जैसे ही कोयला खादानों के नजदीक आप पहुंचते हैं, एक गर्म और बैचैन करने वाले धुएं से भरे वातावरण के गोले में आपका प्रवेश हो जाता है। जगह-जगह कोयले के ढेर से निकलता धुआं ऐसा लगता है जैसे एक बेजान जगह पर सामूहिक सुलगती हुई चिताएं हों। पाताल तक खनन के बाद चारों तरफ बेतरतीब और जानलेवा कृत्रिम पहाड़ों के बीच बस सांस ले रही एक बिल्कुल नई दुनिया से आप टकरा जाते है। जहां सबकुछ काला है। एक ओपनकास्ट माइनिंग वाली खादान के ऊपर खड़े होकर झांकने पर चींटी के आकार जैसे लोग कालिख सा बदन लेकर जैसे कोयले में समा गए हों। उसी निर्मम और अमानवीय सी दिखने वाली खादान में एक पतले कच्चे रास्ते पर सायरन बजाती हुई सफेद एंबुलेंस दूर से नजर आ जाती है। देश की कोयला राजधानी के नाम से मशहूर धनबाद के झरिया में मोहरीबांध के पास मौजूद इस खादान के सड़क के उस पार खड़े सरजू भुईयां पहले हिचकते हैं, फिर एंबुलेंस के बारे में अनुमान लगाते हैं, “खादान में जरूर कुछ हादसा हुआ होगा।” उन्होंने कहा, यह आए दिन की बात है। वह बहुत दार्शनिक भाव में एक भयावह सच्चाई भी बयान कर देते हैं, “वहां की छोड़िए, जहां हम खड़े हैं वहीं पर कब हमारे पैरों के नीचे की यह जमीन दरक जाए या कोई बड़ा पत्थर बाहर से आकर यहां आ गिर जाए, कुछ नहीं कह सकते। हम तो हर रोज काम करते हुए ऐसे ही अपनी मौत का इंतजार करते हैं।”
सरजू भुईयां ने इस जीते-जागते नरक में 50 साल पहले जन्म लिया और उनके पास एकमात्र कौशल यह है कि वे इन खतरनाक खादानों से जीवन जोखिम में डालकर हाथों से खनन कर सकते हैं। इन्हीं खादानों से वे अपने दो बच्चों को भी पाल रहे हैं।
गर्म और तपती हुई चट्टानी सतह पर एक बेहद छोटे से घर में सरजू भुईयां और उनका परिवार ऐसे आराम से रहने का नाटक कर रहे हैं जैसे वह बहुत सहज तरीके से वहां रह रहे हों। सरजू इस बारे में कुछ बोलने से पहले कतराते हैं फिर कहते हैं, “देखिए मैं इन कोल खदानों से दूर कहीं नहीं जाऊंगा, चाहे मेरी मौत यहीं हो जाए।” उनके कमरे के बीचो-बीच जमीन से गैस रिस रही है, धुआं निकल रहा है। वह डर रहे हैं कि कहीं पुनर्वास के नाम पर उनका यह स्थान न छिन जाए। ऐसा अनुभव होता है कि मानो उनका घर एक सुलगती हुई भट्ठी पर रखा हुआ हो। उनके घर के ठीक बगल वाली बस्ती जिसे लालटेनगंज कहते थे, सतह की आग और फिर भू-धंसाव में खत्म हो चुकी है। भुईयां कहते हैं, “जितनी बार यहां आओगे यहां का नक्शा बदला हुआ ही मिलेगा, यह कोयले की चाहत एकदिन झरिया क्या, धनबाद शहर को भी निगल जाएगी।” क्या वाकई लोग झुलसते हुए इस झरिया से बाहर नहीं जाना चाहते?
