावर प्लांट्स से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में मदद की है, बल्कि आर्थिक विकास को गति दी है। इन प्रयासों ने बिजली की पहुंच और आपूर्ति को भी बेहतर बनाया है।

नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, बड़े जल विद्युत संयंत्रों को छोड़कर स्थापित क्षमता के मामले में भारत अब वैश्विक स्तर पर चौथे स्थान पर है, जिसकी क्षमता 145 गीगावाट है। जैव ऊर्जा, पवन और सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने वालीं सरकारी योजनाओं ने इस तरक्की में अहम भूमिका निभाई है। इस विकास को बनाए रखने के लिए, भारत को स्वच्छ ऊर्जा अपनाने में आने वालीं रुकावटों का गहन मूल्यांकन करने की जरूरत है। इस दौरान हर क्षेत्र में कार्यान्वयन से जुड़ी चुनौतियों पर ध्यान देना होगा। साथ ही, पवन, सौर और जैव ऊर्जा के लिए मांग पर आधारित बाजार बनाने और पूरे वैल्यू चेन को कवर करने वाले घरेलू उद्योग को बढ़ावा देने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।

कंप्रेस्ड बायोगैस: संभावनाओं का द्वार

संपीडित जैव गैस यानी कंप्रेस्ड बायोगैस (सीबीजी) एक स्वच्छ ईंधन है जिसे जीवाश्म ईंधन से नहीं बनाया जाता है। इसे खेतों से निकलने वाले अवशेषों और ठोस कचरे से बनाया जाता है। यह आयातित कंप्रेस्ड नेचुरल गैस (सीएनजी) का एक बेहतर विकल्प है, क्योंकि सीबीजी और सीएनजी दोनों के गुण और दहन क्षमता लगभग एक समान होते हैं। भारत सरकार देशभर में 5,000 सीबीजी संयंत्र स्थापित करने की योजना बना रही है। इस योजना को 'सतत विकल्प किफायती परिवहन (सातत)' कहते हैं। लेकिन, इस क्षेत्र में कुछ चुनौतियां भी हैं। 

कई सीबीजी संयंत्र अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर रहे हैं। इन संयंत्रों को चलाने के लिए पर्याप्त मात्रा में कच्चे माल (अवशेष) की कमी है। सीएनजी का बुनियादी ढांचा सीमित होने के कारण सीबीजी संयंत्रों तक गैस पाइपलाइन बिछाना मुश्किल है, जिससे गैस की बिक्री प्रभावित होती है। संयंत्रों के आसपास गैस पाइपलाइन का विस्तार करने से पूरे गैस का उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में ट्रैक्टरों और दोपहिया वाहनों को सीबीजी में बदलने के लिए प्रोत्साहन देने से इस ईंधन की मांग बढ़ सकती है।

कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों को जलाने के लिए जैव ईंधन (बायोमास) की नियमित सप्लाई नहीं हो पा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि खेतों से पराली और अवशेष इकट्ठा करने के लिए पर्याप्त मशीनें नहीं हैं। गर सरकार इस तरह की मशीनों को भारत में ही बनाने को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी दे तो इससे काफी मदद मिलेगी। साथ ही, किसान-उत्पादक संगठनों को भी इन अवशेषों को इकट्ठा करने में लगाया जा सकता है। इससे बीच वाली कंपनियों की जरूरत कम हो जाएगी और किसानों में भी मुनाफे का बंटवारा हो सकेगा।

सीबीजी बनाने में जो बचा हुआ पदार्थ निकलता है, उसे जैविक खाद 'फर्मेंटेड ऑर्गेनिक मैन्योर' (एफओएम) कहते हैं। लेकिन, ज्यादातर लोगों को एफओएम के बारे में जानकारी नहीं है। कृषि संस्थानों को एफओएम को और बेहतर बनाने के लिए मानक संचालन प्रक्रियाएं विकसित करने चाहिए और किसानों को इसे खेतों में इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण देना चाहिए। साथ ही, खेतों से निकलने वाले अवशेषों को इकट्ठा करने के लिए किसान संगठनों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि वे बिचौलियों की भूमिका ले सकें और किसानों को उचित मुनाफा मिल सके।

