पंजाब के आने वाले विधानसभा चुनावों में दलितों के वोट पर सारे दलों की निगाहें हैं और फिलहाल दलित, पंजाब की राजनीति की धुरी बने हुए हैं।
राज्य की सभी मुख्य पार्टियों के लिए दलितों के वोट महत्वपूर्ण हैं। वे पंजाब में देश के किसी अन्य राज्य की तुलना में ज्यादा, यानी 32 फीसदी हैं। इस लिहाज से राज्य में कोई भी पार्टी उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकती। यही वजह है कि हर पार्टी उन्हें अपने खेमे में लेने की कोशिश में लगी है।
हालांकि राजनीतिक सत्ता के लिहाज से दलित-वोट जरूरी हैं लेकिन राज्य के राजनीतिक स्पेस में उनकी मौजूदगी लगभग न के बराबर है। यह जरूर है कि उन्हें आरक्षण का लाभ मिलता रहा है।
राज्य में किसी भी पार्टी के बीच से दलितों में मजबूत नेतृत्व का उभार होना अभी बाकी है। इसकी वजह दलितों के एकजुट न होने के अलावा इस समुदाय का सशक्तिकरण न होना भी है।
हाल में होने वाली दो घटनाएं राज्य में अब तक बिखरे हुए दलित वोटों को एकजुट कर सकती है।
इनमें से पहली घटना है - पंजाब के राजनीतिक इतिहास में पहली बार एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति का मुख्यमंत्री बनाया जाना। अभी तक राज्य में भूमि पर पकड़ रखने वाले जाट सिख समुदाय के नेता ही इस पद पर आसीन होते रहे थे।
यहां याद दिलाना जरूरी होगा कि 1966 के बाद से अब तक राज्य के 15 मुख्यमंत्रियों में से जैल सिंह को छोड़कर जो एक रामदसिया सिख थे, बाकी सारे मुख्यमंत्री जाट सिख थे। दरअसल पिछले साल भाजपा ने जब यह ऐलान किया कि वह राज्य की सत्ता में आने पर किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाएगी, तो यह पंजाब की दलित-राजनीति में एक नए युग का आगाज था।
इसके तत्काल बाद ही शिरोमणि अकाली दल ने भी घोषणा कर दी कि अगर राज्य में उसकी सरकार बनती है तो उप-मुख्यमंत्री पद पर किसी दलित को लाया जाएगा। इसके पांच महीने बाद कांग्रेस ने मौका मिलने पर आखिरकार एक दलित को मुख्यमंत्री की गद्दी सौंपने में देरी नहीं की।
दूसरा महत्वूपर्ण बदलाव, गुरु रविदास जयंती के चलते केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा राज्य में मतदान की तारीख का छह दिन आगे बढ़ाया जाना था। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि इस दिन बड़ी तादाद में श्रद्धालु गुरु के जन्म-स्थान वाराणसी जाते हैं। आयोग के इस फैसले के पीछे पंजाब में डेरों का बढ़ा हुआ राजनीतिक असर देखा गया, जिसके पीछे सामूहिक दलित पहचान की मजबूती थी।
डेरों की पंजाब के सामाजिक जीवन में महत्वूपर्ण भूमिका है और ऐसा माना जाता है कि वे दलित-वोटों पर मजबूत पकड़ रखते हैं। राज्य के लगभग हर गांव में डेरे हैं। ये डेरे न केवल पंजाब के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में महत्वूपर्ण भूमिका निभाते हैं बल्कि राज्य के तीन इलाकों - माझा, मालवा और दोआबा की राजनीति में भी उनका असर है।
राज्य में पीढ़ियों से जातिगत-भेदभाव और अत्याचार का सामना कर रहे उपेक्षित दलित-समुदाय के लिए ये डेरे, एक वैकल्पिक सामाजिक-सांस्कृतिक स्पेस देने वाली जगह के तौर पर उभरे हैं।
उनकी अपनी एक विशिष्ट पहचान है। यह कहना मुश्किल है कि वे अपनी राजनीतिक मौजूदगी किस तरह दिखाएंगे क्योंकि डेरों का दावा है कि वे किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े हुए नही हैं।
हालांकि उनके इसी दावे के समानांतर दूसरी सच्चाई यह है कि इन डेरों के पीछे उनके मानने वालों की बड़ी तादाद है और डेरों के प्रमुख, राजनीतिक सत्ता की दिशा मोड़ने की ताकत रखते हैं।
यही वजह है कि पंजाब में चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दलों के नेता अलग-अलग डेरों के प्रति अपना आदर जताते हैं। उदाहरण के लिए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जो दलितों में उप-जाति रविदासिया समुदाय से आते हैं, इसी आधार पर रविदास डेरा का समर्थन हासिल करने में कामयाब हो सकते हैं।
बंटे हुए हैं दलित
अपने आप में दलित कोई एक समुदाय नही है, वे पंजाब की जटिल राजनीति में अलग-अलग बंटे हुए हैं। सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब में दलितों की 39 उप-जातियां है।
राज्य में दलित पांच धर्मों - सिख, हिंदू, क्रिश्चियन, मुस्लिम और बौद्ध में भी बंटे हुए हैं । इसके बाद यह विभाजन रामदसिया, कबीरपंथी, बाल्मीकि, राधास्वामी और अन्य स्थानीय संस्कृति के आधार पर भी है।