बिहार कोलियारी कामगार यूनियन (बीसीकेयू) के तुलसी रवानी कहते हैं, “लोग जाना चाहते हैं लेकिन सबसे बड़ी कमी नीतिगत विस्थापन की है।” रवानी के मुताबिक, झरिया के भीतर करीब 15 हजार श्रमिक आय की गारंटी के साथ अच्छा जीवन चाहते हैं। विस्थापन की सरकारी नीति यह कहती है इन श्रमिकों को पानी-बिजली और स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी सुविधाओं के साथ एक बेहतर मकान और पर्याप्त शिफ्टिंग अलाउंस दिया जाना चाहिए। हालांकि, जिन श्रमिकों को मनमाने तरीके से विस्थापित किया गया है उन्हें उचित मुआवजा दिया गया है।
खादानों के बगल सड़कों पर चलते समय सिर की सुरक्षा के लिए हेलमेट लगाना अनिवार्य है, लेकिन खादान के बाहर शायद ही लोग इसकी परवाह करते हैं। दिन में खादानों में हमेशा सुलगने वाली आग की लपटों का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। ओपनकास्ट माइनिंग में निजी कंपनियां आग के खतरों के बावजूद काम करती रहती हैं। माइनिंग में शामिल कंपनियां उस हिस्से को छोड़ देती हैं जहां आग लगी हुई होती है। यह आग सुलगती रहती है और कोयले का नुकसान जारी रहता है। झरिया मास्टर प्लान, 2009 के मुताबिक, अनुमान लगाया गया था कि लगभग 3.7 करोड़ टन (37 मिलियन टन) कोयले का नुकसान भूमिगत आग की वजह से नष्ट हो चुका है और आग के कारण ही लगभग 220 अरब टन कोयला खनन नहीं किया जा सकता है।
कोयला मंत्रालय के मुताबिक, 109 साल पहले 1916 में जब निजी स्वामित्व के जरिए कोयला खनन झरिया में शुरु हुआ उसी वक्त आग लगने की घटना दर्ज की गई थी। तब से अब तक यह आग जान-माल दोनों का नुकसान कर रही है। इस बीच जून 2023 तक 16 स्थानों पर अनुमानित 107 टन कोयले में से लगभग 14,000 करोड़ रुपए के मूल्य का करीब 43 टन कोयला निकाला जा चुका है।
अंग्रेजों के बाद छोड़ी गई इन कोल माइंस में दुनिया का सबसे बेहतरीन कुकिंग कोल मौजूद है। वहीं, कोयला मंत्रालय ने सितंबर, 2024 में जारी प्रेस रिलीज में बताया, “वैज्ञानिक उपायों के कार्यान्वयन से आग वाला सतह क्षेत्र 17.32 वर्ग किमी से घटकर महज 1.80 वर्ग किमी हो गया है।” यानी पहले 77 साइटें प्रभावित थीं, झरिया मास्टर प्लान, 2009 के तहत अब कुल 27 साइटें ही प्रभावित हैं। अब सरकार ने दिसंबर 2025 तक सतही आग पर नियंत्रण का नया लक्ष्य रखा है। हालांकि, कोल खदानों में कई परतें होती हैं और सबसे भीतरी परतों में लगी आग आज भी सुलग रही है। स्थानीय लोगों के मुताबिक झरिया में 70 से अधिक स्थानों पर आग लगी है।
