ऊर्जा

‘कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम, 1957’ में प्रस्तावित संशोधन के मायने

चालू संसद सत्र में सरकार कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम, 1957 में संशोधन हेतु एक बिल ला रही है

Satyam Shrivastava

ऐसे समय में जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तनों की तेज गति की चुनौतियों से जूझ रही है और कार्बन-उत्सर्जन को कम से कम करने की दिशा में कोयले जैसे प्रदूषण कारी ईधन के उपयोग से तौबा करते हुए ऊर्जा जरूरतों के लिए अक्षय ऊर्जा के स्रोतों पर अपनी निर्भरता बढ़ा रही है। वहीं दूसरी तरफ, भारत सरकार अभी भी न केवल कोयले पर पूरी तरह खुद को आश्रित रखना चाहती है बल्कि जरूरत से कहीं ज्यादा कोयले के उत्पादन को आसान बनाने के लिए मौजूदा कानूनों में बलात परिवर्तन करने पर आमादा है।

ताज़ा उदाहरण मौजूदा संसद सत्र में आने वाला बिल है जो मौजूदा ‘कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम, 1957’ में संशोधन करने हेतु लाया जा रहा है। हालांकि इस प्रस्तावित बिल (संशोधन) का मसौदा अभी सार्वजनिक नहीं हुआ है और न ही इन संशोधनों पर आम जनता से राय ही मांगी गयी है लेकिन 12 जुलाई को 2021 को जारी लोकसभा बुलेटिन पार्ट-II के हवाले से कुछ सूचनाएं इन संशोधनों के बारे में मिलती हैं। 

यह संशोधन 1957 में पारित और अब तक चले रहे कानून में हो रहे हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि भले ही यह कानून आज़ाद और लोकतान्त्रिक देश की संसद में पारित हुआ हो लेकिन इस कानून पर औपनिवेशिक उद्देश्यों की ऐतिहासिक छाया और प्रभाव हैं। इस कानून का एकमात्र मकसद है सरकार के राजस्व में वृद्धि और अधिग्रहीत हुई जमीनों पर देश के सार्वजनिक क्षेत्र का पूरा नियंत्रण। इस कानून के उद्देश्यों में कभी भी पर्यावरण या सामुदायिक हितों को तरजीह नहीं दी गयी।

अपने मूल चरित्र में भूमि-अधिग्रहण के लिए बने इस कानून को केंद्रीय कानून होने के नाते एक सर्वोच्चता प्राप्त रही है। इसके अलावा देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए कोल इंडिया जैसे सार्वजनिक उपक्रम का विशिष्ट महत्व रहा है। यह कानून मूल रूप से कोल इंडिया के लिए कोयला भंडारों के अधिग्रहण की पूर्ति करते रहा है।

यहां तक कि 1993 में संविधान में हुए 73वें 74वें संशोधनों, 1996 में पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों के लिए बने पेसा कानून, 1996 के ही सर्वोच्च न्यायालय के उल्लेखनीय समता निर्णय, 2006 में संसद से पारित हुए वनाधिकार मान्यता कानून और 2013 में लागू हुए भूमि-अधिग्रहण कानून जैसे अपेक्षाकृत जन भागीदारी के क़ानूनों को भी इस कानून के द्वारा दरकिनार किया जाता रहा है। इन तमाम क़ानूनों से पुराना होने के बावजूद इसकी सर्वोच्चता बनी रही है। उल्लेखनीय है कि पेसा कानून को अमल में आए इस साल 25 साल हो रहे हैं।

‘कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम, 1957’ बुनियादी तौर पर भूमि अधिग्रहण कानून ही है जो ऐसे क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जाता रहा है। हालांकि इसका इस्तेमाल केवल सार्वजनिक क्षेत्रों की कंपनियों के लिए करने का विशेषाधिकार देता है। यहां तक कि 2013 में संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार के दौरान संसद में पारित हुए “भूमि अधिग्रहण, पुनरुद्धार, पुनर्वासन में उचित प्रतिकार तथा पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013” में भी कोयला धारक क्षेत्रों को इसलिए छोड़ दिया गया था क्योंकि उसके लिए इस विशिष्ट कानून की मौजूदगी थी।

क्या- क्या संशोधन प्रस्तावित हैं?

