ऊर्जा

कोविड-19: क्रूड कीमतों में बड़ी गिरावट के बीच ‘ग्रीन पैकेज’ की जरूरत

Tarun Gopalakrishnan

जलवायु के लिए कच्चे तेल (क्रूड ऑयल) की कीमतों का शून्य से नीचे जाने का क्या मतलब है? पहली नजर में तो बिजली से चलने वाली गाड़ियां और पवन ऊर्जा से मिलने वाली बिजली आदि पेट्रोल-डीजल जैसे जीवाश्म ईंधनों के विकल्प के रूप में महंगी लगने लगती हैं और इससे कार्बन उत्सर्जन कम करने के अभियान को भी धक्का लगता दिखता है। हालांकि, यह एक झूठी तसल्ली ही होगी कि क्रूड ऑयल की कीमतों में इतनी अधिक गिरावट बेहद कमजोर डिमांड (मांग) का नतीजा है। क्रूड की कम डिमांड एनर्जी (ऊर्जा) के सभी आपूर्तिकर्ताओं के लिए है, जिनमें अक्षय ऊर्जा से लेकर टेक्नोलॉजी (तकनीकों) के उत्पादक भी शामिल हैं।

कमजोर डिमांड ही सिर्फ क्रूड की कीमतों में इस तरह की बड़ी गिरावट का एकमात्र कारण नहीं है। 2008 के विश्वव्यापी वित्तीय संकट से भी क्रूड की डिमांड और कीमतों में बड़ी गिरावट आई थी, लेकिन वह गिरावट वर्तमान गिरावट के आसपास भी नहीं थी। उसके बाद अंतर यह आया है कि क्रूड ऑयल की सप्लाई काफी उठापटक से भरी रही है।

इस उठापटक के सबसे बड़े कारणों में अमेरिकी शैल ऑयल और गैस के उत्पादन में बड़ा विस्तार होना है। इसके कारण अमेरिका पिछले कई दशकों में पहली बार क्रूड का बड़ा निर्यातक बन गया। अमेरिका के इस विस्तार की काट सऊदी अरब ने 2013-14 में निकाली। उसने क्रूड के उत्पादन में बड़ा इजाफा कर दिया, जिससे इसकी कीमतों में कमी आ गई। इससे उन क्रूड उत्पादक देशों के लिए ही क्रूड का निरंतर उत्पादन और निर्यात संभव रह गया, जिनके पास काफी अधिक कैश रिजर्व (जैसे-पेट्रो-स्टेट बजट) था।

हालांकि, सऊदी प्राइस वार आंशिक रूप से ही सफल रहा। अमेरिकी शैल इंडस्ट्री कमजोर पड़ गई, लेकिन वह कभी खत्म नहीं हो गई। 2019 में अमेरिका दुनिया में क्रूड ऑयल के पांच सबसे बड़े निर्यातकों में शामिल था और अनुमान है कि 2024 तक वह इस मामले में रूस से आगे हो जाएगा। उस खतरे के साथ क्रूड की कम कीमतों के खतरे ने ओपेक और रूस को 2016 में क्रूड ऑयल प्रोडक्शन के मामले में आपस में संधि और सहयोग करने के लिए बाध्य किया। यही कारण है कि 2016 और 2019 के बीच क्रूड ऑयल मार्केट में एक नई तरह की सामान्य स्थिति आई।

पिछले दो वर्षों के दौरान कमजोर वैश्विक आर्थिक विकास दर के कारण 2016 की संधि अधिक सफल नहीं रही और फिर वर्तमान कोविड-19 महामारी ने इसे और खराब कर दिया। मार्च में ओपेक और रूस के बीच बातचीत बेनतीजा रही। कोविड के बाद क्रूड उत्पादन के मामले में कौन सा देश कितना त्याग करेगा, इस बात पर दोनों पक्षों में सहमति नहीं बन पाई। यही कारण है कि सऊदी अरब ने फिर से बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की ताबड़तोड़ कोशिश शुरू कर दी। सऊदी अरब ने क्रूड का उत्पादन बढ़ाते हुए खरीदारों को कीमतों में बड़ी छूट देनी भी शुरू की। रूस ने भी इसी तरह की नीति अपनाई। घटती ग्लोबल डिमांड के बीच क्रूड का उत्पादन बढ़ने से कीमतों में ऐतिहासिक गिरावट आ गई।

अब सवाल उठता है कि क्रूड की इस बड़ी गिरावट का जलवायु के लिए क्या मतलब है? प्राइस वार का मकसद कुछ क्रूड उत्पादकों को हमेशा के लिए इस बिजनेस से बाहर कर देना होता है। इस मामले में, सबसे कमजोर अमेरिकी शैल प्रोड्यूशर हैं, जिन्हें इस बिजनेस में टिके रहने के लिए 50-60 डॉलर की कीमत चाहिए। कॉरपोरेट कंपनियों के रूप में इससे कम पर वे नहीं टिक पाएंगे, जिससे वर्ल्ड क्रूड सप्लाई का एक महत्वपूर्ण स्रोत खत्म होने की संभावना भी दिखने लगती है।