19 जुलाई 2025 को देर रात इंदिरा चौक के पास लगभग 10 फीट चौड़ा और 15 फीट गहरा विशाल गड्ढा बन गया, जिसमें एक मिनी ट्रक जमींदोज हो गया। उस समय कोई मानवीय क्षति नहीं हुई लेकिन भारी दहशत फैली। स्थानीय लोग बीसीसीएल की लापरवाही और प्रशासनिक निष्क्रियता को लेकर नाराज हैं। स्थानीय स्तर पर काम करने वाले राजकुमार बताते हैं, 24 मई 2017 की सुबह लगभग सवा सात बजे फुलारीबाग के निवासी बबलू खान और उनके बेटे रहीम इंदिरा चौक पर चाय पीने आए थे। चाय के बाद जैसे ही रहीम घर जाने चला, अचानक जमीन धंसने लगी और दोनों इसी गड्ढे में समा गए। करीब आठ घंटे तक बचाव कार्य चलने के बाद भी उन्हें नहीं निकाला जा सका और दोनों के उस आग में सिर्फ कंकाल बचे थे। झरिया में फैली आग और भूधंसाव के लिए दो दशक पहले ही पूरे झरिया को ही शिफ्ट करने की बात भी झारखंड में उठी थी, हालांकि यह आगे नहीं बढा।
झरिया कोलफील्ड बचाओ समिति के अध्यक्ष राजीव शर्मा कहते हैं, “कम से कम चंडीगढ़ जैसा शहर या फिर आस-पास कम से कम चार से पांच सेटेलाइट शहर और रोजगार के लिए 20 लाख का मुआवजा हों तब जाकर ही पुनर्वास किया जाए।” यह मांगे उन्होंने बीते वर्ष 2024 में कोयला मंत्रालय को लिखकर भेजी थीं। हालांकि, न ही अब तक पुनर्वास के लिए पर्याप्त ठिकाने बनाए गए हैं और न ही समूचे प्रभावित परिवारों का सर्वे तक किया गया है।
झरिया में पुनर्वास के नाम पर 1978 से प्रयास जारी हैं। झरिया मास्टर प्लान, 2009 इसका एक बड़ा पड़ाव रहा और अब 2025 में 5,940 करोड़ का एक संशोधित मास्टर प्लान लागू किया गया है जिस पर सवालिया निशान लग रहे हैं। झरिया और वहां के लोगों के लिए कोयला मंत्रालय को भेजे गए पत्र के मुताबिक “झरिया, धनबाद टुंडी और बाघमारा विधानसभा में 585 अग्नि प्रभावित क्षेत्र हैं जिनमें 81 अति खतरनाक क्षेत्र हैं। इनमें करीब 10 लाख से अधिक की आबादी और 2 लाख से अधिक परिवार निवास करते हैं जबकि अभी तक सिर्फ 1.04 लाख परिवारों का ही सर्वेक्षण किया गया है।” शर्मा कहते हैं कि 10 लाख से ज्यादा की आबादी का सर्वे होना ही चाहिए। साथ ही नए मास्टर प्लान में हमने विभिन्न सामाजिक योजनाओं के तहत हर पुनर्वास वाले लोगों को 20 लाख रुपए और प्रधानमंत्री आवास दिए जाने की मांग की थी। हालांकि, अब नए संशोधित मास्टर प्लान के तहत पीड़ितों को सिर्फ 3 लाख रुपए देकर उन्हें संतुष्ट किए जाने की बात हो रही है। यह नाइंसाफी है।
झरिया मास्टर प्लान 2009 के तहत कानूनी स्वामित्व धारक, गैर-कानूनी स्वामित्व धारक, और बीसीसीएल कर्मचारियों के परिवारों के पुनर्वास की जरूरत को पहचाना गया था। हालांकि, बीते 16 वर्षों में पुनर्वास की प्रक्रिया न केवल अत्यंत धीमी रही है बल्कि पर्याप्त मकान भी नहीं बन पाए। केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने सितंबर, 2023 में जारी एक प्रेस नोट में कहा कि शुरुआत में बीसीसीएल को 25,000 घर बनाने थे लेकिन सेवानिवृत्ति और अन्य कारणों से आवश्यक घरों की संख्या घटकर 15,713 रह गई। बीसीसीएल ने 11,798 घरों का निर्माण किया है और शेष निर्माणाधीन हैं। वहीं, 15,713 घरों में से महज 8,000 घर झरिया पुनर्वास एवं विकास प्राधिकरण (जेआरडीए) द्वारा कानूनी स्वामित्व धारक परिवारों को आवंटित करने की बात कही गई है। क्या यह झरिया की प्रभावित आबादी के लिए पर्याप्त है?
