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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव: किसकी 'नैय्या' को पार लगाएंगे निषाद

Aman Gupta

नदी पर रहें हम, नाव चलाएं हम, मछली पकड़ें हम और मुनाफा किसी दूसरे का...

यह कोई नारा या कविता की पंक्तियां नहीं हैं, बल्कि ये शब्द प्रयागराज के रसूलाबाद गंगा घाट पर नाव चलाने वाले राजू के हैं। राजू निषाद समुदाय  से हैं। वह और उनका परिवार पूरी तरह से गंगा पर आश्रित हैं। लेकिन जब से मछली पकड़ने के ठेके दिए जाने लगे तो राजू के परिवार के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है।

राजू की ही तरह बांदा जिला मुख्यालय से सटे एक गांव के रहने वाले रामबाबू के सामने भी ऐसा ही संकट खड़ा हो गया है। वह नदी से बालू निकाल कर बेचते थे, लेकिन अब उनका काम बंद है। राम बाबू भी निषाद समुदाय से ही हैं।

दरअसल, उत्तर प्रदेश में लगभग दो करोड़ की आबादी वाला निषाद समुदाय इस समय रोजी रोटी के गंभीर संकट का सामना कर रहा है। क्योंकि नदियों पर उनका अधिकार छीना जा रहा है।

केन नदी के घाट पर होने वाली नदी जल आरती के मौके पर उपस्थित रामबाबू बताते हैं कि निषाद समुदाय सदियों से नदी आधारित हैं। इसलिए हम लोग नदी का पूरा परितंत्र बेहतर तरीके से समझते हैं। पर्यटकों को नाव पर घुमाना, नदी से बालू निकालना और मछली पकड़ना हमारा सदियों पुराना व्यवसाय है। इसी से हमारी रोजी रोटी चलती है। लेकिन पिछले कुछ सालों से हमारे रोजगार पर संकट है। हमारे ही व्यवसाय में हमारा दबदबा नहीं रहा।

बांदा जिले ऊषा निषाद, समाज के मुद्दों पर काम करती हैं। वह कहती हैं कि नदी से बालू निकालना तो हमारा सदियों पुराना पेशा है। हमारे समाज के लोग इसके अलावा और कोई काम भी नहीं करते हैं। लेकिन हमको हमारे इसी काम पर अब रोक लगा दी गई है, अब हम क्या करें ? ये काम बंद होने के कारण अलग अलग जगहों पर बहुत सारे लोग बेरोजगार हुए हैं, जिन्हें मजबूरी में बाहर जाकर अन्य दूसरे काम करने पड़ रहे हैं।

24 जून 2018 को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने एक आदेश के जरिये नदियों पर किसी भी प्रकार से हो रहे खनन पर रोक लगा दी। बाद में उसी आदेश में लिखा कि छोटी मशीनों से नदी को धारा को छोड़कर आसपास से बालू निकाल सकते हैं।

ऊषा कहती हैं कि एनजीटी के इस आदेश का फायदा बड़े व्यापारी उठा रहे हैं। एक तरफ हमारे (निषादों) काम करने पर रोक है दूसरी तरफ बड़े व्यापारी मशीनों के जरिए नदी से बालू निकाल रहे हैं। सरकारों ने इसके लिए बकायदा पांच साल के लिए पट्टे दिए हैं। करोड़ों में उठने वाला ठेका नाव पर हाथ से बालू निकालने बिरादरी के किसी आदमी के लिए तो नामुमकिन है। हमारी इतनी हैसियत तो नहीं है।

रामबाबू कहते हैं कि हम लोग मानवीय तरीके से नदी की धारा को प्रभावित किए बिना हाथ से बनी लग्गियों के सहारे नदी से बालू निकालते हैं, जिसमें मशीनों का प्रयोग बिल्कुल भी नहीं होता है, इससे पर्यावरण को क्या ही नुकसान पहुंचेगा? अगर थोड़ा बहुत मान भी लें तो जेसीबी, पोलैंड जैसी बड़ी मशीनों के मुकाबले तो ये बिलकुल ही कम है। हम लोग सदियों से नदियों के सहारे जीवनयापन कर रहे हैं तो जानते हैं कि क्या सही है और क्या गलत?

