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विधानसभा चुनाव में अछूता रहा उत्तराखंड में पलायन का मुद्दा

उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में जहां पलायन के शिकार क्षेत्रों में बहुत कम मतदान हुआ, वहीं चुनाव परिणाम बताते हैं कि मतदाताओं ने बदलाव को लेकर कोई भी खास उत्साह नहीं दिखाया

Trilochan Bhatt

उम्मीद की जा रही थी कि उत्तराखंड में 2022 के विधानसभा चुनाव में पलायन एक बड़ा मुद्दा बनेगा। बेशक भाजपा सरकार पलायन के मुद्दे पर पलायन आयोग का गठन करने और उसके मुख्यालय का भी पौड़ी से देहरादून पलायन करवाने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर सकी, लेकिन अनुमान लगाया जा रहा था कि पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के लिए और खासकर पलायन की सबसे ज्यादा त्रासदी झेल रहे जिलों में चुनाव के नतीजों में यह मसला साफ तौर पर नजर आएगा। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में जिस तरह से पलायन का एक बड़ा मुद्दा बनाने का प्रयास किया था और कई स्तरों पर इस समस्या के समाधान का भी वायदा किया था, वह आम मतदाता की समझ में नहीं आया।

उत्तराखंड में पलायन सबसे अधिक पलायन पौड़ी और अल्मोड़ा जिले से हुआ है। पौड़ी जिले की चौबट्टाखाल सीट पलायन से सबसे ज्यादा प्रभावित मानी जाती है, लेकिन यहां कांग्रेस की पलायन की समस्या को विभिन्न स्तरों पर सुलझाने का दावा मतदाताओं के गले नहीं उतरा। पौड़ी की लैंसडौन और पौड़ी सीट पर भी स्थिति यही रही। पलायन प्रभावित अल्मोड़ा जिले में भी एक बार सभी 6 सीटों पर सत्ताधारी भाजपा के उम्मीदवार बढ़त बनाये हुए है। रुद्रप्रयाग और चमोली जिलों में भी भाजपा आगे है। टिहरी पर कहीं-कहीं कुछ बदलाव जरूर नजर आ रहा है। लगातार पलायन की बात करने और घोषणा पत्र में पलायन को प्रमुख रूप से जगह देने वाले कांग्रेस के मुख्यमंत्री उम्मीदवार हरीश रावत की हार से साफ हो जाता है कि राज्य में लोगों की नजर में पलायन कोई बड़ा मुद्दा नहीं है।

चुनाव परिणाम से अलग कुछ अन्य आंकड़ों पर बात करें तो 2022 का विधानसभा चुनाव उत्तराखंड के लिए एक बार फिर से साफ-साफ संदेश दे गया है कि यदि राज्य में लगातार बढ़ते पलायन को रोका नहीं गया तो राज्य के राजनीतिक मानचित्र में आने वाले समय में एक बड़ा बदलाव आ सकता है। यह बदलाव मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों में सीटों के बंटवारे के रूप में होगा। यह आशंका हकीकत में बदली तो उत्तराखंड सिर्फ नाममात्र का पर्वतीय राज्य ही रह जाएगा। हाल के वर्षों में एक खास बात यह भी नजर आई है कि राज्य के आम लोग ही नहीं, बल्कि तमाम बड़े नेता भी पहाड़ से मैदान की ओर पलायन कर गये हैं, यहां तक कि वे अब चुनाव भी मैदानी सीटों से ही लड़ रहे हैं। मैदानी जिलों की तुलना में पर्वतीय जिलों में कम वोटिंग प्रतिशत भी इस तरफ इशारा करता है।

इस विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की संख्या और मतदान के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि मैदानी जिलों में जहां मतदाताओं की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों में यह बढ़ोत्तरी बहुत कम रही है। यही स्थिति मतदान की भी रही है। उत्तरकाशी जिले को छोड़ दें तो सभी पर्वतीय जिलों में मतदान औसत से कम हुआ है। पलायन से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य के पौड़ी, अल्मोड़ा और टिहरी जिलों में मतदान सबसे कम हुआ है। 

राज्य में 12 सीटों पर 50 हजार से कम मतदान हुआ है। इनमें पौड़ी, अल्मोड़ा और टिहरी जिले में चार-चार सीटें शामिल हैं। पौड़ी और अल्मोड़ा दो ऐसे जिले हैं, जहां 2001 से 2011 के बीच जनसंख्या में कमी दर्ज की गई थी। इन चुनावों में पौड़ी जिले की लैंसडौन सीट पर सबसे कम 40,159 लोगों ने वोट डाले और यहां मतदान प्रतिशत भी 50 से कम 48.12 प्रतिशत रहा। इसी जिले की चौबट्टाखाल सीट पर राज्य में मतदान प्रतिशत सबसे कम 45.33 प्रतिशत दर्ज किया गया। इस क्षे़त्र में 41,315 लोगों ने मतदान किया। पौड़ी जिले की यमकेश्वर और पौड़ी सीट पर भी 50 हजार से कम मत पड़े। यमकेश्वर में कुल पड़े मतों की 47,861 और मतदान प्रतिशत 53.94 रहा। पौड़ी सीट पर 48,275 वोट पड़े और मतदान प्रतिशत 51.82 रहा।