सीबीजी (संपीडित जैव गैस) को भारत सरकार ने बैंकों से लोन लेने के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में तो रखा है, लेकिन कम मुनाफा और सीबीजी बनाने की प्रक्रिया में एकरूपता की कमी का हवाला देकर, बैंक इन प्रोजेक्ट्स को फंड देने में दिलचस्पी नहीं दिखाते। कई बैंक सीबीजी लोन के लिए ज्यादा संपत्ति (कोलैटरल) की मांग करते हैं और ब्याज दर भी 11.5 प्रतिशत तक ऊंची रखते हैं। अगर सरकार कोई लोन गारंटी प्रोग्राम शुरू करे, तो इससे बैंकों को लोन देने में आसानी होगी क्योंकि उन्हें पैसा वापस न मिलने का जोखिम कम हो जाएगा।

सीबीजी संयंत्रों के रखरखाव और चलाने के लिए कुशल कर्मचारियों की भी कमी है। इससे गैस रिसाव या संयंत्र की खराब कार्यक्षमता जैसी समस्याएं हो सकती हैं। राष्ट्रीय कौशल प्रशिक्षण संस्थानों के माध्यम से बायोगैस विकास पर कौशल विकास कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए ताकि सीबीजी संयंत्रों को चलाने के लिए प्रशिक्षित कर्मचारी मिल सकें।

पवन ऊर्जा: निवेशकों के लिए आकर्षक बनाना होगा

भारत की कुल नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में पवन ऊर्जा का योगदान 32 प्रतिशत या 45 गीगावाट है, जो सौर ऊर्जा के बाद दूसरे स्थान पर है। यह काफी कम है। भारत में पवन ऊर्जा से 700 गीगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है और केंद्र सरकार का लक्ष्य 2030 तक पवन ऊर्जा क्षमता को 172 गीगावाट तक बढ़ाना है, जिसमें 140 गीगावाट जमीन परियोजनाओं से और 32 गीगावाट समुद्री परियोजनाओं से आएगा।

यह लक्ष्य सिर्फ 6 साल में हासिल करना काफी मुश्किल लगता है, खासकर यह देखते हुए कि भारत ने 2023 में केवल 2.2 गीगावाट ही बढ़ाया। इस रफ्तार से भारत को 172 गीगावाट हासिल करने में 57 साल लग जाएंगे।

एक्शन प्वॉइंट

सीबीजी और पवन ऊर्जा को बढ़ावा देना

कंप्रेस्ड बायोगैस (सीबीजी) संयंत्रों के आसपास गैस पाइपलाइन का विस्तार: इससे स्वच्छ ईंधन का पूरा उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है

अपतटीय पवन ऊर्जा परियोजना को पायलट आधार पर शुरू करना, इससे निवेशकों की आशंकाएं कम होंगी

पुराने पवन फार्मों में नई, अधिक कुशल टर्बाइन लगाने के लिए दिशानिर्देश और प्रोत्साहन प्रदान करना, इससे बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ेगी

इसलिए, नई सरकार को उन चुनौतियों का आकलन करने और उन्हें दूर करने की जरूरत है जो पवन ऊर्जा क्षेत्र के विकास में बाधा डालती हैं। उदाहरण के लिए, मौसम के कारण साल भर में पवन ऊर्जा उत्पादन अलग-अलग होता रहता है। तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक के डेवलपर्स (विकासकर्ता) बताते हैं कि पवन ऊर्जा का उत्पादन आमतौर पर मई, जून और जुलाई में सबसे अधिक होता है और दिसंबर और जनवरी में सबसे कम होता है।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि पवन ऊर्जा आपूर्ति में उतार-चढ़ाव कारोबार को बाधित न करें, केंद्र सरकार ने 1992 में एक वार्षिक ऊर्जा बैंकिंग प्रणाली शुरू की थी, जिसमें ग्रिड ऊर्जा बैंक के रूप में कार्य करता था। इस प्रणाली ने डेवलपर्स को अपनी अतिरिक्त आपूर्ति को ग्रिड में डालने और कमी की अवधि के दौरान वापस लेने की अनुमति दी थी।

हालांकि, 2019 में, सरकार ने इस प्रणाली को खत्म कर दिया क्योंकि अनियमित आपूर्ति 'ग्रिड असंतुलन' का कारण बन रही थी। हालांकि, तब से मासिक बैंकिंग प्रणाली लागू है, लेकिन नए डेवलपर्स इसे आकर्षक नहीं मानते हैं। इस परिदृश्य को कम उत्पादन अवधि के दौरान कुछ और महीनों के लिए ऊर्जा बैंक के दायरे को बढ़ाकर सुधारा जा सकता है।