विचारधाराओं के आधार पर राजनीतिक पार्टियों की वरीयता को लेकर भी वे बंटे हुए हैं। राजनीतिक तौर पर उनकी आस्था बंटी हुई है।
यह राजनीतिक विभाजन इस तथ्य में भी दिखता है कि उनकी 39 जातियों को मिलने वाले 25 फीसदी आरक्षण में से 12.5 फीसदी केवल दो समुदायों - बाल्मीकि और मजहबी को मिलता है जबकि बाकी 12.5 फीसदी आरक्षण में बची हुई 37 जातियां आती हैं।
जहां तक इस राज्य में जनसांख्यिकीय प्रसार का संबंध है, यह असमान है। जो दोआबा में 37 फीसदी, मालवा में 31 फीसदी और माझा में 29 फीसदी है । हालांकि, शुद्ध संख्या के आधार पर देखें तो मालवा इलाके में सबसे अधिक दलित आबादी है।
जहां तक आर्थिक स्थिति का सवाल है तो यह दलित समुदायों में अगल- अलग है। उदाहरण के लिए, पंजाब की दलित आबादी में एक तिहाई हिस्सा रखने वाले मजहबी सिख, बुनियादी तौर पर खेती पर निर्भर है, और इस समुदाय की किसी भी मामले में भूमिका सीमित है।
मजहबी, सामान्य तौर पर मालवा और माझा इलाकों में पाए जाते हैं। इनमें से ज्यादातर भूमिहीन काश्तकार हैं जो गरीबी में गुजर-बसर करते हैं। शिक्षा में पिछड़े होने के चलते वे अपने जीवन-यापन के लिए जाट सिख समुदाय के ऊपर आश्रित रहते हैं।
दूसरी ओर, दोआबा क्षेत्र में - जिसमें जालंधर, कपूरथला, होशियारपुर और शहीद भगत सिंह नगर जिले शामिल हैं, ऐसे दलित-समूह मिलते हैं जो पारंपरिक कारीगर वर्ग से संबंध रखते हैं। वे दलित आबादी का 40 फीसद हैं, जिनमें चमार, अद-धर्मी, रामदसिया और रविदासिया जैसी जातियां शामिल हैं। विदेशों में बसने के मौके पाने और बेहतर शिक्षा के कारण ये समूह समय के साथ समृद्ध होते गए हैं।
जिस तरह पंजाब में दलितों की स्थितियां अलग-अलग हैं, उसी तरह यहां उनके मुद्दे भी एकसमान नहीं हैं। उदाहरण के लिए राज्य के भूमिहीन दलित, गांवों में सार्वजनिक कृषि योग्य जमीन, जिसे यहां स्थानीय भाषा में शामलत कहते हैं, उस पर अपने अधिकारों का दावा कर रहे हैं।
पंजाब विलेज कॉमन लैंड्स (रेगुलेशन) एक्ट, 1964 के अनुसार दलित किसानों का गांव की सार्वजनिक भूमि पर कानूनी अधिकार है, जिसमें अनुसूचित जाति के लिए 33 फीसदी शामलत भूमि आरक्षित है। लेकिन बड़े जमींदारों द्वारा कपटपूर्ण तरीकों से दलितों को इन जमीनों तक पहुंच से वंचित कर दिया गया है।
इसके अलावा उन्हें (दलितों को) पीने के पानी और स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित करने, चारा खरीदने के लिए खेतों में प्रवेश से इंकार करने और कई बार सामाजिक बहिष्कार, हत्या और बलात्कार जैसे अत्याचारों का भी सामना करना पड़ता है।
हालांकि अब पंजाब के ग्रामीण इलाकों में, जहां जमीन के सवाल पर दलित गोलबंद हो रहे हैं, एक तरह की खामोश क्रांति की आहट भी सुनी जा सकती है, जिसका नेतृत्व जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति (जेडपीएससी) और अन्य संगठन कर रहे हैं।
दूसरी ओर राजनीतिक दलों को दलितों के वोट तो चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से वे जमीनी स्तर के उन मुद्दों में रुचि नहीं लेते, जो दलितों के जीवन पर बुनियादी रूप से असर डालते हैं।
इन दलों को यह समझना होगा कि कभी-कभी घोषित की जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं से दलितों की उन स्थानीय समस्याओं का हल नहीं निकलेगा, जिनकी जड़े समाज में गहरी ध्ंसी हैं। हालांकि इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि एक दलित को राज्य की बागडोर सौंपे जाने से इस वर्ग के लोगों में सम्मान और गर्व की भावना जागी है।
फिर भी इससे यह नहीं कहा जा सकता कि विधानसभा में किसी एक दल को पूरे दलित समुदाय का समर्थन मिल जाएगा। बेशक, चुनावों को ध्यान में रखते ही चन्नी ने राज्य के चार हजार सफाईकर्मियों की सेवाएं नियमित करने जैसे फैसले का ऐलान करने में देर नहीं की।
फिर भी यह देखना अभी बाकी है कि वह दलितों के तमाम मुद्दों, खासकर ग्रामीण इलाकों में उनके सवालों को लेकर क्या रुख अपनाएंगे। उनकी अपनी छवि एक शहरी और शिक्षित व्यक्ति की है, जो कभी गांव का भूमिहीन गरीब था। हालांकि वह अभी भी अपने को आम आदमी मानने का दावा करते हैं।
पंजाब की जटिल राजनीति में यह मानना कि केवल दलित मुख्यमंत्री के सहारे कांग्रेस दलितों का लगभग एकमुश्त वोट हासिल कर लेगी, फिलहाल मुश्किल है।
- पम्पा मुखर्जी पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में राजनीति- विज्ञान की प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और डाउन टू अर्थ का उनसे सहमति रखना अनिवार्य नहीं है।