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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव: क्या आवारा मवेशी बन गए हैं चुनावी मुद्दा, भाग-एक

उत्तर प्रदेश में लगभग 12 लाख छुट्टा मवेशी हैं, राज्य सरकार उनका पालन-पोषण करना चाहती है, लेकिन क्या यह संभव है

Raju Sajwan, Gaurav Gulmohar, Aman Gupta

संतराम कुशवाहा उस रात को अपने खेत पर रुके थे। आधी रात को जब उनकी नींद खुली, तो देखा कि कुछ मवेशी उनके खेत में चर रहे हैं। उन गाय-बैलों को भगाने के लिए वह उठे और मवेशियों की ओर बढ़े, तभी उन मवेशियों में से एक ने पलट कर संतराम पर हमला कर दिया। अचनाक हुए हमले से बचने के लिए वे वापस दौड़ लगाने लगे और गिर पड़े। 

इस भागदौड़ में फसल का जो नुकसान हुआ, वो अलग, उनके शरीर में इतनी चोटें आई कि दो दिन बाद भी वे बिस्तर से उठने के हाल में नहीं हैं। रात में खेत पर रहकर खेतों की रखवाली करने वाले संतराम अकेले नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के ही बंडवा गांव के प्रदीप का हाल भी इससे अलग नहीं है। फसलें जब जमने लगती हैं उसके बाद से वह हर रोज खेत पर ही रुकते हैं। इसके लिए खेत पर ही एक अस्थाई झोपड़ी बना ली है, जिसमें वहां रुकने के लिए आवश्यक सामान रखा रहता है।

यह समस्या केवल हमीरपुर के संतराम या प्रदीप की ही नहीं, बल्कि यहां से लगभग 250 किलोमीटर दूर अमेठी जिले के टीकरमाफी गांव में रह रहे शेरबहादुर सिंह की भी है। 

वह कहते हैं, "मैं हर साल तीन एकड़ के अपने खेतों में धान की फसल लगाता हूं। लगभग एक लाख रुपए की बिक्री होती है, लेकिन इस साल छुट्टा मवेशियों ने पूरी फसल बर्बाद कर दी, केवल तीन कुंतल धान ही निकल पाया। जो अपने परिवार के लिए ही पूरा हो पाएगा। फसल बर्बाद होने के कारण अब मैं किसान क्रेडिट कार्ड की किस्त कैसे चुकाऊंगा, बिजली का बिल तक भरने के पैसे मेरे पास नहीं है। इन पशुओं के कारण तो मेरे जैसे किसान सड़क पर आ गए हैं।"

उत्तर प्रदेश में इस समस्या की शुरुआत 2017 में तब हुई, जब केेंद्र व राज्य सरकार ने दो अलग-अलग फैसले लिए। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 23 मई 2017 को 'पशुओं के खिलाफ क्रूरता रोकथाम (पशु बाजार नियमन) कानून 2017' की अधिसूचना जारी की तो राज्य सरकार ने उत्तर प्रदेश गोवध निवारण अधिनियम, 1955 को राज्य में सख्ती से पालन के आदेश जारी किए। इसके चलते जहां राज्य में बूचड़खाने बंद कर दिए गए, वहीं मवेशियों खासकर गाय-बैलों का व्यापार भी प्रभावित हो गया। 

हालांकि केंद्र के आदेश के बाद कई राज्यों में इसका असर देखा गया, लेकिन उत्तर प्रदेश में सख्ती कुछ ज्यादा ही दिखाई गई। हालात यह बने कि पशुपालकों ने अपने अनुत्पादक मवेशियों को बेसहारा छोड़ दिया। यहां तक कि एक बड़ी संख्या में नेपाल सीमा पार तक पहुंचाया गया। इन इलाकों में हिंसक संघर्ष की घटनाएं हुईं। (पढ़ें: गुपचुप तरीके से नेपाल भेजे जा रहे हैं मवेशी) 

इसका दो तरफा असर दिखाई दिया। जहां पशुओं का व्यापार ठप पड़ने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई। मवेशी अर्थव्यवस्था देश के सबसे गरीब लोगों के सर्कुलर अर्थव्यवस्था का एक आदर्श उदाहरण है। गायों को दूध देने तक उत्पादक माना जाता है। वे तीन से 10 साल की उम्र तक दूध देती हैं, लेकिन 15-18 साल तक जीवित रहती हैं।