पलायन से सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में शामिल अल्मोड़ा की भी 6 विधानसभा सीटों में से 4 में 50 हजार से कम मतदान हुआ। सल्ट सीट पर 44,556 वोट पड़े और यहां मतदान प्रतिशत 45.92 रहा। रानीखेत में 41,258 लोगों ने वोट डाले, मतदान प्रतिशत 51.80 रहा। द्वाराहाट में 48,802 वोट के साथ मतदान प्रतिशत 52.72 और सोमेश्वर में 49,756 मतों के साथ मतदान प्रतिशत 56.92 रहा। टिहरी जिले की जिन 4 सीटों पर 50 हजार से कम वोट पड़े उनमें ेप्रतापनगर 42,609 मत (49.99 प्रतिशत), घनसाली 49,579 मत (50.38 प्रतिशत), देवप्रयाग 47,291 मत (54.94 प्रतिशत) और टिहरी 46,337 मत (55.03 प्रतिशत) शामिल हैं।

उत्तराखंड में पलायन की एक और तस्वीर भी मतदान के आंकड़ों में देखी जा सकती है और यह है पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का ज्यादा संख्या में मतदान करना। राज्य में बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं, जिनमें पुरुष रोजी-रोटी के लिए घरों से बाहर हैं, जबकि महिलाएं घरों में हैं। इन चुनावों में एक बार फिर राज्य के पर्वतीय जिलों की 34 में से 33 सीटों पर मतदान में महिलाएं पुरुषों से आगे रहीे। एक मात्र उत्तरकाशी जिले के पुरोला सीट पर पुरुष मतदाओं की संख्या महिलाओं से ज्यादा रही। राज्य के 34 पर्वतीय सीटों पर पुरुष मतदाताओं की संख्या 16,23,951 थी, इनमें से 8,59,642 यानी 52.94 प्रतिशत पुरुष मतदाताओं ने मतदान किया। दूसरी तरफ महिला मतदाताओं की संख्या इन सीटों पर 15,60,869 थी। इनमें से 9,91,748 यानी 63.54 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया।

पर्वतीय क्षेत्रों की इन 33 सीटों में 2017 के विधानसभा चुनाव में भी महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा रहा था। 2017 में पर्वतीय जिलों की सीटों में पुरुषों का मतदान प्रतिशत 51.15 और महिलाओं का मतदान प्रतिशत 65.12 दर्ज किया गया है। हालांकि 2017 की तुलना में 2022 में पुरुषों की मतदान प्रतिशत में कुछ बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इसके अलावा इन सीटों पर महिलाओं और पुरुषों की मतदान के अंतर में भी कुछ कमी आई है। 2017 में पर्वतीय जिलों की सीटों पर पुरुषों के मुकाबले हर सीट पर औसतन 5,116 ज्यादा महिलाओं ने वोट डाला था, जबकि इस बार यह अंतर प्रत्येक सीट पर औसतन 3,885 रहा।

दून स्थित एसडीसी फाउंडेशन के अध्यक्ष अनूप नौटियाल का कहना है कि पुरुषों और महिला मतदाताओं की संख्या में आई यह कमी कोविड काल में रिवर्स पलायन का नतीजा हो सकती है। वे कहते हैं कि राज्य सरकार और पलायन आयोग को इस मामले का अध्ययन करना चाहिए।

एसडीसी फाउंडेशन ने हाल ही में राज्य के मैदानी जिलों की सीटों पर मतदाताओं की संख्या में हुई अप्रत्याशित और असामान्य बढ़ोत्तरी को लेकर भी एक रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट संकेत करती है कि पहाड़ों से लगातार हो रहे पलायन के कारण अगले परिसीमन के बाद राज्य के मैदानी जिलों में विधानसभा सीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी और पहाड़ की सीटों में भारी कमी आ सकती है।

इस रिपोर्ट में 2012 और 2022 के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं की संख्या का आधार बनाया गया है। रिपोर्ट बताती है कि राज्य में 10 वर्षों में मतदाताओं की संख्या में 30 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई। मैदानी जिलों की सीटों में 59 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।

पहाड़ी क्षेत्रों से पलायन और यहां की सीटों पर कम मतदान का एक दुष्परिणाम यह सामने आ रहा है कि राज्य में पलायन जितना बड़ा मुद्दा होना चाहिए, उतना बड़ा मुद्दा बन नहीं पाया है। धाद संस्था के संस्थापक और सामाजिक कार्यकर्ता लोकेश नवानी कहते हैं कि 2022 के चुनावों में पलायन बड़ा मुद्दा बनना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। राजनीतिक दलों ने भी अपने घोषणा पत्रों में पलायन को औपचारिकता के रूप में ही शामिल किया।

पलायन पर चिंतन अब सिर्फ फैशन बन गया है। इसे रोकने और इस पर गंभीरतापूर्वक काम करने की राजनीतिक दल जरूरत नहीं समझ रहे हैं। वे जानते हैं कि पहाड़ों में मिल रहे वोट से अब कुछ खास लाभ नहीं होना है। सरकार बनने और न बनने का फैसला तो मैदानों से ही होना है। अनूप नौटियाल भी इस बात को मानते हैं। वे कहते हैं कि यही वजह है कि त्रिवेन्द्र रावत से लेकर हरीश रावत तक राज्य के सभी नेता और मैदानी सीटों से ही चुनाव लड़ना पसंद कर रहे हैं।