लोकसभा की बेवसाइट पर उपलब्ध बुलेटिन-II के आधार पर निम्नलिखित तीन संशोधन मुख्य रूप से ध्यान खींचते हैं-

  • सबसे बड़ा बदलाव इन संशोधनों के जरिये कोयला क्षेत्र में देश की संघीय प्रणाली में यह होने जा रहा है। इन संशोधनों के बाद अब अधिग्रहण की पूरी ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार के अधीन होगी। लेकिन भूमि अधिग्रहण हो जाने के बाद केंद्र सरकार अपने अधीन इस ज़मीन और इस पर ‘खनन के अधिकार’ राज्यों को सौंप देगी। यानी राज्य सरकारें अब इस अधिग्रहित हुई ज़मीन को किसी कंपनी या कोयला भंडारों की नीलामी के दौरान सबसे योग्य पाये गयी कंपनी को लीज़ पर दे सकती हैं।
  • दूसरा बड़ा बदलाव इस कानून के माध्यम से अधिग्रहण हुई जमीन के इस्तेमाल को लेकर होने जा रहा है। जो जमीन कोयले के खनन के लिए ली जाएगी अब उसका इस्तेमाल कोयले से संबंधित आधारभूत संरचना या सहायक गतिविधियों और सार्वजनिक उद्देश्यों की संरचनाओं के लिए भी हो सकता है। 1957 के कानून में यह इज़ाजत नहीं थी बल्कि स्पष्ट रूप से यह प्रावधान थे कि जो जमीन कोयले के खनन के लिए अधिग्रहित की जाएगी उसका इस्तेमाल केवल और केवल कोयला निकालने के लिए ही होगा। इसके अलावा एमएमडीआर कानून के तहत खनन पूरा होने के बाद ज़मीन को पुन: पूर्व की स्थिति में लाने के प्रावधान थे, जिसका भार खनन करने वाले के ऊपर था। इन संशोधनों के बाद हालांकि उपलब्ध नोट में इसका ज़िक्र नहीं है लेकिन एमएमडीआर में भी संशोधन किए जाएंगे और ज़मीन की लीज की सीमा भी बढ़ाई जा सकती है।
  • तीसरा बेहद महत्वपूर्ण बदलाव जो होने जा रहा है, वह है इस कानून के माध्यम से कोयले के साथ-साथ लिग्नाइट (निम्न स्तरीय कोयला खनिज) खनन के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इस उद्देश्य के लिए अब तक चले आ रहे कोयलारीज कंट्रोल नियम, एमएमडीआर कानून के तहत 2004 व कोल ब्लॉक्स आबंटन नियम 2017 में यथोचित बदलाव भी किए जाएंगे।

इन संशोधनों को कैसे देखा जाए?

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक मण्डल के एक सदस्य आलोक शुक्ला इसे स्पष्ट रूप से "आदिवासी क्षेत्रों में जमीन की बेतहाशा लूट को आसान बनाने के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि ‘देश में 80 प्रतिशत से ज़्यादा कोयला भण्डार आदिवासी क्षेत्रों में हैं जिनमें अधिकांश क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची में आता है। यहां पेसा और वनाधिकार कानून लागू हैं। इन दोनों ही कानूनों में स्थानीय ग्राम सभाओं की सहमति एक सांवैधानिक प्रावधान हैं। लेकिन इन्हें दरकिनार करते हुए इन क्षेत्रों में भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाया जा रहा है।"

इसके अलावा, पहले से अधिग्रहित की हुई जमीन को अन्य गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करने की छूट दी जा रही है जो 1957 के कानून के मुताबिक केवल और केवल कोयले के खनन के सीमित उद्देश्यों के लिए थीं। आलोक बताते हैं कि कॉल इंडिया के पास अभी भी ऐसी जमीनें बड़े पैमाने पर हैं जिनका अधिग्रहण कोयला खनन के लिए किया गया था। अब इन जमीन पर भी आधार भूत संरचनाएं बनाने और ‘सार्वजनिक उद्देश्यों’ की परियोजनाएं लाने के लिए रास्ता साफ किया जा रहा है’। हालांकि इस संक्षिप्त नोट से यह स्पष्ट नहीं है कि ये संशोधन नयी कोयला खदानों पर ही लागू होंगे लेकिन इस सरकार की मंशाओं से ऐसा लगता है कि यह पहले अधिगृहीत की जा चुकी जमीन पर भी लागू होंगे।

