ऊर्जा

नजरिया: सौर जियोइंजीनियरिंग पर वैश्विक नियमन की आवश्यकता

सौर जियोइंजीनियरिंग को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के विकल्प के रूप में नहीं बल्कि एक पूरक उपाय के रूप में देखा जाना चाहिए

DTE Staff

जय प्रकाश पांडेय

जलवायु परिवर्तन पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता ने वैज्ञानिकों को सौर जियोइंजीनियरिंग जैसे नवीन दृष्टिकोण तलाशने के लिए प्रेरित किया है। पेरिस जलवायु समझौते (वर्ष 2015) के अंतर्गत ग्रीन हाउस गैस को कम किए जाने के लिए निर्धारित किए गए उत्सर्जन संबधी लक्ष्यों को प्राप्त करने में वर्तमान वैश्विक जगत असफल सिद्ध हो रहा है ।

भू-तापन से, अन्य जलवायुवीय दशाओं के अतिरिक्त बढ़ते मूसलाधार बारिश के पैटर्न,  अधिक शक्तिशाली तूफानों की बारंबारता और समुद्र के स्तर में वृद्धि जैसी दशाओं को जोड़ा जा सकता है। पश्चिम के विद्वानों का एक बड़ा वर्ग  इस संदर्भ में पहले ही इंगित कर चुका  है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए 2030 के दशक तक वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने के लिए बड़े पैमाने पर परियोजनाओं की आवश्यकता होगी। कहना न होगा यह अप्रत्यक्ष रूप से सौर जियोइंजीनियरिंग और उससे संबंधित तकनीक की ही तरफ इशारा है।

सौर जियोइंजीनियरिंग में पृथ्वी की सतह तक पहुंचने वाले सौर विकिरण की मात्रा को कम करने के लिए वैज्ञानिक विषयों जैसे स्ट्रैटोस्फेरिक एरोसोल इंजेक्शन, अंतरिक्ष-आधारित रिफ्लेक्टर आदि का इस्तेमाल किया जाता है । दूसरे शब्दों में कहें तो

सौर जियोइंजीनियरिंग पृथ्वी पर आने वाली सूरज की रोशनी को कम करने, यानी “सूर्य को मंद” करने के लिए काल्पनिक प्रौद्योगिकियों के एक सेट का वर्णन करती है (राष्ट्रीय विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा अकादमी, 2021)  हालाँकि  जियोइंजीनियरिंग की ये प्रौद्योगिकियाँ जलवायु संशोधन के संदर्भ में संभावित लाभ प्रस्तुत कर सकती  हैं, लेकिन वे अपने सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिक प्रभावों के संबंध में चिंताएँ भी बढ़ाती हैं।

मुख्य रूप से उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप  द्वारा किए जा रहे जियोइंजीनियरिंग संबंधी अनुसंधान, विशेष रूप से सौर जियोइंजीनियरिंग पर हावी है। वहीं चीन के प्रयोगों ने भी आशंका की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है । भारत की विषम भौगोलिक परिस्थितियां भी इस क्षेत्र में विस्तृत शोध की संभावनाओं के द्वार खोलती है जिसके लिए बजटीय माध्यमों के साथ साथ वैज्ञानिकों को नियत लक्ष्यों के साथ  प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है ।

वर्ष 2019 में, सौर जियोइंजीनियरिंग सहित जियोइंजीनियरिंग विकल्पों का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने के लिए प्रस्तावित यूएनईपी प्रस्ताव को संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील और सऊदी अरब द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया था।  ऐसे में यह आशंका कि विनियमन और संयुक्त शोध के बिना, एक देश के प्रयास दूसरे देशों को प्रभावित कर सकते हैं, को गलत नहीं ठहराया जा सकता है। 

सौर जियोइंजीनियरिंग प्रौद्योगिकियों की तैनाती पर उचित, न्यायसंगत और प्रभावी बहुपक्षीय नियंत्रण की गारंटी दे सकने में सक्षम  संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन में भी संस्थागत बल का अभाव वर्तमान में दिखता है ।

अनियंत्रित जियोइंजीनियरिंग पर नियमों की कमी के विनाशकारी प्रभाव भी हो सकते हैं, खासकर विकासशील देशों के लिए जिनके पास गहन अनुसंधान और विकास (आर एंड डी) करने, ऐसी योजनाओं को व्यापक रूप से लागू करने या उनके अनपेक्षित परिणामों को संभालने के लिए संसाधनों की कमी है।

उदाहरण के लिए, कुछ वैज्ञानिक  अध्ययनों ने सुझाव दिया है कि ऊपरी वायुमंडल में सूरज की रोशनी कम करने वाले रसायनों का छिड़काव करने से वैश्विक मौसम पैटर्न प्रभावित हो सकता है और पूरे एशिया और अफ्रीका में  मानसून के पैटर्न में बदलाव हो सकता है । 

एक अन्य प्रसंग में  वर्ष 2021 में बिल गेट्स ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के नेतृत्व में एक शोध का समर्थन किया, जिसमें उत्तरी स्कैंडिनेविया के वातावरण में कैल्शियम कार्बोनेट के छिड़काव की धारणा का परीक्षण किया गया था। हालाँकि, स्थानीय स्वदेशी समुदायों और पर्यावरणविदों के विरोध के कारण परियोजना को रोक दिया गया था।

जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे संवेदनशील देशों में से एक भारत की निर्भरता यहां की मानसूनी जलवायु में प्रमुखता से  है। लू, सूखा और मानसूनी व्यवधान जैसे गंभीर प्रभावों का सामना करते भारत को  सौर जियोइंजीनियरिंग के संभावित लाभों और जोखिमों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

अमेरिका,चीन और यूरोप तथा विश्व के अन्य देशों द्वारा किए जा रहे सौर जियोइंजीनियरिंग संबधी नवोन्मेषों को समझना और उसमें बराबर भागीदारी करना भारत में नीति निर्माताओं और शोधकर्ताओं के लिए के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

भारत अपनी अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा के लिए कृषि पर बहुत अधिक निर्भर है। जहां सौर जियोइंजीनियरिंग कृषि उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन के कुछ नकारात्मक प्रभावों को कम करने में मदद कर सकती है,जिससे संभावित रूप से किसानों और देश में खाद्य उत्पादन को लाभ होगा वहीं दूसरी तरफ आज भारत जलसंकट के मुद्दों का सामना कर रहा है, और सौर जियोइंजीनियरिंग का जल संसाधनों की उपलब्धता और वितरण पर नकारात्मक  प्रभाव पड़ सकता है। भविष्य की जल संसाधन प्रबंधन रणनीतियों के लिए सतही जल अपवाह, भूजल पुनर्भरण और मानसून पैटर्न पर संभावित प्रभाव को समझना महत्वपूर्ण है।

वर्तमान में चीन द्वारा मेगा-बांध परियोजनाओं (जैसे थ्री गोरजेस) सहित अन्य बड़े इंजीनियरिंग परियोजनाओं के संभावित दुष्परिणामों से यह तो स्पष्ट है कि किसी प्रकार के वैश्विक मत के बिना भी चीन जियोइंजीनियरिंग परियोजनाओं पर कार्य जारी रख  सकता है और इस कार्य का सम्पूर्ण एशिया विशेषकर भारत में प्रभाव पड़ेगा इसमें कोई दो राय नहीं है।

चीन की बड़े पैमाने की मौसम संशोधन परियोजना, तियान्हे, या स्काई रिवर जोकि एक क्लाउड सीडिंग जियोइंजीनियरिंग परियोजना है इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है जिसमें भारत और अन्य दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों सहित पड़ोसी देशों के लिए संभावित सुरक्षा निहितार्थ भी व्याप्त हैं।

तियान्हे के जलवायु जियोइंजीनियरिंग उद्यम का लक्ष्य चीन के  उत्तरी हिस्सों में जहां कम वर्षा होती है और इसकी नदियों में जलस्तर में गिरावट देखी जा रही है वहां सूखे जैसी स्थितियों का प्रबंधन करना है।

वायुमंडल में सिल्वर आयोडाइड कणों को लॉन्च करके ईंधन कक्षों की सहायता से यांग्त्ज़ी नदी बेसिन के अतिरिक्त जल को येलो नदी तक हस्तांतरण की योजना के जलवायुवीय पहलुओं पर भी गौर करना भारत के लिए अत्यंत आवश्यक है।

आज बड़े बड़े उद्योगपतियों और संस्थानों आदि द्वारा भी जहां सुपरकंप्यूटर क्षमताओं का इस्तेमाल  कर वातावरण में भारी मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड (एसओ2) को इंजेक्ट करने की योजना बन रही है वही  सौर जियोइंजीनियरिंग के संभावित प्रभावों का अध्ययन करने के लिए माली, ब्राजील, थाईलैंड और अन्य देशों के वैज्ञानिकों के लिए भी वित्तीय मदद भी दी जा रही है।

अमेरिका के  नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज, इंजीनियरिंग और मेडिसिन में तो , जिन्होंने , पांच वर्षों में $ 100 मिलियन से $ 200 मिलियन के शुरुआती निवेश के साथ एक अमेरिकी सौर जियोइंजीनियरिंग अनुसंधान कार्यक्रम स्थापित करने की सिफारिश भी की गई हैं ।

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दीर्घकालिक टिकाऊ समाधानों में एक व्यापक दृष्टिकोण शामिल होना चाहिए जो भारत और वैश्विक समुदाय के लिए अधिक लचीला और पर्यावरणीय रूप से सतत समावेशी भविष्य बनाने के लिए शमन, अनुकूलन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर जोर देता है। वस्तुत: सौर जियोइंजीनियरिंग को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के विकल्प के रूप में नहीं बल्कि एक पूरक उपाय के रूप में देखा जाना चाहिए। 

भारत को इस संबंध में  सबसे कमजोर देशों की जरूरतों और प्राथमिकताओं को भी  संबोधित करते हुए उनकी न्यायसंगत भागीदारी सुनिश्चित करते हुए , जलवायु न्याय के सिद्धांतों पर विचार करना चाहिए और वैश्विक समुदाय को संगठित करने के उद्यम करने चाहिए।

(लेखक जय प्रकाश पाण्डेय, ओएनजीसी देहरादून में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी हैं)