ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर (जीईएम) और सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) द्वारा जारी नए विश्लेषण के अनुसार भारत हद से ज्यादा कोयला आधारित बिजली क्षमता विकसित कर रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक 2023 के शुरूआती पांच महीनों में करीब 11.5 गीगावाट क्षमता की कोयला बिजली परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए अनुमति दी गई है। आंकड़ों के मुताबिक इस दौरान करीब 3.9 गीगावॉट क्षमता की कोयला परियोजनाओं के विस्तार को मंजूरी दी है।
वहीं 7.6 गीगावॉट क्षमता के लिए संदर्भ की शर्तें (टर्म ऑफ रेफरेंस) जारी की गई हैं, इस तरह यह परियोजनाएं परमिट हासिल करने के एक कदम और पास आ गई हैं। आंकड़ों की मानें तो भारत मौजूदा समय में करीब 65.3 गीगावॉट कोयला आधारित बिजली क्षमता विकसित कर रहा है, जिनमें से 30.4 गीगावॉट क्षमता निर्माणाधीन है।
वहीं 35 गीगावॉट क्षमता निर्माण से पहले के विभिन्न चरणों में है। इनमें से 14.4 गीगावॉट क्षमता के लिए अनुमति दी जा चुकी है। 11.8 गीगावॉट क्षमता को अनुमति दी जानी है, जबकि 8.8 गीगावॉट क्षमता की परियोजनाओं की अभी केवल घोषणा की गई है।
हालांकि इस चिंताजनक वृद्धि के बावजूद, विकसित की जा रही परियोजनाओं में 85.6 फीसदी की उल्लेखनीय गिरावट आई है। जो 2014 में 250 गीगावॉट से घटकर 36 गीगावॉट रह गई हैं।
इस बारे में ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर (जीईएम) में रिसर्च एनालिस्ट फ्लोरा चैम्पेनोइस का कहना है कि, "2023 में कोयला परियोजनाओं को मंजूरी देने की भारत की जल्दबाजी इसकी ऊर्जा परिवर्तन रणनीति में बदलाव का प्रतिनिधित्व करती है।" उनके मुताबिक पिछले वर्ष भारत ने नए कोयला बिजली संयंत्रों को मंजूरी नहीं दी थी, जो प्रदूषणकारी, महंगी और अप्रचलित ऊर्जा से दूर जाने की वैश्विक प्रवत्ति के अनुरूप था।
देश में नई कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं की आवश्यकता नहीं
विश्लेषण के मुताबिक भारत की मौजूदा योजनाएं उसकी राष्ट्रीय विद्युत योजना में अनुमानित पर्याप्त कोयला क्षमता विस्तार से कहीं ज्यादा है। राष्ट्रीय विद्युत योजना (एनईपी 2023) का विश्लेषण दर्शाता है कि भारत की निर्माणाधीन कोयला बिजली क्षमता 2027 और 2032 की अनुमानित आवश्यकताओं से कहीं ज्यादा है।
विश्लेषण के मुताबिक निर्माणाधीन आठ गीगावॉट से अधिक क्षमता के कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के निर्माण की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह 34.9 गीगावॉट क्षमता जिसके निर्माण की योजना है, उसकी भी जरूरत नहीं है।
यदि राष्ट्रीय विद्युत योजना के मुताबिक कोयला बिजली संयंत्रों को लेकर 10 वर्षों के लिए लगाए अनुमान को देखें तो देश में किसी भी नई कोयला आधारित बिजली परियोजना को शुरू करने की आवश्यकता नहीं है।
देश में जितनी भी कोयला परियोजनाओं की योजना बन चुकी है वो चालू हो जाती हैं और यदि कुल कोयला आधारित क्षमता में से 2.1 गीगावॉट रिटायर भी कर दी जाए, तो भी देश में ऑन-ग्रिड कोयला क्षमता 275 गीगावॉट होगी। मतबल की यह एनईपी द्वारा 2032 के लिए अनुमानित 259.6 गीगावॉट क्षमता की आवश्यकता से कहीं ज्यादा है।
इस बारे में सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) से जुड़े शोधकर्ता सुनील दहिया ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी दी है कि, “भारत की राष्ट्रीय विद्युत योजना में बिजली की अनुमानित मांग हमेशा वास्तविक मांग की तुलना में कहीं ज्यादा बताई जाती है।“ उनके मुतबिक अतीत में, इसके कारण अरबों डॉलर मूल्य के कोयला बिजली संयंत्र नॉन परफार्मिंग संपत्ति (एनपीए) बन गए हैं। वहीं अतिरिक्त कोयला बिजली प्रस्तावों को बढ़ता दबाव आवश्यकता से अधिक है, ऐसे में इसकी वजह से कहीं ज्यादा संपत्ति फंस सकती हैं।
उनका आगे कहना है कि, “इन परियोजनाओं के आगे बढ़ने से न केवल वित्तीय स्थिति खराब होगी बल्कि साथ ही भविष्य में जलवायु, वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य आपदाएं भी पैदा होंगी। इन आपदाओं को रोकने के लिए अब पर्याप्त और कुशल कार्रवाई करने की आवश्यकता है।"
उत्सर्जन मानदंडों का पालन कर रहे केवल पांच फीसदी थर्मल पावर प्लांट्स
इस सितंबर दिल्ली में होने वाले जी20 नेताओं के शिखर सम्मेलन के दौरान भारत, वैश्विक स्तर पर कोयले से स्वच्छ ऊर्जा की ओर बदलाव को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह प्रयास ऊर्जा पहुंच के साथ-साथ ऊर्जा सुरक्षा को भी संबोधित करेगा।
ऊर्जा के साफ-सुथरे स्रोतों की ओर रुख करने से कई लाभ होंगें। यह जलवायु संकट से निपटने के साथ-साथ आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में मददगार होगा। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे, साथ ही यह पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी फायदेमंद होगा। हालांकि रिपोर्ट के अनुसार अक्षय और कोयला आधारित ऊर्जा दोनों में एक साथ निवेश करने का प्रयास, भारत के ऊर्जा परिवर्तन को जटिल बना सकता है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने अपने हाल ही में किए विश्लेषण में थर्मल पावर प्लांट्स को लेकर चिंताजनक खुलासे किए थे। विश्लेषण के अनुसार देश में केवल पांच फीसदी थर्मल पॉवर प्लांट ही सल्फर डाईआक्साइड (एसओटू) उत्सर्जन के लिए बनाए मानदंडों का पालन कर रहे हैं। ऐसे में क्या कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट कभी उत्सर्जन मानदंडों को पूरा कर पाएंगे। यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है?
इनमें पूर्वोत्तर के राज्यों की हालात तो और भी चिंताजनक हैं क्योंकि ये राज्य तो किसी भी प्रकार का मानदंड का पालन नहीं कर रहे हैं।