कोसी बाढ़ की कटान में कई घर हुए नष्ट, फोटो : कोशी नव निर्माण मंच  
चुनाव

बिहार के चुनावी संकल्प पत्रों में नदियों और बाढ़ पर राजनैतिक दिशाहीनता

बाढ़-सुखाड़ से जूझते राज्य में घोषणाओं में दूरदृष्टि और संवेदनशीलता का अभाव

Mahendra Yadav

  • बिहार के चुनावी संकल्प पत्रों में नदियों और बाढ़ के मुद्दों पर गंभीरता की कमी दिखती है।

  • महागठबंधन के संकल्प पत्र में जल संसाधन और पर्यावरण संरक्षण पर केवल तीन बिंदु हैं, जबकि एनडीए ने 'पांच वर्ष में बाढ़ मुक्ति' का वादा किया है।

  • दोनों घोषणापत्रों में बाढ़ प्रभावित लोगों के लिए ठोस योजना का अभाव है।

बिहार में चुनाव प्रचार जोरों पर है। दोनों मुख्य गठबंधनों ने अपने-अपने घोषणा पत्र जारी कर दिए हैं। बिहार देश का ऐसा राज्य है जिसके 38 जिलों में से 28 जिले बाढ़ से प्रभावित रहते हैं, जिनमें से 15 जिले अतिप्रभावित हैं। वहीं कुछ जिले सुखाड़ से परेशान हैं। उत्तर बिहार के 94,163 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में 68,800 वर्ग किलोमीटर अर्थात 73 प्रतिशत भू-भाग और उत्तर बिहार की आबादी का लगभग 76 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ प्रभावित रहता है।

यहां गंगा, गंडक, बागमती, घाघरा, कोशी, सोन और महानंदा जैसी बड़ी नदियां तथा अनेक छोटी नदियां दहाड़ मारती हैं। इसलिए चुनावों में दलों और गठबंधनों द्वारा नदियों और बाढ़ जैसे गंभीर मुद्दों पर अपनाई गई दृष्टि का जनपक्षीय परखना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

इण्डिया गठबंधन (महागठबंधन) के संकल्प पत्र की अदूरदर्शिता

इण्डिया गठबंधन (महागठबंधन) द्वारा जारी संकल्प पत्र में जल संसाधन, बाढ़-सुखाड़ नियंत्रण एवं पर्यावरण संरक्षण जैसे गंभीर विषयों के लिए, जिनके लिए राज्य सरकार में तीन मंत्रालय कार्यरत हैं, मात्र तीन बिंदुओं का उल्लेख किया गया है। इसमें परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की बात स्वागत योग्य है।

घोषणा पत्र में एक स्थान पर बागमती और सिकरहना नदी के तटबंधों की समीक्षा की बात कही गई है, जो सही दिशा में एक कदम है। परंतु कोशी जलाशय निर्माण की बात में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह जलाशय किसी बांध द्वारा बनेगा या बैराज द्वारा। यह अस्पष्टता उसके भ्रम और अदूरदर्शिता को दर्शाती है।

इसी प्रकार कोशी, गंगा और महानंदा नदियों पर पम्प नहर (पंप कैनाल) की बात की गई है, जो कोशी के सन्दर्भ में हास्यास्पद प्रतीत होती है। कोशी पूर्वी मुख्य नहर के बड़े लक्ष्यों को पूरा न कर पाने की स्थिति और कोशी में शुष्क मौसम में पानी के अभाव से अनभिज्ञ रहते हुए, लगता है कि यह सुझाव किसी बाहरी पेशेवर के किताबी ज्ञान के आधार पर अंधेरे में तीर चलाने जैसा है।

एनडीए के संकल्प पत्र में “पांच वर्ष में बाढ़ मुक्ति” — एक नया जुमला

एनडीए के संकल्प पत्र में “पांच वर्ष में बाढ़ से मुक्त बिहार” का वादा किया गया है। इसके तहत मिथिला, कोशी सहित उत्तर बिहार की नदियों के लिए फ्लड मैनेजमेंट बोर्ड बनाने की बात कही गई है। “फ्लड फॉर्च्यून मॉडल” के तहत नदी जोड़ परियोजना, चेक डैम, बैराज और तटबंध निर्माण का उल्लेख किया गया है। साथ ही बीएसडीएमए के माध्यम से अर्ली वार्निंग सिस्टम को कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और ड्रोन तकनीक से उन्नत करने की बात कही गई है।

लेकिन यदि इस परख की जाए, तो स्पष्ट होता है कि कोशी, गंगा सहित अन्य नदियों पर बाढ़ नियंत्रण के लिए पहले से ही अनेक संस्थागत संरचनाएं मौजूद हैं। तो फिर नया बोर्ड क्या नया कर पाएगा?