पर्यावरणविद कांची कोहली इन प्रस्तावित संशोधनों को निजी कंपनियों के लिए आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाने की दिशा में एक बड़े कदम की तरह देखती हैं। उनका कहना है कि "1957 के कानून में स्थायी संरचनाओं या परियोजनाओं की छूट नहीं थी। इन प्रस्तावित संशोधनों के माध्यम से निजी कंपनियों को एक बार लीज मिल जाने के बाद और खनन गतिविधियां पूरी हो जाने के बाद भी अधिग्रहीत जमीन पर उनका नियंत्रण बना रहेगा और जमीन पर वह कुछ और गतिविधियां करते रह सकेंगे। इसके साथ साथ लिग्नाइट जैसे खनिज को भी इसमें शामिल कर लेने से भूमि अधिग्रहण कानून 2013 को एक तरह से खत्म किया जा रहा है।

23 सितंबर 2020 को बिजनेस स्टैंडर्ड में श्रेयाजय इन संशोधनों के बार में लिखती हैं कि "ये प्रस्तावित संशोधन राज्यों के लिए कोयला खनन को निजी पूंजीपतियों के लिए खोलने का एक रास्ता है।" इसी लेख में वह लिखती हैं कि "राज्यों को भूमि अधिग्रहण के लिए इन सशोधनों के जरिये दो विकल्प मुहैया कराये जा रहे हैं। पहला परंपरागत तरीके से भूमि अधिग्रहण कानून 2013 का इस्तेमाल करके या संशोधनों के साथ  ‘कोयला धारक क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम, 1957’ का इस्तेमाल करके।

भाजपा नीत मौजूदा राजद सरकार शुरूआत से ही भूमि अधिग्रहण के लिए औपनिवेशिक कानून 1894 को रद्द करते हुए 2013 में बनाए गए नए कानून के खिलाफ रही है। 2014 में ही इस कानून के बरक्स एक अध्यादेश केंद्र सरकार लायी थी जिसके भारी विरोध के बाद हालांकि इन अध्यादेशों को कानून में नहीं बदला जा सका लेकिन राज्य सरकारों ने भी इस कानून को कभी तरजीह नहीं दी।

आलोक शुक्ला इसकी मूल वजह बताते हैं, "क्योंकि इन क़ानूनों में प्रभावित समुदायों की सहमति, सामाजिक प्रभाव आंकलन, पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन जैसे प्रावधान थे जिनकी वजह से भूमि अधिग्रहण इतना आसान नहीं रह जाता।"

इन संशोधनों को लाने के उद्देश्य क्या हैं जबकि यह कानून पहले से ही औपनिवेशिक प्रवृत्ति का है और पिछले वर्ष कोयले के वाणिज्यिक इस्तेमाल के लिए कोयला भंडारों की नीलामी को सरकार ने स्वीकृति दे दी है।

इसके बारे में ओडिशा के आदिवासी चेतना संगठन के साथी अमूल्या नायक बताते हैं कि जमीन को स्थायी तौर पर पूंजीपतियों को देने के लिए इसका एक बड़ा उद्देश्य है। कोयला खनन के लिए एक निश्चित अवधि के लिए लीज पर मिली जमीन पर कंपनियों की मिल्कियत कायम होगी। बाद में वो जमीन का इस्तेमाल अपने मुनाफे की परियोजनाओं को ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के नाम पर कर सकेंगे।

कोयले की ज़रूरत के नज़रिये से अगर देखा जाये तो इस विषय के अध्येयता प्रियांशु गुप्ता ‘इन प्रस्तावित संशोधनों को वाणिज्यिक खनन के लिए निजी कंपनियों को लुभाने की कोशिश के तौर पर देखते हैं’। उनका कहना है कि पिछले दोनों चरणों में जो कॉल ब्लॉक्स की नीलामियां हुईं, वो विफल रहीं। पिछले साल वाणिज्यिक कोयला खदानों की नीलामी की स्थिति का हवाला देते हुए प्रियांशु बताते हैं कि 67 कोल ब्लॉक्स नीलामी के लिए लाये गए थे जिनमें से महज 8 कोल ब्लॉक्स की ही नीलामी अब तक सरकार कर पायी है। हालांकि सरकार ने इन विफलताओं से गलत सबक लिए हैं क्योंकि इन विफलताओं की असल वजह मौजूदा कानून नहीं हैं बल्कि कोयले की मांग और आपूर्ति की स्थिति है। कोयले की मांग, खपत और उत्पादन का अगर सही से आंकलन क्या जाए जो नई खदानें आवंटित करने का कोई औचित्य ही नहीं है।

प्रियांशु के आंकलन की पुष्टि खुद कोल इंडिया लिमिटेड भी करता है। इंडिया इनवायरमेंट पोर्टल पर दर्ज़ कोल इंडिया के एक बयान के मुताबिक पिछले साल तक 2015 से 2020 के बीच लगभग 510 मिलियन टन के वार्षिक कोयला उत्पादन की क्षमता के कॉल ब्लॉक्स आबंटित किए जा चुके हैं जिसमें से केवल 110 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन का ही उपयोग किया जा सका है। ऐसे में ऊर्जा जरूरतों के लिए कोयले की कमी का बहाना बनाकर नयी खदानों का आबंटन करना एक तरह से भ्रम पैदा किया जाना है।

