ऊर्जा

चुटका परियोजना-1: इन 54 गांवों में क्यों पसरा है आतंक का साया?

Anil Ashwani Sharma

चालीस साल पहले मध्य प्रदेश के चुटका सहित 54 गांव बरगी बांध के कारण विस्थापित हुए थे। अब इन गांवों पर चुटका परमाणु विद्युत परियोजना से विस्थापित होने की तलवार लटक रही है। आखिर कितनी बार कोई आदिवासी अपने घर-द्वार-जल-जंगल और जमीन छोड़ेगा? अनिल अश्विनी शर्मा ने चुटका सहित कुल 11 गांवों में जाकर आदिवासियोें के उजड़ने और फिर बसने की पीड़ा जानने की कोशिश की। उनके चेहरों पर उजड़ने का डर नहीं अब गुस्सा है। यह गुस्सा चिंगारी बनकर कभी भी भड़क सकता है। पढ़ें, इस रिपोर्ट की पहली कड़ी-

“हम किसी भी सूरत में अपने गांव में परमाणु बिजली घर नहीं बनने देंगे, 40 साल पहले सरकार ने सिंचाई के नाम पर बांध बनाकर हमारे पुश्तैनी घरद्वार-जंगल, मवेशी सब डुबा कर हमारा सर्वनाश ही कर दिया था। लेकिन तब से अब तक जैसे-तैसे हमने एक-दूसरे का हाथ पकड़ इस बियाबान जंगल में आकर जीने की राह बनाई। अब बिजली के नाम पर हमें खदेड़ने की तैयारी है।” यह आक्रोश भरा स्वर चुटका गांव के दादु लाल कुंडापे का उस समय फूट पड़ा जब डाउन टू अर्थ ने उनसे गांव में लगने वाले परमाणु बिजली घर की स्थिति के बारे में जानना चाहा।

मध्य प्रदेश के मंडला जिले के चुटका सहित 54 गांवों को इस परमाणु बिजली घर के बारे में लगभग 25 साल बाद पता चला। चुटका गांव में अक्टूबर, 1984 में परमाणु ऊर्जा आयोग का विशेष दल स्थल निरीक्षण के लिए आया था। इस संबंध में चुटका गांव निवासी नवरतन दुबे बताते हैं कि इसके बाद फिर एक दल आया 1985-86 में और उसने 4 से 500 फीट ड्रिलिंग की। इसके बाद मिट्टी निकाल कर उसे लैब भेजा। उस समय हमसे कहा गया कि चूंकि हम बरगी बांध से विस्थािपत हैं इसलिए सरकार यहां एक फैक्ट्री स्थापित करने जा रही है। लेकिन हमें इस परमाणु बिजली घर की जानकारी 14 अक्टूबर, 2009 को तब हुई जब जबलपुर के स्थानीय अखबारों में इस आशय की खबर छपी कि चुटका में परमाणु बिजली घर बनेगा और इससे 54 गांव विस्थापित होंगे।

तब इसके विरोध में आदिवासी ग्रामीणों ने पहली बार 20 अक्टूबर, 2009 को एक बैठक कर चुटका परमाणु विरोधी संघर्ष समिति का गठन किया। समिति ने 22 अक्टूबर, 2009 को मंडला जिले के तत्कालीन कलेक्टर एके खरे को एक ज्ञापन सौंप कर विरोध जताया।

पिछले एक दशक से आदिवासियों ने लगातार संघर्ष कर चुटका गांव में प्रस्तावित परमाणु बिजली संयंत्र का निर्माण नहीं होने दिया है। ग्रामीणों ने कहा कि हम किसी भी कीमत पर अपना गांव नहीं छोड़ने वाले। ध्यान रहे कि इस परियोजना से 1.25 लाख लोग विस्थापित होंगे। इस परियोजना को केन्द्र सरकार द्वारा अक्टूबर, 2009 में मंजूरी प्रदान की गई। इसमें बताया गया कि न्यूक्लियर पावर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआईएल) द्वारा इस परमाणु बिजली घर का निर्माण किया जाएगा। जमीन, पानी और बिजली आदि के लिए मध्य प्रदेश पावर जेनरेटींग कंपनी को नोडल एजेंसी बनाया गया है। यह भी कहा गया कि 700 मेगावाट की दो यूनिट से 1,400 मेगावाट बिजली बनाने के बाद जल्द ही इनका विस्तार कर 2,800 मेगावाट बिजली बनाने का प्रस्ताव है। इस योजना की प्रारंभिक लागत 16,500 करोड़ रुपए आंकी गई है। चुटका, टाटीघाट, कुंडा और मानेगांव की लगभग 497 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जाना प्रस्तावित है। इसमें 288 हेक्टेयर जमीन निजी खातेदारों की और 209 हेक्टेयर जमीन राज्य सरकार के वन विभाग और नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की है। जबकि संयंत्र को स्थापित करने के लिए कुल 6663.22 हेक्टेयर वन भूमि और वन क्षेत्र वाली 76699.56 हेक्टेयर सरकारी भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा। ध्यान रहे कि इन गांवों में 85 फीसदी गोंड जनजाति के आदिवासी रहते हैं।

फिर विस्थापन

चुटका परमाणु बिजली घर की प्रस्तावित जमीन पर खड़े कुंडापे दूर तक फैले बरगी बांध के जल संग्रहण क्षेत्र की ओर अंगुली दिखाते हुए कहते हैं कि हर किसी के लिए पानी जीवन होता है लेकिन हमारे लिए तो यह पानी पिछले 40 साल से मरणशैय्या बना हुआ है। पहले पानी के पास होने के कारण हटाए गए और अब पानी गांव के तीन ओर है, इसलिए हटाए जा रहे हैं। वह बताते हैं कि हमारा यह गांव नर्मदा नदी के किनारे ही बसा था। हमारे गांव के सामने से नदी का बहाव क्षेत्र था। 1975 में पहली बार जब हमने अपने बुजुर्गों से सुना कि अब डूब जाएंगे तो हमारे मन में यह सवाल कौंधा कि अभी तो नर्मदा में बाढ़ भी नहीं आ रही है ऐेसे में हम कैसे डूब जाएंगे। तब हमारे पिता जी ने बताया कि यहां एक बड़ा बांध बनने वाला है और उसके डूब क्षेत्र में हमारा यह गांव भी आता है। कुंडा गांव के निवासी बाबूलाल बताते हैं कि तब हमें लालच दिया गया था कि हमें मुफ्त बिजली, परिवार के एक सदस्य को नौकरी, घर और खेतों का मुआवजा मिलेगा। लेकिन कुछ नहीं मिला। हर परिवार को 1,300 रुपए मात्र िदए गए।

कुंडापे अपने पहले विस्थापन को याद करते हुए कहते हैं कि 1980 में जब बरगी बांध बनना शुरू हुआ तो हम आदिवासियों को ढोर-गंवारों की तरह सरकार ने हांक दिया और हाथ पर रख दिया था कुछ सौ के नौट। तब हम जैसे-तैसे इस ऊंचे पहाड़ी टीले पर आ बसे कि यहां तक तो पानी नहीं ही आएगा। हमें क्या मालूम था कि यहां जंगल में बसना भी हमारे लिए मुसीबत बन कर आएगा। वह बताते हैं कि अब हमारे गांव के तीन ओर लबालब भरे इस बरगी बांध के पानी पर सरकारी लार पिछली 11 सालों से टपक रही है।