बीते 26 मार्च को झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के एक ट्विट से केंद्र और राज्य सरकार के बीच की तल्खी फिर सामने आई। हेमंत सोरेन ने केंद्रीय कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा। उस पत्र में उन्होंने कहा कि कोयला कंपनियां झारखंड के हिस्से की कुल 1.36 लाख करोड़ रुपए बकाया रखे हुए है। कोयला मंत्री इन कंपनियों को निर्देश दें कि वह बकाए का भुगतान करे।
हालांकि यह पहली बार नहीं है जब हेमंत ने इस बकाया राशि की मांग केंद्र सरकार से की है और न मिलने पर सप्लाई रोकने की बात कही है। इससे पहले भी वह दो बार अनुरोध और धमकी दोनों लहजे में पत्राचार कर चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इतना पैसा बकाया क्यों है?
1.01 लाख करोड़ रुपया भूमि मुआवजा बकाया
सीएम ने लिखा है कि कोल कंपनियों द्वारा राज्य में 32,802 एकड़ गैर मुमकिन (जीएम) भूमि और 6,655.70 एकड़ गैर मुमकिन जंगल झाड़ी (जीएम जेजे) लैंड का अधिग्रहण हो चुका है, लेकिन इन सरकारी भूमि का मुआवजा करीब 41,142 करोड़ का भुगतान भी नहीं हुआ है। जिसपर केवल सूद की रकम ही 60 हजार करोड़ हो गई है। कुल बकाया 1,01,142 करोड़ रुपए केवल भूमि मुआवजा मद में हो गया है।
आइए, समझते हैं कि आखिर यह भूमि मुआवजा क्या है? दरअसल पूरे भारत की जमीन भारत के राष्ट्रपति की मानी गई है। कोई व्यक्ति अगर किसी जमीन का इस्तेमाल कर रहा है तो वो उसका खतियानी हो सकता है, जिसके एवज में उसे मालगुजारी यानी टैक्स देना होता है।
अगर किसी जमीन का इस्तेमाल व्यावसायिक कामों के लिए होता है तो उसका रेवेन्यू टैक्स देना होता है। कोल बियरिंग एक्वेजिशन एक्ट के कोल इंडिया को जमीन दी गई है।संविधान में इसे रेवेन्यू स्टेट अफेयर का मसला माना गया है। यानी जमीन का टैक्स राज्य सरकार वसूलती है।
जानकारी के मुताबिक अभी तक कोल इंडिया को कितनी जमीन दी गई, और कितना बाकी है, इसका सर्वे किया ही नहीं गया था। साल 2019 में झारखंड सरकार और कोल कंपनियों के अधिकारियों की ज्वाइंट कमेटी ने ये सर्वे किया, जिसमें पता चला कि कितनी जमीन कंपनियों के पास है और कितना अनयूज्ड है?
चूंकि ये सर्वे नहीं किया गया था, इसलिए इसका टैक्स भी नहीं लिया गया था। ऐसे में ये मान सकते हैं कि सारा बकाया अभी जोड़ा गया है। चूंकि ये राज्य सरकार के हिस्से का है, इसलिए केंद्र से मांगा जा रहा है।
वहीं खनन विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर पूरा मामला समझाया। उन्होंने कहा, जो कोयला डिस्पैच किया जाता है, उसका जो बेसिक प्राइस होता है, उसका 14 परसेंट रॉयल्टी सरकार को मिलता है। माना 2000 रुपया है तो उसका 14 टैक्स, 5 प्रतिशत जीएसटी, 1 प्रतिशत लेबल सेस मिलता है।
कोई भी कोल कंपनी राज्य सरकार के आदेश के बिना कोयला नहीं बेच सकती है। चाहे वह कितना भी प्रोडक्शन कर लें। मान लिया कि कारो माइंस से किसी कंपनी को 5000 टन कोयला किसी कंज्यूमर को बेचना है तो इसके लिए वह कंपनी पहले सरकार के पास एप्लीकेशन डालेगी, रेट बताएगी, हम रेट देखेंगे, फिर अऩुमति देंगे।
हर ग्रेड के कोयले का एक न्यूनतम बेसिक प्राइस कोल इंडिया तय करती है। माना कि एक्स ग्रेड का कोयला का रेट 2000 रुपए प्रति टन है. अगर खनन करनेवाली कंपनी इस रेट से कम पैसे में कोयला बेचती है, तो सरकार उससे 2000 रुपए प्रति टन के हिसाब से ही रॉयल्टी लेगी, लेकिन अगर इस रेट से ज्यादा में बेचती है, तो बढ़े हुए दाम पर ही रॉयल्टी लेगी।