सरकार को पवन ऊर्जा क्षमता के विस्तार की प्रक्रिया को भी आसान बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए, जमीन अधिग्रहण जमीनी पवन ऊर्जा परियोजनाओं के लिए एक बड़ी बाधा है। जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया को सरल बनाकर, भूमि-उपयोग नीतियों को स्पष्ट करके और जमीन मालिकों को उचित मुआवजा सुनिश्चित करके इस समस्या को दूर किया जा सकता है।

समुद्री पवन ऊर्जा के मामले में, भारत का विशाल समुद्र तट 70 गीगावाट पवन ऊर्जा उत्पादन करने की क्षमता रखता है। लेकिन अभी तक भारत में कोई भी समुद्री पवन ऊर्जा परियोजना नहीं है। इस साल फरवरी में, सरकार ने तमिलनाडु और गुजरात में 4,000 मेगावाट की अपतटीय पवन ऊर्जा परियोजनाओं के लिए समुद्री जमीन के पट्टे के अधिकारों के लिए टेंडर जारी किए थे। लेकिन नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) के अधिकारियों का कहना है कि निवेशकों की ओर से बोली प्रक्रिया को अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली।

निवेशकों की आशंकाओं को दूर करने के लिए, सरकार पायलट आधार पर एक परियोजना शुरू कर सकती है और अपतटीय पवन ऊर्जा की लाभप्रदता को साबित कर सकती है। उसी समय, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए गंभीर पर्यावरण प्रभाव आकलन और शमन रणनीतियां लागू करनी चाहिए। अन्य देशों के अनुभव बताते हैं कि अपतटीय पवन ऊर्जा परियोजनाओं के निर्माण और संचालन से समुद्री जीवन प्रभावित हो सकता है। ये परियोजनाएं समुद्र में शोर बढ़ाती हैं, जो मछली, व्हेल और अन्य प्रजातियों के व्यवहार को प्रभावित कर सकती हैं।

सरकार को पुराने पवन फार्मों को नई, अधिक कुशल टर्बाइनों के साथ फिर से चालू करने के लिए प्रोत्साहन और दिशानिर्देश देने चाहिए। साथ ही, नवाचार को बढ़ावा देने और लागत कम करने के लिए घरेलू और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए।

सौर ऊर्जा: विश्वसनीय और किफायती बनाने की जरूरत

पिछले दशक में भारत ने सौर ऊर्जा के विकास में काफी तरक्की की है। वित्तीय वर्ष 2013-14 में सौर ऊर्जा से स्थापित क्षमता 1.2 गीगावाट से बढ़कर 2023-24 में 82 गीगावाट हो गई है। दूसरे शब्दों में, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) के आंकड़ों के अनुसार, एक दशक पहले कुल ऊर्जा मिश्रण में सौर ऊर्जा का योगदान 0.4 प्रतिशत से भी कम था, जो अब बढ़कर 6.5 प्रतिशत हो गया है। मौजूदा विकास दर को बनाए रखने के लिए, सरकार को उन चुनौतियों को दूर करने की ज़रूरत है जो परियोजनाओं को समय पर पूरा करने, ग्रिड में एकीकरण करने और बिजली खरीद परिपाटियों में देरी का कारण बनती हैं।

एमएनआरई के अनुसार, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्य भारत की कुल स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता में लगभग 80 प्रतिशत का योगदान करते हैं। इससे देश के पश्चिमी और दक्षिणी भागों में सौर ऊर्जा उत्पादन का असमान क्षेत्रीय केंद्रण होता है। इन क्षेत्रों से सौर ऊर्जा के कुशल ट्रांसमिशन के लिए ग्रिड की स्थिरता बढ़ाने के लिए पावर सिस्टम इंटरफेस को मजबूत करने की जरूरत होगी। चूंकि ट्रांसमिशन कॉरिडोर स्थापित करने की अवधि सौर ऊर्जा संयंत्र निर्माण से अधिक होती है, इसलिए तेजी से परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पूर्व-मूल्यांकन किया जा सकता है।