वर्ष 2009 से अब तक केवल 11,798 घर ही बन पाए हैं बल्कि इसकी पहुंच भी सीमित रही है, क्योंकि इसमें गैर-कानूनी स्वामित्व धारकों (एलएलटीएच) और किरायेदारों जैसी बड़ी आबादी लगभग पूरी तरह उपेक्षित रह गई है। पुनर्वास कॉलोनियों में बुनियादी सुविधाओं जैसे पानी, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और परिवहन की भारी कमी है, जिससे वहां रहना कठिन हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह कॉलोनियां अक्सर शहर से दूर स्थित हैं, जहां रोजगार के अवसर न के बराबर हैं। यही कारण है कि सरजू भुईयां जैसे कई परिवार रोजी-रोटी के चक्कर में ऐसे घरों में रहने को तैयार हैं जो नीचे-नीचे ही सुलग रहा है और धीरे-धीरे धंसाव की ओर है। वह कोयला खदानों के आस-पास के अस्थायी घरों को छोड़कर जाने को तैयार नहीं है क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि खदानों को छोड़कर जाने का मतलब है एक और अंधकारमय जीवन को गले लगा लेना।
झरिया से करीब 20 किलोमीटर दूर बेलगड़िया और कर्माटांड में खादानों के आस-पास अग्नि प्रभावित, भू-धंसाव और दुर्घटना प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए सरकार ने पुनर्वास कॉलोनियां बनाई हैं, यहां कछुए की चाल से पुनर्वास का काम जारी है। घरों में ना तो बुनियादी सुविधाएं हैं और ना ही आस-पास दो जून की रोटी के लिए काम-काज का जुगाड़। झरिया कोलफील्ड बचाओ समिति के अध्यक्ष राजीव शर्मा बाताते हैं “यह पुनर्वास कॉलोनियां हर बुनियादी चीज से कटी हुई बस एक टापू सरीखी हैं।”
डाउन टू अर्थ ने इन टापू सरीखी पुनर्वास कॉलोनियों का दौरा किया। कर्माटांड में नई कॉलोनियों के बनने का काम अब मंदगति से जारी है। वहीं, कॉलोनियों के कई घर खाली पड़े हैं। सबसे पहली बेलगाड़िया स्थित सरकारी पुनर्वास कॉलोनी में पहुंचकर हमारी मुलाकात वहां, 2009 में पुनर्वासित किए गए किरण राम से हुई। उन्होंने बताया कि झरिया के अतिसंवेदनशील अग्नि प्रभावित क्षेत्र से उनका पुनर्वास भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) द्वारा यहां किया गया था। वह शिकायत करते हैं, “यहां जबसे आए तबसे पूरी तरह बेरोजगार हो गए।
काम की तलाश में धनबाद शहर या झरिया जाने के लिए ना तो आसानी से साधन मिलता है और न ही रोजाना काम। आने-जाने में रोजाना 50 से 100 रुपए तक खर्च हो जाते हैं।” बेलगाड़ियां में करीब 2,200 क्वार्टर हैं। दो और तीन तल वाली कॉलोनियां 10 साल में ही जर्जर हो गई हैं। बबलू सिंह कॉलोनी में अपना घर दिखाते हुए कहते हैं, “बरसात में छतों से पानी टपकने लगता है। यह झरिया के कोलखादानों से भी खराब है। वहां कम से कम काम मिलता था, यहां तो वह भी छिन गया।” रोजगार न होने के कारण बेलगाड़िया कॉलोनी में भले ही लोग बसा दिए गए हों लेकिन उनका दिल अब भी झरिया के कोल खादानों में ही फंसा है। कॉलोनी में एक मोबाइल की दुकान चलाने वाले नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं यहां स्वास्थ्य केंद्र बना है लेकिन शायद ही कभी समय से खुलता है। न ही चिकित्सक आते हैं और ना ही इलाज मिलता है। इसी तरह कर्माटांड में