कोयला प्रोडक्शन करके बेचने की एक सीमा होती है। उसको एनवायरमेंट क्लियरेंस में वर्णित मात्रा कहा जाता है। किसी भी खनन वाली जगह पर यह असेसमेंट करके बताया जाता है कि वो कंपनी सालभर में 5000 टन कोयला निकालेगी। उससे ज्यादा नहीं निकाल सकती है, लेकिन टाटा स्टील ने एक बार बहुत ज्यादा निकाल दिया। मामला हाईकोर्ट में गया। हाईकोर्ट ने कहा कि जितना अधिक निकाले हैं, उसका पैसा दीजिए।
फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। सुप्रीम कोर्ट में टाटा ने कहा कि जितना अधिक निकाला है, उसकी रॉयल्टी दे चुके हैं। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपने सरकार की ओर से तय मात्रा से अधिक निकाला है। यह अवैध निकासी है। आपको पूरा पैसा देना होगा। इसके बाद तय मात्रा से जितना अधिक कोयला बेचा गया, उसका सारा पैसा टाटा को देना पड़ा। इसको कॉमन कॉज कहा गया।
चूंकि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट का था। ऐसे में यह देशभर में लागू हुआ। इसी आदेश के आलोक में झारखंड में सब जिलों से तय मात्रा से अधिक खनन का हिसाब मांगा गया। इस तरह विभिन्न कंपनियों का 50 हजार करोड़ से अधिक बकाया झारखंड सरकार पर हो गया।
सरकार अब बकाएदार कंपनियों को यह भी कह रही है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी सालों तक भुगतान नहीं किया है, ऐसे 24 प्रतिशत सालाना ब्याज भी देना होगा। ब्याज का प्रावधान दी माइंस एंड मिनरल्स एमेंडमेंट एक्ट 2015 में किया गया है।
वॉश्ड कोल रॉयल्टी, 2,900 करोड़ रुपया बकाया
कोयला कंपनियां केवल कोयला ढुलाई का रॉयल्टी देती है। जबकि प्रोसेस्ड कोयले की रॉयल्टी नहीं देती है। मुख्यमंत्री का कहना है कि डिस्पैच की बजाय रन ऑफ माइन कोल के आधार पर रॉयल्टी दी जा रही है। इसे लेकर जिला खनन अधिकारी ने रजरप्पा, पिपरवार, कथारा, स्वांग, करगली और मुनीडीह वॉशरी को कई बार नोटिस भेजा है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।
इस मामले को कोल कंपनियां हाईकोर्ट ले गई. जिसपर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को कोई एक्शन नहीं लेने के लिए कहा। हालांकि बाद में हाईकोर्ट ने सरकार के पक्ष को सही बताया। इसके बावजूद कोल कंपनियां वॉश्ड कोल के पैसे नहीं दे रही है। इस कारण बकाया बढ़ कर 2,900 करोड़ रुपए हो गया है।
कॉमन कॉज, 32,000 करोड़ रुपया बकाया
झारखंड सरकार के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने कॉमन कॉज मामले में 2.08.2017 को आदेश दिया था कि पर्यावरण स्वीकृति (ईसी) लिमिट से अधिक खनिज उत्खनन अवैध माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2006 से किए गए अधिक उत्खनन पर केंद्र व राज्य सरकार को खनन कंपनियों को डिमांड नोट भेजने का निर्देश दिया था। इसके बाद कोल कंपनियों को जो डिमांड नोट भेजा गया, उसमें 32,000 करोड़ रुपए है। यह बकाया भी कोल कंपनियों ने नहीं दिया है।
क्या ये पैसा वापस मिलेगा
एक कोल कंपनी के अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि जब हम कोयला खरीदते हैं तब उसपर राज्य सरकार को 18 प्रतिशत रॉयल्टी देते हैं. माना कि हमने 100 टन कोयला लिया. उसका टैक्स सरकार को दे दिया. अब उस कोयले को हम वॉशरी के लिए ले जाते हैं. धुलने के बाद लगभग 40 टन कोकिंग कोल निकलता है. 20 टन सैलरी निकलता है, बाकि रिजेक्ट माल. अब राज्य सरकार कह रही है कि वॉशरी पर भी टैक्स दीजिए. भला हम एक ही चीज के लिए दो बार यानी 36 प्रतिशत टैक्स कैसे दे सकते हैं. पेमेंट अगर नहीं हो रहा है, तो इसका सबसे मुख्य कारण यही है।