फाइल फोटो: वर्षा सिंह 
ऊर्जा

ऊर्जा: पूंजी के शिकंजे से छूटती सौर छतें

जब छतें सौर बनती हैं, तो वे केवल रोशनी नहीं फैलातीं—वे स्वतंत्रता, समानता और उम्मीद की नई किरण जगाती हैं। यही वह रास्ता है जो हमें पूंजी के शिकंजे से निकालकर ऊर्जा की साझी दुनिया की ओर ले जा सकता है

Kumar Siddharth

तेज़ी से बदलती जलवायु, बढ़ती ऊर्जा माँग और कार्बन उत्सर्जन को कम करने की वैश्विक होड़ के बीच सौर ऊर्जा अब केवल तकनीकी विकल्प नहीं रही, बल्कि यह आने वाले सामाजिक-आर्थिक संतुलन का पैमाना बनती जा रही है।

भारत, चीन और ब्राज़ील जैसे देश सौर ऊर्जा विस्तार की गति में अमीर देशों—अमेरिका, जापान और जर्मनी—को पीछे छोड़ चुके हैं। पर इस तेज़ रफ़्तार के दो चेहरे हैं—एक, ऊँची पूँजी पर खड़ा विशाल कॉरपोरेट सौर उद्योग; दूसरा, आम लोगों की छतों पर उगती छोटी-छोटी सौर क्रांतियाँ, जो ऊर्जा के विकेंद्रीकरण की दिशा में कदम बढ़ा रही हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ डरहम (यूके) के मानद प्रोफेसर डॉ. साइमन पिरानी बताती हैं कि सौर ऊर्जा केवल तकनीकी बदलाव नहीं है, बल्कि यह सामाजिक परिवर्तन की संभावना भी अपने भीतर लिए हुए है। रूफटॉप सोलर—अपनी सरलता, स्थानीय नियंत्रण और सामुदायिक स्वामित्व की क्षमता के कारण—ऊर्जा क्षेत्र में लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ़ सकता है।

लेकिन वैश्विक स्तर पर “हरित ऊर्जा” का नेतृत्व अब उन्हीं कंपनियों के हाथों में जाता दिख रहा है, जो कभी तेल और कोयले के कारोबार से मुनाफ़ा कमाती थीं। आज शेल रिन्यूएबल्स, बीपी एनर्जी, टोटल एनर्जीज़, टेस्ला, इबेरड्रोला, अडाणी ग्रीन एनर्जी जैसी कंपनियाँ दुनिया के नवीकरणीय ऊर्जा बाज़ार पर हावी हैं। यानी, फॉसिल ईंधन का पूँजी ढाँचा अब “ग्रीन कैपिटलिज़्म” के नए नाम से लौट आया है।

दक्षिण में सौर छतों की बगावत

चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा सौर उत्पादक देश है। वहां लगभग 80 प्रतिशत सौर छतों का स्वामित्व सरकारी ऊर्जा कंपनियों के पास है। वर्ष 2022 में इनसे उत्पन्न 120 टेरावॉट प्रति घंटा बिजली नीदरलैंड की सालाना खपत के बराबर रही।

पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका में भी रूफटॉप सोलर आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन चुका है। पाकिस्तान में 2024 में 8 गीगावॉट नई सौर क्षमता जुड़ी और 1.5 लाख उपभोक्ता अब अपनी अतिरिक्त बिजली बेच रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका में लोग इसे बार-बार होने वाले बिजली संकट से निजात पाने के साधन के रूप में देख रहे हैं।

इन देशों का अनुभव बताता है कि सौर ऊर्जा अब केवल जलवायु का नहीं, बल्कि सामाजिक सुरक्षा और आत्मनिर्भरता का प्रश्न भी बन चुकी है।

भारत : हरित पूंजी और असमानता के बीच

भारत ने 2030 तक 500 गीगावॉट स्वच्छ ऊर्जा का लक्ष्य तय किया है, जिसमें सौर ऊर्जा की हिस्सेदारी सबसे बड़ी है। लेकिन यहाँ भी सौर विस्तार का नेतृत्व कुछ बड़े औद्योगिक समूहों के हाथों में सिमटता जा रहा है।

मसलन,  अडाणी ग्रीन एनर्जी देश की सबसे बड़ी सौर उत्पादक कंपनी बन चुकी है। पिछले चार वर्षों में इसकी संपत्ति में पाँच गुना वृद्धि हुई है। रिलायंस न्‍यू एनर्जी सोलर लिमिटेड ने ग्रीन हाइड्रोजन और सोलर पैनल उत्पादन में 75 अरब डॉलर तक के निवेश की घोषणा की है। टाटा पावर सोलर, रिन्‍यू पॉवर, और अवाडा एनर्जी जैसी कंपनियाँ अब घरेलू ही नहीं, बल्कि वैश्विक निवेश की नई मंज़िल बन चुकी हैं।