इसके अलावा कोल इंडिया के अपने दस्तावेज़ कोल इंडिया विज़न -2030 के अनुसार भी आने वाले दस सालों के लिए किसी भी नयी कोयला खदान को आबंटित किए जाने की ज़रूरत नहीं है।

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के नन्द कश्यप इसे केंद्र सरकार द्वारा एक ‘राजनैतिक औज़ार’ की तरह देखते हैं। उनका कहना है कि ‘इन संशोधनों के जरिये केंद्र राज्यों की उन शिकायतों को दूर करते हुए दिख रही है जो वाणिज्यिक कोयला खनन के दौरान राज्यों की तरफ से मुखर हुईं थीं। राज्य सरकारों को कोयले पर केंद्र के एकाधिकार पर आपत्ति थी क्योंकि संविधान के मुताबिक कोयला राज्य का विषय है। इन संशोधनों के मार्फत केंद्र सरकार राज्यों को कोयला खनन के लिए लीज़ आबंटन का अधिकार देकर एक तरह से राजनैतिक हित साध रही है लेकिन अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया पर खुद का नियंत्रण भी चाहती है। यह थोड़ा विरोधाभासी है लेकिन अंतत: यह राज्यों को यह भ्रम दे सकते हैं कि उनके राजस्व में वृद्धि होगी। हालांकि बिना राज्य सरकारों के दखल या सहयोग के कोयला खनन के लिए भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया आसान नहीं होगी लेकिन सारी तोहमतें केवल राज्य सरकारों पर ही आयेंगीं।

माइंस मिनरल एंड पीपल्स के अशोक श्रीमाली इसे कोल इंडिया को धीरे धीरे खत्म करने और निजी कंपनियों को प्रोत्साहित किए जाने के एक कदम के तौर पर भी देखते हैं।

इसके अलावा अभी तक जबरन अधिग्रहण के खिलाफ जो जन आंदोलन जनहित के क़ानूनों का इस्तेमाल कर पाते थे या न्यायालय से उन्हें कुछ राहत मिल जाया करती थी, वो इन संशोधनों के लागू होने बाद नहीं मिलेगी। एक तरह से ये संशोधन, संविधान प्रदत्त उन लोकतान्त्रिक बुनियादों पर भी हमला हैं जो इन जन आंदोलनों को लड़ने का आधार मुहैया कराते थे।

केंद्र सरकार की कोशिश है कि इन संशोधनों को मौजूदा मानसून सत्र में ही पारित करवाया जाये। जिस तरह से संसद चल रही है और जिस तेज़ी के साथ बिना किसी चर्चा या बहस के संसद में महज़ 10 दिन में 12 कानून जो औसतन 7 मिनिट की चर्चा के बाद पारित हुए हैं उसे देखकर लगता है कि ये महत्वपूर्ण कानून भी इसी गति को प्राप्त होगा। संसद को चर्चा, विचार, बहस और वाद-विवाद की जगह महज बिल पारित करवाने की जगह बना दिये जाने पर तृणमूल कांग्रेस के नेता डेरेक ओ ब्रायन ने ‘पापड़ी चाट’ कहा है। इस सरकार पर विपक्ष यह भी आरोप लगाती रही है कि पेश हुए बिल का मसौदा उन्हें पहले से नहीं दिया जाता कि वो कम से कम उस बिल के बारे में पढ़ सकें। अभी भी इन संशोधनों का मसौदा विपक्ष के सांसदों को नहीं मिला है और सार्वजनिक तो हुआ ही नहीं। संभव है कि एकतरफा कानून को भी संसद से पारित करवा लिया जाये जैसे सार्वजनिक महत्व के तमाम क़ानूनों को इस सत्र में पारित करवा लिया गया।

इतना तय है कि अगर यह कानून बिना चर्चा -बहस के पारित होता है तो आदिवासी क्षेत्रों में इसके स्थायी और दूरगामी दुष्परिणाम होंगे और कभी स्वायत्त माने गए क्षेत्र निजी पूँजीपतियों के गुलाम होने के लिए अभिशप्त होंगे।

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(लेखक भारत सरकार के आदिवासी मंत्रालय के मामलों द्वारा गठित हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबन्धित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ के तौर पर सदस्य रहे हैं)