सरकार उच्च क्षमता वाले क्षेत्रों में सौर और पवन ऊर्जा को मिलाकर चलने वाली परियोजनाओं को भी प्राथमिकता दे सकती है। ऐसे सोलर-विंड हाइब्रिड प्लांट्स से चौबीसों घंटे बिजली उत्पादन होगा। रात में पवन से और दिन में सूर्य से। बैटरी भंडारण उपकरणों के साथ संयुक्त होने पर ग्रिड में नवीकरणीय ऊर्जा का एकीकरण निर्बाध हो सकता है। इसके अलावा, इससे घरेलू बैटरी निर्माण उद्योग को भी बढ़ावा मिलेगा, जिससे बदले में बिजली की दरें प्रतिस्पर्धी हो जाएंगी।

 एक्शन प्वॉइंट सौर ऊर्जा को बढ़ावा देनाउच्च क्षमता वाले क्षेत्रों में सौर और पवन ऊर्जा को मिलाकर चलने वाली परियोजनाओं को प्राथमिकता देना, इससे चौबीसों घंटे बिजली उत्पादन होगाछतों पर सौर पैनल लगाने को बढ़ावा देने के लिए बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के परिचालन प्रबंधन में सुधार करना, इससे बिजली बिलों में बचत होगी और बिजली आपूर्ति विश्वसनीय होगीडिस्कॉम को महंगी ताप विद्युत खरीद समझौतों से बाहर निकलने में सक्षम बनाना ताकि वे सस्ती सौर ऊर्जा खरीद सकें, इससे बिजली की लागत कम होगी और प्रदूषण कम होगा

चूंकि सौर ऊर्जा संयंत्रों को लगाने के लिए बहुत सी जमीन की जरूरत होती है, इसलिए सौर ऊर्जा के लिए वैकल्पिक स्थानों को बढ़ावा देना उपयोगी होगा। उदाहरण के लिए- पानी पर तैरते हुए सौर ऊर्जा संयंत्र लगाना, एक ही खेत में खेती और सौर ऊर्जा उत्पादन, या फिर उन इळाकों में जहां सामाजिक और कृषि से जुड़ीं चुनौतियां हैं, वहां मिनी और माइक्रो ग्रिड का इस्तेमाल करना उपयोगी होगा। इन तरीकों को अपनाने के लिए कुछ जरूरी कदम उठाने होंगे, जैसे तैरते हुए सौर पैनलों को स्थापित करने के लिए बिस्तर यानी फ्लोटर बेड का निर्माण और मिनी ग्रिड में डेवलपर के जोखिम को कम करना।

नई सरकार को यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि अब तक सौर ऊर्जा में लगभग सभी विकास बड़े पैमाने के मॉडल 'यूटिलिटी-स्केल मॉडल' से हुए हैं। घरों की छतों पर सौर पैनल लगाने की दर काफी कम है। इस समय रूफटॉप सोलर पैनल कुल 13 गीगावाट बिजली पैदा करते हैं, जिसमें से केवल 30 प्रतिशत बिजली ही आवासीय क्षेत्र से आती है। छतों पर सौर पैनल लगाने की दर बढ़ाने के लिए बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के परिचालन प्रबंधन में सुधार करना होगा। इस सुधार में बिलिंग प्रणाली को दुरुस्त करना, बिजली खरीद प्रथाओं में बदलाव और तकनीकी पहलुओं, जैसे घरों में मीटर लगाने की व्यवस्था (नेट मीटरिंग, ग्रॉस मीटरिंग या वर्चुअल मीटरिंग) को शामिल किया जा सकता है।

सौर ऊर्जा की वृद्धि का सीधा संबंध डिस्कॉम के प्रदर्शन से है। उदाहरण के लिए, अनुमति मिलने में देरी और उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने में देरी से लोगों का भरोसा कम होता है। डिस्कॉम को भी तत्काल सुधारों की जरूरत है ताकि वे महंगी ताप विद्युत खरीद समझौतों से बाहर निकलने में सक्षम हों। इससे उन्हें सस्ती सौर ऊर्जा खरीदने और ताप विद्युत संयंत्रों को जल्दी बंद करके कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलेगी। अंत में, बिजली वितरण को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए; बिजली की लागत तय करने में आर्थिक सिद्धांतों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।