लेकिन एक बार उत्पादकता आयु समाप्त हो जाने के बाद मालिकों के लिए वे अनुत्पादक होती हैं तो वे उन्हें बेच देते हैं। बेचने से मिलने रकम का इस्तेमाल वे पशुपालक नए मवेशी को खरीदने के लिए करते हैं। एक मवेशी अपने जीवनकाल में कम से कम चार से पांच किसानों के घरों से होकर गुजरती है। इससे मवेशियों के नस्ल सुधार में मदद मिलती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पशुपालक किसान उत्पादक और गैर-उत्पादक मवेशियों के बीच संतुलन कैसे बनाते हैं।

लेकिन सरकारी सख्ती के चलते जब मवेशियों की बिक्री बंद हो गई तो पशुपालकों की एक निर्धारित आय भी रुक गई और वे नए सिरे से पशुओं को नहीं खरीद पाए, जिसका असर पशुपालकों की आर्थिक स्थिति पर पड़ा। खासकर एक समुदाय विशेष ने तो दुधारू पशुओं को भी बेसहारा छोड़ दिया। डाउन टू अर्थ की 2019 की रिपोर्ट बताती है कि मवेशी अर्थव्यवस्था का यह संकट लगभग 35 साल के विकास के बाद खड़ा हुआ था। (पढ़ें- पूरी रिपोर्ट: 35 साल के विकास के बाद मवेशी अर्थव्यवस्था संकट में )

वहीं, दूसरी ओर ये बेसहारा पशु सड़कों पर घूमने लगे या खेतों में घुसने लगे। इससे जहां सड़क दुर्घटनाएं बढ़ीं। वहीं, किसानों को फसल का नुकसान होने लगा। 

ऐसा कोई ठोस अनुमान नहीं हैं कि इन छुट्टा मवेशियों की वजह से राज्य में फसलों का कितना नुकसान हो रहा है, क्योंकि फसलों के नुकसान का आकलन के दो तरीके हैं। या तो सरकार मुआवजा देने के लिए पटवारी या लेखपाल से खेतों का सर्वेक्षण करें या प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत किसान आवेदन करे। इन दो तरीकों से यह अंदाजा लगाया जाता है कि कितनी फसल का नुकसान हुआ है, परंतु इन बेसहारा मवेशियों से होने वाले नुकसान का तो न तो मुआवजा दिया जाता है और ना ही प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत क्लेम देने की व्यवस्था है। 

लेकिन नुकसान का एक अंदाजा अमेठी के भगतपुर निवासी किसान राम लाल वर्मा की इस बात से लगाया जा सकता है- 'इन छुट्टा मवेशियों से किसान इतना परेशान हैं कि पांच साल पहले किसान पांच-पांच बीघा मटर की खेती करते थे, गांव में काली मंदिर पर हरी मटर की मंडी लगती थी, जिले भर से व्यापारी आते थे, लेकिन अब यहां मंडी नहीं लगती, क्योंकि किसानों ने खेती करना ही छोड़ दिया। पूरे गांव में मात्र दो से तीन किसानों ने ही अरहर की बुवाई की होगी।'

वर्मा कहते हैं, 'बड़ी खेती करने वाले किसान तो अपने खेतों को कटीले तारों से चारों ओर से घेरकर खेती कर रहे हैं, लेकिन छोटे किसान छुट्टा मवेशियों की मार झेल रहे हैं।' दरअसल, इन छुट्टा मवेशियों से अपनी फसलों को बचाने के लिए किसानों ने तारों की बाढ़ लगाना शुरू कर दिया है।

किसान बताते हैं कि एक बीघा खेत के चारों ओर तारें लगाने का खर्च 10 से 12 हजार रुपए तक आ जाता है, जिससे खेती की लागत बढ़ गई है। लेकिन यदि इन छुट्टा मवेशियों की संख्या ज्यादा होती है तो वे इन तारों को भी तोड़ देते हैं। ऐसे में फसल का नुकसान तो होता ही है, साथ ही दोबारा तारबंदी पर खर्च अलग होता है। किसानों का कहना है कि एक ओर सरकार किसान की आय दोगुनी करने का दावा कर रही है तो दूसरी ओर फसल की लागत बढ़ती जा रही है।