हमीरपुर जिले के सीमा में बहने वाली बिरमा नदी पर बने स्वामी ब्रह्मानंद डैम में मछली पकड़ने का काम करने वाले संतोष बताते हैं कि इस बांध में मछली पालन का अधिकार एक ठेकदार के पास है। उसी ने यहां बीज डाला था। हम लोग उसके लिए मछलियां निकालते हैं जिसका हमको पैसा मिलता है। इससे ज्यादा हमारा इस बांध पर कोई अधिकार नहीं है।

वह कहते हैं कि पहले नदियों में मछलियां होती थी लेकिन अब छोटी नदियों साल के ज्यादातर दिनों में पानी ही नहीं रहता, तो मछलियां भी नहीं होती। छोटी नदियों में पानी की कमी और बड़ी नदियों में प्रदूषण नदी की धारा रोककर बनाये गये बांधों के कारण मछलियों के पालन में कमी आई है। 

गंगा यमुना के संगम पर बसे प्रयागराज और गंगा के किनारे पर बसे बनारस का निषाद समाज दूसरी तरह की दिक्कतों से जूझ रहा है। इलाहाबाद के अमित कहते हैं कि इन शहरों में पर्यटकों की संख्या बढ़ी है, लेकिन उसका फायदा अब हम लोगों को नहीं मिल रहा, क्योंकि बनारस के घाटों पर अब सैलानियों को घुमाने के लिए अलकनंदा कम्पनी के क्रूज और स्टीमर चल रहे हैं। दिनभर मेहनत के बाद भी हम शाम को कुछ नहीं बचा पाते। नदी में क्रूज डालने से रोकने के लिए हमने बहुत विरोध किया, लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनीं।

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से निषाद समुदाय की हिस्सेदारी की चर्चा जोरों पर है। अनुमान है कि उत्तर प्रदेश में निषाद समुदाय के मतदाताओं का हिस्सेदारी लगभग 8 प्रतिशत है। यही वजह है कि लगभग हर राजनीतिक दल इन्हें वादों की गठरी पकड़ा रहे हैं। 

भाजपा निषादों को आरक्षण देने का वादा कर रही है। समाजवादी पार्टी समुदाय के लोगों को मुफ्त नाव देने की बात रही है तो कांग्रेस नदी पर अधिकार का आश्वासन दे रही है। अभी यह कह पाना संभव नहीं है कि निषाद समुदाय के लोग किस पार्टी पर भरोसा करेंगे, लेकिन यह जरूर है कि उनके लिए यह चुनाव उनके अस्तित्व का सवाल बन गया है। 

पेशे से इतिहासकार और निषाद पर समाज पर एक किताब लिख रहे रमाशंकर सिंह बताते हैं कि निषाद समाज इस समय गंभीर मुसीबत में है। उसके काम करने पर प्रतिबंध लगे हुए हैं। यह समुदाय परंपरागत पेशे वाला समाज है, इसके चरित्र में बदलाव बहुत धीमा है। यही कारण है कि ये काम में पिछड़ जाता है। नदी से बालू निकालना हो या मछली पकड़ना हो या फिर नाव चलाना हो इसने सभी जगह वही पुरातन तरीके अपनाए हुए हैं।

सिंह कहते हैं कि निषाद समुदाय के लोगों की सोच है कि जिस नदी से उनकी रोजी रोटी चल रही है उसमें हस्तक्षेप न किया जाए। नदियों को अगर सहेजा नहीं गया तो ये खत्म हो जाएंगी। इसमें समुदाय में पढ़ाई लिखाई को लेकर भी जागरूकता की कमी है, इस कारण समुदाय की बड़ी आबादी अभी पिछड़ी हुई है। सरकारों ने भी इसके लिए बहुत प्रयास नहीं किए।

जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट से नदियों और नदी समुदायों पर शोध कर रहे गोविंद निषाद कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के निषादों के लिए अनुसूचित जाति (एससी) की श्रेणी में शामिल कर आरक्षण देने का मुद्दा काफी अहम है। क्योंकि निषादों की एक उपजाति है मझवार(माझी) जिसको उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले से एससी केटेगरी में शामिल किया हुआ है। समाज के लोगों का कहना है कि जब एक जाति को शामिल किया गया है तब बाकि जातियों को भी इसमें शामिल किया जाए, जिससे सभी को उसका लाभ मिले।