दरअसल, हरित प्रक्रिया के इस दौर में भी पूंजी का केंद्रीकरण जारी है। नवीकरणीय ऊर्जा पर कॉरपोरेट नियंत्रण यह संकेत देता है कि साफ ऊर्जा भी पुराने ढांचे के भीतर ही पल रही है — यानी प्रकृति के नाम पर पूंजी का नया रूप।

छतों से आती रोशनी : स्थानीय प्रयोगों की ताकत

फिर भी भारत में कई स्थानीय प्रयोग उम्मीद की किरण दिखाते हैं। केरल के त्रिशूर जिले में सौर ग्राम पंचायत मॉडल के तहत पंचायतों ने सामूहिक स्वामित्व और साझा रखरखाव व्यवस्था अपनाई है। गुजरात के आनंद ज़िले में दुग्ध सहकारी समितियां अब अपने चिलिंग प्लांट सौर ऊर्जा से चला रही हैं।

उत्तराखंड, झारखंड और लद्दाख जैसे दूरदराज इलाक़ों में माइक्रोग्रिड मॉडल के जरिये छोटे समुदाय बिना राष्ट्रीय ग्रिड पर निर्भरता के 24 घंटे बिजली पा रहे हैं। ऐसे में 637 गीगावाट जैसा आंकडा यह दिखाता है कि सैकड़ों लाखों घरों की छतें सोलर ऊर्जा उत्पादन के लिए उपयुक्त हैं।

नीतियां और स्वामित्व का सवाल

भारत सरकार की प्रधानमंत्री सौर रूफटॉप योजना (2024) में 10 लाख घरों को सौर ऊर्जा से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। परंतु शुरुआती लागत, रखरखाव और वित्तीय संस्थानों की अनिच्छा अभी भी बड़ी बाधा हैं।

दरअसल, सौर ऊर्जा का भविष्य इस सवाल पर निर्भर करेगा कि इसका स्वामित्व किसके पास है। अगर ऊर्जा उत्पादन कॉरपोरेट नियंत्रण में ही रहा, तो यह इंटरनेट की तरह कुछ कंपनियों के प्रभुत्व वाला औज़ार बन जाएगा।

लेकिन यदि इसका संचालन सहकारी समितियों, नगरपालिकाओं और समुदायों के हाथों में आता है, तो यह ऊर्जा को सार्वजनिक वस्तु बना सकता है, जो नागरिकों के अधिकार का विस्तार होगा, न कि केवल सुविधा का साधन।

छत आधारित सौर केवल स्वच्छ ऊर्जा नहीं, बल्कि शक्ति के पुनर्वितरण का माध्यम भी है। यह वह अवसर है जहाँ एक किसान या गृहस्वामी अपनी अतिरिक्त बिजली बेच सकता है, जैसे वह अपनी उपज बेचता है। यह केवल उत्पादन नहीं, बल्कि नागरिक भागीदारी का विस्तार है।

भारत जैसे देश के लिए यह ऊर्जा मात्र तकनीकी बदलाव नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण परिवर्तनकाल का प्रश्न है, जहाँ सौर ऊर्जा का लाभ केवल पूँजीपतियों तक सीमित न रहे, बल्कि आम लोग भी इसका हिस्सा बनें।

वास्‍तव में यदि सौर ऊर्जा को समाज की भलाई के लिए उपयोग करना है, तो इसके स्वामित्व और नियंत्रण के ढाँचे पर पुनर्विचार करना होगा। विकेन्द्रित सौर ऊर्जा केवल एक तकनीक नहीं, बल्कि साझी और न्यायसंगत ऊर्जा संस्कृति की ओर ले जाने वाला सामाजिक उपकरण है।

कुमार सिद्धार्थ, पिछले चार दशक से पत्रकारिता और सामाजिक विकास के क्षेत्र में सक्रिय है। आप शिक्षा, पर्यावरण, सामाजिक आयामों पर देशभर के विभिन्‍न अखबारों में लिखते रहते हैं। आप सर्वोदय ‘सर्वोदय प्रेस सर्विस (सप्रेस)’ फीचर एजेंसी से सम्‍बद्ध है। विगत दो दशक से राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका पर्यावरण डाइजेस्‍ट (रतलाम) एवं ‘पर्यावरण विकास’ (इंदौर) का सम्पादन भी कर रहे हैं।