कोशी–मेची नदी जोड़ परियोजना का उदाहरण लें — यह बड़े दावों के साथ शुरू की गई थी, परंतु वास्तविकता चौंकाने वाली है। राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण (नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी) की वेबसाइट पर उपलब्ध डीपीआर के अनुसार, यह परियोजना पूरी होने पर मात्र 5,247 क्यूसेक पानी डायवर्ट करेगी, जबकि इसी वर्ष कोशी में 5 लाख क्यूसेक से अधिक पानी आया था। वर्ष 2024 में कोशी में 6 लाख 81 हजार क्यूसेक पानी आया था। कोशी बैराज की डिजाइन 9.5 लाख क्यूसेक डिस्चार्ज की क्षमता पर आधारित है — यानी यह परियोजना मात्र 1 प्रतिशत पानी भी डायवर्ट नहीं कर पाएगी।

फिर ऐसे नदी जोड़ परियोजनाओं से पूरे बिहार में पांच वर्षों में बाढ़ कैसे समाप्त होगी, यह एक यक्ष प्रश्न है।

नदियों पर बैराज निर्माण को समाधान मानने वाले गठबंधन के मुखिया तथा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने स्वयं फरक्का बैराज के दुष्प्रभावों पर कराए गए अध्ययन के आधार पर उसे तोड़ने की बात कही थी। फिर राज्य की अन्य नदियों पर बैराज निर्माण को बाढ़ समाधान कैसे माना जा सकता है?

स्वतंत्रता के बाद 1954 में बिहार की नदियों पर 160 किलोमीटर लंबा तटबंध बना था, तब बाढ़ का क्षेत्रफल सीमित था। अब लगभग 3,731 किलोमीटर लंबाई के तटबंध हैं, जबकि बाढ़ का क्षेत्रफल चार गुना बढ़ गया है।

तटबंधों के निर्माण, मरम्मत और टूटने पर अब तक अरबों-खरबों रुपये खर्च हो चुके हैं। वर्ष 1987 से 2014 तक 378 बार तटबंध टूट चुके हैं। इनसे हुई हानियों का कोई सटीक आकलन उपलब्ध नहीं है।

इसी प्रकार अर्ली वार्निंग सिस्टम से सूचना मिलने के बाद लोगों को सुरक्षित निकालने की तैयारी का भी कोई उल्लेख नहीं है। तटबंधों के टूटने से बाहरी इलाकों में भारी बर्बादी होती है। इन क्षेत्रों की स्थलाकृति (टोपोग्राफी), जल निकासी मार्गों में अवरोध और अवसंरचना द्वारा जल निकासी पर पड़ने वाले प्रभावों की सटीक जानकारी के बिना अर्ली वार्निंग सिस्टम भी अधूरा ही रहेगा।

इस प्रकार स्पष्ट है कि इस गंभीर विषय पर कोई ठोस रोडमैप नहीं है। “पांच वर्षों में बाढ़ खत्म करने” की बात मात्र एक जुमला प्रतीत होती है।

दोनों घोषणा पत्रों में बिहार की हिमालयी नदियों पर जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) के संभावित प्रभावों का कोई अनुमान या अध्ययन आधारित नीति-निर्धारण नहीं दिखता। भविष्य की जल आपदाओं से निपटने की कोई दूरदर्शी योजना नहीं है।

घोषणा पत्रों में एक शब्द नहीं

दोनों गठबंधनों के घोषणा पत्रों में हर साल बाढ़ की पीड़ा झेलने वाले, और कोशी तटबंध के भीतर रहने वाले लाखों लोगों के लिए एक शब्द भी नहीं है। ये लोग नीतिगत अन्याय के शिकार हैं। इन्हें “विकास का काला पानी” भुगतना पड़ रहा है — यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

कोशी समस्या के समाधान के लिए कोई ठोस योजना, कार्यक्रम या रोडमैप नहीं दिया गया है। यही स्थिति अन्य नदियों और तटबंधों के पीड़ित लोगों की भी  है।

जो वादे किए गए हैं वे आवश्यक तो हैं, परंतु इन आपदाओं में होने वाली तबाही के सामने सब निष्फल हो जाते हैं। इसीलिए, नदियों, बाढ़ और सुखाड़ जैसे विषयों पर राजनैतिक दिशाहीनता राज्य के लिए भारी पड़ रही है। बिहार को इन मुद्दों पर दूरदर्शी, वैज्ञानिक और संवेदनशील नेतृत्व की आवश्यकता है।