यही कारण है कि पिछले सप्ताह अमेरिका ने रूस और ओपेक को उत्पादन में कटौती के लिए तैयार किया, जिसका पूरा असर जून के बाद ही दिखेगा। इससे अमेरिकी शैल कंपनियां भी एक बार फिर कमजोर हालत में ही सही, लेकिन टिके रहने में सक्षम हो सकती हैं। अलबत्ता, कुछ कॉरपोरेट तेल कंपनियां भले ही खत्म हो जाएं, लेकिन तेल के भंडार बने रहेंगे।

पिछले दिनों जब कीमतों में बहुत उछाल आया था, इन अमेरिकी शैल कंपनियों ने बुनियादी तौर पर अपनी कमजोर आर्थिक हालत के बावजूद बड़ी मात्रा में पूंजी बनाई थी। जबकि शैल कंपनी के एक पूर्व सीईओ ने कहा कि इस इंडस्ट्री ने अभी तक अपनी 80 फीसदी पूंजी गंवा दी, जो इसने बनाई थी। इन सबके अलावा, ट्रंप प्रशासन पर्यावरणीय डीरेगुलेशन (पर्यावरणीय नियमों को नजरअंदाज करना) एजेंडे पर काम कर रहा है, जिसे उसने कोरोना महामारी के निपटने का तरीका बताया है। लेकिऩ यह तेल कंपनियों को अत्यधिक लाभ देने का ही तरीका है।

क्रूड की इन कीमतों का यह बहुत बड़ा खतरा है, खासकर ऐसे समय जब पूरी ग्लोबल इकोनॉमी खस्ताहाल है। ऐसी हालत में कुछ उद्योगों को मदद देकर टिकाए रखने और कुछ को खत्म होने देने के लिए सरकारी स्तर पर उपाय हो रहे हैं। इस स्थिति में एक प्रत्यक्ष समाधान यह होगा कि टिक पाने में अत्यधिक अक्षम शैल ऑयल कुओं के पर्यावरणीय डीरेगुलेशन के खिलाफ एक मजबूत अभियान चलाया जाए। सस्ता तेल तब सस्ता नहीं होता है, जब समुदायों और जलवायु पर उसके असर पर विचार किया जाता है।

इसका दूसरा समाधान आयातकों की तरफ से आना चाहिए। कीमतों में बड़ी गिरावट को संतुलित करने के लिए भारत ने पहले ही ईंधन पर अपना टैक्स बढ़ा रखा है। हालांकि, इससे आने वाले टैक्स कलेक्शन के एक बड़े हिस्से का उपयोग प्रत्यक्ष कर संग्रह में होने वाली कमी को पाटने के लिए किया जा रहा है। इस संग्रह के एक बड़े हिस्से का उपयोग ग्रीन स्टीमुलस स्पेंडिंग यानी अक्षय ऊर्जा उत्पादकों को मदद देने और भारत में अक्षय ऊर्जा टेक्नोलॉजी, खासकर सोलर पैनल्स और इलेक्ट्रिक बैटरी के निर्माण को बढ़ावा देने के लिए किया जाना चाहिए।

आखिर में, इस स्थिति का एक दीर्घकालीन समाधान यह है कि तेल निर्यातक देश अपनी इकोनॉमी को डाइवर्सिफाई करे, यानी तेल से इतर अन्य क्षेत्रों में भी वर्ल्ड कैपिटल का निवेश होने दें। यह समाधान सऊदी अरब या रूस के लिए नहीं है, जिनका व्यापक क्रूड रिजर्व के कारण तेल के प्रति एक विचारधारात्मक प्रतिबद्धता है। मैक्सिको, अंगोला, अल्जीरिया और गोबन जैसे मुल्क भले ही तुलनात्मक रूप से छोटे हैं, लेकिन वे भी क्रूड के बड़े निर्यातक हैं। इनके पास अक्षय ऊर्जा से जुड़ी मैन्युफैक्चरिंग और बिजली उत्पादन का हब बनने की काफी क्षमता है।

सैद्धांतिक तौर पर, इन देशों की ग्रीन मैन्युफैक्चरिंग में निवेश करने के दो फायदे हैं। इससे वे क्रूड के बड़े उत्पादकों द्वारा शुरू प्राइस वार से निपटने में सक्षम होंगे। किसी बड़े उत्पादक द्वारा क्रूड की कीमतों में अचानक बड़ी कमी करने की स्थिति से निटपने में भी वे सक्षम हो पाएंगे। दूसरा, इससे जलवायु से जुड़ी चिंताएं एजेंडे का हिस्सा बनेंगी, भले ही वह ओपेक की वार्ता ही क्यों न हो। इससे क्रूड प्रोडक्शन में उपयुक्त तरीके से कमी करने के लिए सभी पक्षों के बीच बातचीत हो पाएगी।