(L) Joe Biden and (R) Donald Trump. Photo: @thehill / Twitter 
चुनाव

प्रोजेक्ट 2025

मौजूदा व्यवस्था से लोग असंतोष तो जाहिर कर रहे हैं लेकिन विकल्पों को लेकर वो आश्वस्त नहीं हैं

Richard Mahapatra

अभी-अभी सबसे बड़े चुनावी वर्ष का समापन हुआ है। 64 देशों में हुए चुनावों में दुनिया के हर दूसरे व्यक्ति ने अपने प्रतिनिधि को चुनने के लिए मतदान किया। इन चुनावों के नतीजे क्या बताते हैं? निश्चित रूप से इन नतीजों में यह संदेश तो नहीं छिपा है कि 2025 को चुनावी वादों को पूरा करने का वर्ष बनाया जाए।

इन चुनावों में जिस तरह से लोगों ने मतदान किया है, वह केवल सरकार बदलने या वादों को पूरा करने के लिए या किसी और को सत्ता में लाने का संकेत तो बिल्कुल नहीं देता।

यह चुनाव ऐसे समय में हुए हैं जब दुनिया कई संकटों में उलझी हुई है। मसलन, दुनिया एक ऐसे जलवायु का सामना कर रही है, जिसकी प्रभावशीलता पहले कभी महसूस नहीं की गई। इसके अलावा पूरी दुनिया में महंगाई और विशेष रूप से खाद्य पदार्थों की कीमतों में बढोत्तरी देखी गई। इसके चलते खाद्य असुरक्षा के आंकड़े दिखाते हैं कि दुनिया में लोग बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इन समस्याओं के इतर "पहले  मैं" के दृष्टिकोण के साथ दुनिया अलग-अलग खेमों में बंट रही है। देश वैश्वीकरण के साथ अपने संबंधों को फिर से परिभाषित कर रहे हैं।

अमेरिका से लेकर बोत्सवाना तक कई देशों में शासन बदला, जिनमें से कुछ लंबे समय से सत्ता में थे और कुछ बदलाव तो अप्रत्याशित थे। इतिहास के इस सबसे बड़े चुनावी वर्ष का एक संदेश यह हो सकता है कि लोग बदलाव चाहते थे, चाहे इसके कारण कुछ भी हों।

इसी वर्ष यूरोप और अमेरिका समेत अन्य देशों में कई दक्षिणपंथी पार्टियों ने सत्ता हासिल की। ऐसी पार्टियां जिनका सत्ता में आने की कभी कोई उम्मीद नहीं थी वह अब अपने-अपने देशों में मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां बन गई हैं।

कई देशों में वामपंथी झुकाव वाली पार्टियों को भी सत्ता मिली है। वाम-दक्षिण विचारधारा के इस द्वंद्व में, इन चुनावों ने किसी एक पक्ष को निर्णायक रूप से चुने जाने का संकेत नहीं दिया।

प्यू रिसर्च सेंटर ने 2024 के चुनावों पर एक सर्वेक्षण में आर्थिक चुनौतियों को वैश्विक चुनावी मुद्दा बताते हुए एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला। 2024 की शुरुआत में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि "मध्यम रूप से 64 फीसदी वयस्कों ने कहा कि उनकी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था खराब स्थिति में है।"

वहीं, फ्रांस, जापान, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया और ब्रिटेन जैसे प्रमुख देशों में सर्वेक्षण ने बताया कि हर 10 में से सात लोग आर्थिक उदासी को एक बड़ी समस्या मानते हैं।

प्यू रिसर्च सेंटर के 2024 के कई सर्वेक्षणों के विश्लेषण में एक गहरी बात सामने आई, जिसमें कहा गया "प्रतिनिधि लोकतंत्र के कामकाज को लेकर बड़ी निराशा है।"

31 देशों में किए गए एक सर्वेक्षण में आधे से अधिक वयस्क इस बात से असंतुष्ट थे कि उनके देश में लोकतंत्र कैसे काम कर रहा है।

सर्वेक्षण में कहा गया “कई उच्च आय वाले देशों में, पिछले तीन वर्षों में असंतोष में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है”। इसमें, लोगों ने अक्सर राजनीतिक नेताओं और संस्थानों से खुद को अलग-थलग महसूस किया। इसके अलावा उन्होंने कहा कि कोई भी राजनीतिक पार्टी उनके विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।

इस सर्वेक्षण में सबसे महत्वपूर्ण बात पता चली कि भले ही ये देश चुनावी लोकतंत्र हों, लोगों ने स्पष्ट रूप से कहा कि उनकी राजनीति पर उनका कोई प्रभाव नहीं है।

लोगों के लोकतंत्र पर विश्वास में इस बदलाव के बीच यह प्रणाली कैसे टिकेगी? इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लोग लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को पूरी तरह त्याग देंगे। लेकिन, कुछ संकेत मिलते हैं कि लोग ऐसी व्यवस्थाओं का चयन कर सकते हैं जो भयावह रूप से उदार लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर कर सकती हैं।

यह विशेष रूप से यूरोप और अमेरिका में दूर-दराज की पार्टियों के सत्ता में आने में दिखता है। ये पार्टियां मूल रूप से मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ लोगों के गुस्से का फायदा उठा रही हैं। और लोग बिना किसी व्यवहारिक विकल्प के मौजूदा शासन के खिलाफ अपना फैसला देने के लिए इन्हें वोट दे रहे हैं।

भले ही प्रतिनिधि लोकतंत्र उत्तरदायी न हो यह अभी भी ऐसा मॉडल है जिसमें लोगों को अपने प्रतिनिधियों पर कुछ हद तक प्रभाव होता है। लोगों का इस पर से विश्वास उठना इस बात पर व्यापक विचार-विमर्श की मांग करता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को अधिक उत्तरदायी कैसे बनाया जाए।