बनाई गई कॉलोनी वीरानी सी लगती है। सुधीर कुमार सिंह सामान से भरी एक गाड़ी लेकर यहां पहुंचे हैं। वह पांच सदस्य हैं और उन्हें तीन तल वाले भवन में नीचे एक कमरे का मकान मिला है। सुधीर बीसीसएल से पुनर्वास के लिए मिला अपना पर्चा दिखाते हैं। पर्चे में लिखा है, “बीसीसीएल के झरिया क्षेत्र के एनटी-एसटी-जेजी कोलियरी क्लस्टर (प्रमुख खदान क्षेत्र) में यह परिवार अनाधिकृत रूप से रह रहे थे, सुरक्षा कारणों से इन्हें दूसरे स्थान पर रीलोकेट यानी स्थानांतरित किया जा रहा है।”सुधीर बताते हैं कि उन्हें रीलोकेट करने के लिए ट्रांसपोर्टेशन का पैसा मिलना चाहिए था लेकिन कुछ नहीं मिला। वह अब रोजगार को लेकर चिंतित हैं।
पुनर्वास की यह चिंता उन जगहों पर और ज्यादा गहरी है जो ओवरबर्डन के नीचे दबकर मरने की आशंका में जीवन जी रहे हैं। कोयला खदानों से निकलने वाला मलबा (ओवरबर्डन) से गांव चारो तरफ से घिर गए हैं मुकुंदा पंचायत के तहत गोल्डन पहाड़ी कॉलोनी के लोग डरे हुए हैं। इसी वर्ष दो लोगों की बड़े बोल्डर्स से दब कर मौत हो गई। दोनों मृतकों के परिवार को मुआवजा दिया गया है लेकिन इनकी राशियों में अंतर है। गांव वालो का आरोप है कि खनन के दौरान निकलने वाले मलबे (ओबी) को वैज्ञानिक तरीके से ठिकाने लगाना है। साथ ही जिन माइंस में खनन का काम पूरा है उनमें इन ओबी से पटाव करना है। हालांकि, ओपनकास्ट माइनिंग में लगी कंपनियां यह काम नहीं कर रही हैं। बीसीसीएल के सीएमडी को कई बार संपर्क किया गया लेकिन उन्होंने कोई जवाब देने से मना कर दिया।
गांव का कहना है कि एक व्यक्ति की कीमत 20 लाख रुपए आंक दी गई है। जब मन करें तब ओबी का मलबा आबादी की तरफ गिराना शुरू कर दिया जाता है। डाउन टू अर्थ ने मौके पर जाकर देखा तो पाया कि वन भूमि पर ही मलबा गिराया जा रहा था। शर्मा का कहना है कि बड़ी माइंस को जब खोला जाता है तो छोटी माइंस को ओबी से कवर करना है। इसे समतलीकरण करके रैयत को वापस लौटाना है लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया जा रहा।
वन भूमि पर बसे बीसीसीएल क्वार्टर और गैर रैयत जो दो दशकों से वहां हैं उनके घरों का सर्वे जारी है। कई लोग कई बार विस्थापित होकर यहां बस गए थे। अब फिर से उनपर विस्थापन की तलवार लटक रही है। गांव वालो ने विस्थापित संघर्ष मोर्चा बनाया है। इस मोर्चा के विपिन सिन्हा ने कहा कि यदि हमें यहां से विस्थापित किया जाए तो सबसे पहले करीब एक लाख रुपए दिए जाएं ताकि हम यहां से विस्थापन में परेशानी न हो। मोर्चा के एक अन्य सदस्य आलोक राय ने कहा कि बिना रोजगार की पुष्टि और लिखित आश्वासन के हम यहां से नहीं जाने वाले। हालांक, धीरे-धीरे विस्थापन जारी है। वहीं, कोलफील्ड बचाओ समिति लगातार यह मांग कर रही है कि जब तक न्यायिक आयुक्त का गठन नहीं होगा और उनके द्वारा यहां के लोगों की समस्याएं नहीं सुनी जाएंगी तब तक यहां मास्टर प्लान के पुनर्वास का काम बेहतर तरीके से नहीं होगा। समिति यह भी जोर दे रही है कि जिनकी जमीनें इस कोल खनन में जा रही हैं उन्हें लैंड एक्विजिशन, रिहैबिलिटेशन एंड रीसेटलमेंट एक्ट, 2013 के तहत मुआवजा मिलना चाहिए।